वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता
यदि हम मानव प्रकृति का अध्ययन करें तो हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि वर्ण व्यवस्था मानव-प्रकृति के अनुकूल है।हम देखते हैं कि समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें सत्वगुण की प्रधानता होती है।त्याग,तप और ज्ञान प्राप्ति ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है।इन लोगों से यदि युद्ध लड़ने,व्यापार करने और सेवा कार्य निभाने को कहा जाये तो ये उतने सफल नहीं होंगे जितने ब्राह्म-कर्म में।
समाज का यही वर्ग ब्राह्मण-वर्ण के नाम से पुकारा जाता है।
समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनमें रजोगुण की प्रधानता होती है।उनके मन में अत्यधिक उत्साह और भुजाओं में यथेष्ठ बल होता है।ये स्वभावतः नीर्भिक होते हैं।ऐसे व्यक्ति युद्ध प्रिय होते हैं।समाज में इस वर्ग को क्षत्रीय वर्ण कहा जाता है।
समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनमें थोड़ा रजोगुण और अधिकतर तमोगुण होता है।ये व्यक्ति धन के इच्छुक होते हैं।इनकी वाणिज्य और व्यापार में रुचि होती है।समाज का यही वर्ग वैश्य वर्ण कहलाता है।
समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैंजिनमें तमोगुण की प्रधानता होती है।वे चाहते हैं कि उन्हें भरपेट भोजन मिले और वे खाएं-पिएं,इसके बदले में वे सामाजिकों की सेवा कर दें।न उनकी पढ़ने में रुचि होती है,न शौर्य की प्रवृत्ति,और न व्यापार में कोई रुचि होती है।समाज का यह वर्ग शूद्र वर्ण कहलाता है।अतः वर्ण-व्यवस्था मनोवैज्ञानिक है और यह समाज की आवश्यकता है।
समाज की इस मनोवैज्ञानिक आवश्यकता को वेदमन्त्र में सुन्दर रीति से उपस्थित किया गया है-
क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वं महीया इष्टये त्वर्थमिव त्वमित्यै ।
विसदृशा जीविताभिप्रचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ।। (ऋ० 1/113/6)
अर्थ-एक को बल और राष्ट्र-सम्बन्धी यश के लिए,एक को बड़े-बड़े यज्ञों के लिए ,एक को धन के लिए,एक को चलने-फिरने के लिए-इस प्रकार असमान स्वभाव वाले प्राणियों को अपने-अपने काम के लिए(प्रकाशित करने के लिए) उषा ने सब लोकों को निगलकर अन्धकार से बाहर कर दिया है।मन्त्र का आशय यह हैं कि उषा ने लोगों को अन्धकार से बाहर इसलिए किया कि विभिन्न स्वभाव वाले व्यक्ति अपने-अपने कर्म कर सकें।
इस मन्त्र में विभिन्न गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का वर्णन किया गया है।
अब हम दूसरे दृष्टिकोण से वर्ण-व्यवस्था की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं।मानव-समाज के चार शत्रु हैं-अज्ञान,अन्याय,अभाव और आलस्य।
अज्ञान मनुष्य और मनुष्य-समाज का मुख्य शत्रु है।संसार के पदार्थों की जानकारी और गुण-दोष़ो का विवेचन ज्ञान के द्वारा होता है।यह ज्ञान समाज का ब्राह्मण वर्ण प्रदान करता है।
समाज का दूसरा शत्रु अन्याय होता है।समाज का सबल-वर्ग निर्बल-वर्ग के प्रति अन्याय करता है।समाज के इस अन्याय को राजपुरुष(पुलिस) दूर करते हैं।एक देश लोभ के वशीभूत होकर दूसरे देश पर आक्रमण कर देता है।इस अन्याय को दूर करने वाले वर्ग को क्षत्रीय-वर्ण कहा जाता है।
राजपुरुष और सैनिक दोनों ही क्षत्रीय-वर्ण के अन्तर्गत आते हैं।
समाज का तीसरा शत्रु अभाव है।समाज के धन के अभाव को वाणिज्य और व्यापार के द्वारा दूर करने वाले वर्ग को वैश्य-वर्ण कहा जाता है।अधिकाधिक अन्नोत्पादन द्वारा समाज में खाद्यान्न के अभाव की पूर्ति करते हैं।पशुधन की वृद्धि द्वारा देश को समृद्ध करते हैं।
यह व्यापारी,कृषक और पशुपालक वर्ग समाज का वैश्य-वर्ण कहलाता है।
