गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

समान शिक्षा ,इलाहबाद हाई कोर्ट का निर्णय

                                                                     इलाहबाद हाई कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है | यह किसी की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न नही होना चाहिए | क्यों की आज भारत का बहुत बड़ा वर्ग किसान है या गरीब है या दलित समुदाय से आता है | ऐसे में जब उनके बच्चो को शिक्षा न मिले तो उनके दिलो पर क्या बीतती होगी | यह सहज अहसास कर पाना बड़ा ही कठिन सवाल ?
                                                                    आज जहाँ सरकार द्वारा शिक्षा के अनेको प्रावधान किये गए फिर भी हम आज शिक्षा के अधिकार से ही वंचित है | संविधान के अनुच्छेद 41 A के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत मान्यता दी गई थी जिसके अनुसार, "राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, शिक्षा और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता के मामले में सार्वजनिक सहायता करने के लिए काम करते हैं, सही हासिल करने के लिए प्रभावी   व्यवस्था करे “ /
                                                                      हालांकि संविधान निर्माणी सभा के अनेको सदस्य और स्वतः बाबा साहब अम्बेडकर यह चाहते थे कि समान शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार में शामिल हो और न्यायिक आदेश से लागू होने की व्यवस्था हो। परन्तु उस समय केन्द्र सरकार के मुखिया और निंयत्रको का यह तर्क था कि सरकार का खर्च और साधन इतने विकसित नही है कि इसे वैधानिक अधिकार या कानून के रुप में लागू किया जा सके। अतः कुछ समय ढांचे के विकास को चाहिये और इसलिये अन्य मुद्दों की तरह इसे भी नीति निर्देशक मुद्दों के खण्ड में शामिल किया जाये जो कि सरकारों के लिये आदर्श हो और कुछ समय पश्चात जब आधार रुप ढांचे का विकास हो जाये तब अन्य मुद्देां के साथ समान शिक्षा के मुद्दे को भी मूल अधिकार के रुप में शामिल किया जा सकता है।
                                                                       पर अफ़सोस व दुखद यहाँ रहा की इसका कोई ठोस नियम या आदेश न बन सका | इसके पीछे तर्क था की भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नही की इस खर्च को झेल चुके |एक यह भी अनुमान लगाया गया की आने वाली सरकारे 10-20-30 वर्षो में इसका नियम व आदेश बना लेंगे पर आज आजादी के 68 वर्ष बीत चुके है फिर भी हम लोगो को शिक्षा का समान अधिकार नही दे पाये |