समाज का चौथा शत्रु आलस्य है।इस आलस्य को दूर करने वाला वर्ग शूद्र वर्ण कहलाता है।इस वर्ण के लोग सेवा द्वारा विभिन्न कार्य करते हैं ।
समाज के उपर्युक्त चार शत्रुओं को दृष्टि में रखते हुए भी वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
चारों वर्णों के गुण,कर्म व स्वभाव:-
ब्राह्मण के:-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्रह्मणानामकल्पयत् ।।(मनु० 1/88)
पढ़ना-पढ़ाना,यज्ञ करना-कराना,दान देना और लेना ब्राह्मणों के कर्म कहे गये हैं।
शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।. (गीता 18/42)
मन से बुरे काम की इच्छा न करना,इन्द्रियों को बुरे मार्ग से हटाना,ब्रह्मचर्य रखकर व जितेन्द्रिय रहकर सत्यजीवन व्यतीत करना,पवित्रता,सरलता,
आध्यात्मिक ज्ञान,पदार्थों का पूर्ण ज्ञान,आस्तिकता-ये ब्राह्मण के कर्म हैं।
क्षत्रीय के निम्नलिखित गुण,कर्म,स्वभाव बतलाये हैं:-
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ।। (मनु० 1/89)
प्रजा की रक्षा करना,दान देना,यज्ञ करना,पढ़ना और विषयों में आसक्त न होना-ये क्षत्रीय के कर्म हैं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्मस्वभावजम् ।। (गीता 18/43)
शूरता,तेज,धैर्य,दक्षता,युद्ध से न भागना और प्रजा के साथ पुत्रवत् बर्ताव-ये क्षत्रीय के कर्म हैं।
वैश्य के-
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।
वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च ।. (मनु० 1/90)
पशुपालन,दान,यज्ञ,अध्ययन,व्यापार,सूद पर धन चढ़ाना और कृषिकर्म -ये वैश्य के कर्म हैं।
शूद्र का कर्म-
एकमेव तु शूद्रश्य प्रभुः कर्मसमादिशत् ।
एतेषामेव वर्णानं शुश्रूषामनसूयया ।। (मनु० 1/91)
शूद्र का यही कर्म है कि वह निन्दा,ईर्ष्या व अभिमान को छोड़कर इन तीनों(ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैश्य) की सेवा करे।
वर्ण व्यवस्था का आधार गुण-कर्म-स्वभाव है,न कि जन्म।
पूर्वजन्मों के कर्मो़ के अनुसार मनुष्य ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैश्य और शूद्र कुल में जन्म लेता है।।तदनन्तर वह अपने गुण,कर्म और स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त होता है।
जन्म के आधार पर वर्ण-व्ययवस्था मानने में कई दोष हैं:-
जिन ब्राह्मणों,क्षत्रीयों और वैश्यों में ब्राह्मणत्व,क्षत्रीयत्व और वैश्यत्व का अभाव हो जाता है,वे शूद्र नहीं कहलवाना चाहते।
वे अपने को जन्म के आधार पर ही ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैश्य और शूद्र मानते हैं।
इस प्रकार इनमें जन्म के आधार पर जात्यभिमान उत्पन्न हो जाता है।इसके कारण उन्हें यह भय नहीं रहता कि वे जन्मजात वर्ण से वंचित किये जा सकते हैं।दूसरी और शूद्रों को अपने गुणों के विकास करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता।उनके ब्राह्मणत्व,क्षत्रीतत्व और वैश्यत्व के दरवाजे ही बंद हो जाते हैं।उन्नति के अवसर न मिलने के कारण वे हतोत्साहित हो जाते हैं।
जन्म के आधार पर कई उपजातियों का निर्माण हो जाता है,जैसाकि,अब देखने में आता हैं।
इससे शिल्प तथा व्यापार की भी हानि होती है।उच्चवर्ण के लोग धोबी,नाई,तेली,कुम्हार और चमार का काम करने को तैयार नहीं होते।
अपने धर्म में नए प्रविष्ट व्यक्तियों को किन वर्णों में सम्मिलित किया जाये यह समस्या उत्पन्न होती है।
वर्ण-व्यवस्था का आधार प्रतिस्पर्धा नहीं,अपितु सहयोग है।चारों वर्ण एक दूसरे के पूरक हैं।इनका परस्पर कोई विरोध नहीं है।जिस प्रकार मुख,भुजाएं,उदर,जंघा और पांव एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं,वैसे ही चारों वर्ण परस्पर सहयोगी होकर सुन्दर समाज की रचना करते हैं।