                                                                      निजी स्कूलो के नाम पर आर्य समाज ईसाई मिशनरी संस्थायें, इस्लामिक मदरसा, गुरुद्वारा प्रंबधक सभायें जैसी अन्य धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से शिक्षा के प्रसार के लिये स्कूल कालेज आदि खोले गये थे परन्तु यह सामाजिक हित में और गरीब लोगो को भी शिक्षा देने के लिये न्यूनतम फीस आदि के आधार पर शुरु किये गये थे।इनमें व्यापार या मुनाफा नही था और न ही निजी मालकियत थी बल्कि इनके पीछे समाज सेवा शिक्षा का विकास और परोपकार की भावना थी।
                                                                     परन्तु कुछ वर्षो के पश्चात समाज के ताकतवर सपन्न और प्रभावी लोगो ने अपने बच्चों के लिये पृथक और मंहगे स्कूल शुरु कराये जैसे दून स्कूल डेली कालेज और ऐसी ही अन्य शिक्षण संस्थाओं को राजा महाराजा या उद्योगपतियों के पैसे से खड़ा करना आंरम्भ हुआ तथा शिक्षा को अमीर और गरीब-बड़े और छोटे ताकतवर और कमजोर राजा और रंक के बीच बांट दिया गया। पुराने राजाओं, धनपतियों और राज सत्ता पर बैठे नेताओं तथा अफसर शाहो के बच्चे इन बड़े स्कूलों में पढ़ाये जाने लगे जहां पढ़ाई का माध्यम सत्ता प्रतिष्ठान की भाषा अंग्रेजी हो गई और उच्चवर्गीय और उच्च वर्णीय ढ़ाचे को स्थाई तौर पर बरकरार रखने के लिये शिक्षण संस्थाओं में भाषा महत्वपूर्ण माध्यम बन गई।
                                                                     डा.राममनोहर लोहिया ने नारा दिया था ’’राष्ट्रपति हो या चपरासी की संतान सबकी शिक्षा एक समान’’ लोहिया इस बात को जानते थे कि अगर अफसर और चपरासी का बेटा, सम्पन्न और गरीब का बेटा , उद्योगपति और किसान का बेटा, बड़ी जात और दलित का बेटा जब एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़ेगे तो भेद-भाव मिटेगा |राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी तथा सबको समान अवसर प्राप्त होगे,जिससे योग्यता और क्षमता का विकास भी उसी के अनुसार होगा।
                                                                     यह बड़ा विचित्र है कि हमारे देश के कुछ नौजवान और कुछ लेाग जो आरक्षण को समानता का विरोधी मानते है आरक्षण तो मिटाना चाहते है| आरक्षण मुक्त भारत का नारा लगाते है परन्तु समान शिक्षा की बात नही करते। वे यह तो कहते है कि 68 साल आरक्षण को हो गये इसे खत्म करना चाहिये परन्तु वो यह नही कहते कि 68 साल हो गये कि अब नीति निर्देशक मुद्दों को संवैधानिक प्रावधान बनना चाहिये तथा सबको समान शिक्षा का अवसर मिलना चाहिये।
                                                                 असमान शिक्षा भी एक प्रकार का आरक्षण है जिसमें सम्पन्न और ताकतवर के बच्चो को पद और पैसे के आधार पर शिक्षा के विशेष अवसर है। इसका आधार योग्यता नही है बल्कि मात्र आर्थिक या सत्ता प्रतिष्ठान की ताकत ही योग्यता है। यह नौजवान मित्र बड़े-बड़े डोनेशन वाली (जो वस्तुतः भ्रष्ट व काला धन होता है) उस शिक्षा प्रणाली का भी विरोध नही करते जिसमें लाखो करोड़ रुपये देकर अयोग्य छात्र डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते है और इसीलिये समाज के एक बड़े हिस्से में उनकी मांग और नीयत संदिग्ध रहती है। अब देश में सरकारी शिक्षण संस्थाये और विशेषतः प्राथमिक शिक्षा मैदान के बाहर नजर आती है। नये सरकारी स्कूल खुलने के बजाय बंद हो रहे है। परोपकार के नाम पर शुरु किये जाने वाली धार्मिक और सामाजिक संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल बंद हो रहे है|
                                                                कहने को तो सरकार ने शिक्षा का कानून RTE 2009 में पारित कर दिया है , निजी शिक्षक संस्थाओ को 25 प्रतिशत स्थान गरीबो के बच्चो को आरक्षित रखने का प्रावधान कर दिया है। पर यह तो कानून की किताबो में ही सिकुड़ कर रह गया है | स्कूलो में प्रवेश भी मिल जाये पर विद्यालय में लगने वाली वर्दी (यूनिफार्म) महँगी किताबे ,कापियां ,स्कूल की दुरी की वजह से साधन याने स्कूल प्रबंधन की चलने वाली महँगी किराये वाली बस (BUS) ,एवं विद्यालय में लगने वाली शिक्षण शुल्क के अलावा अन्य लगने वाली शुल्क की भरपाई कौन करेगा ,,कोर्स में अनेक प्रकार के प्रोजेक्ट बनाने के लिए सहायक सामग्री स्टेशनरी कम्प्यूटर ,प्रिंटर आदि कहाँ से लाये जाये ,यह सारी बाते या समस्याए एक गरीब परिवार नही झेल सकता |
                                                                भारत की 15 वी जनगणना(वर्ष 2015) के अनुसार देश में साक्षरता 74.04 फीसदी है| जिसमे पुरुष साक्षरता 82.14 फीसदी और महिला साक्षरता 65.46 फीसदी हो गई | पर इस बात का ध्यान रहे की शिक्षित होना और साक्षर होना दोनों में भिन्नता है | अब समय आ गया है जब  शिक्षा की ही नहीं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात होनी चाहिये”” |
                           यही कारण है कि””सबको शिक्षा-अच्छी शिक्षा”” हमारा नारा है।
                                                              जब सभी नेता ,अभिनेता ,लोकसेवक ,जज ,अफसर ,लिपिक,चपरासी, किसान ,दलित आदि जब सभी के बच्चे एक ही स्कूल में एक ही छत के नीचे एक ही अध्यापक से शिक्षा ग्रहण करेंगे | तभी हम सभी समान शिक्षा का अधिकार दे पाएंगे |
                                                               आज मध्यप्रदेश में शिक्षा की हालत बहुत ही दयनीय है जिसके कारण आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो गया है| सरकारी स्कुलो का रुख खासकर प्रायमरी स्तर पर केवल गरीब के बच्चे मध्यान भोजन के लिए या छात्रवृत्ति के लिए नाम मात्र को स्कूल पहुँच रहे है | वही शिक्षको में अनेक कटेगिरी का निर्माण शासन ने कर रखा है /अतिथि , गुरूजी, संविदा शिक्षक ,शिक्षाकर्मी ,नियमित शिक्षक ,पद एक ,कक्षाए भी पढ़ाने को एक ,पर दुर्भाग्य की इनका वेतन अलग-अलग है |ऐसे में मानसिक तनाव झेल रहा मध्यप्रदेश का शिक्षक अपने नियमतीकरण के लिए कही स्कूल बंद ,कही हड़ताल ,कही ज्ञापन ,कही जेल में बंद रहकर सरकार की नीतियों व वादा खिलाफी के प्रति अपनी जंग जारी रखे हुए है ,,,ऐसे में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ,विद्यालयों का सही सञ्चालन हो पाना आज “”दूर की कौड़ी साबित”” हो रहा है |
                     सरकारी विद्यालयों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की कमी के कारण :-
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01. विद्यालयों को सही संचालित करने में सरकार की इच्छाशक्ति की कमी |
02. नेताओ के द्वारा आपने वोटर्स तैयार करने के लिए शैक्षणिक घोषणाए |
03. गुणवत्तापूर्ण शिक्षक/ शिक्षिका की कमी
04. शिक्षक/शिक्षिका को अन्य शैक्षणिक कार्यो में उलझाये हुए रखना |
05. शिक्षको को पुरे वर्ष स्कूल के बाहर जनगणना, मतदाता सूचि का संधारण  ,ग्राम सर्वे ,BPL सूचि तैयार            करना ,पशु गणना ,मध्यान भोजन की  जानकारिया जुटाना  आदि अनेक ऐसी ही योजनाओ को
       राष्ट्रिय कार्य का नाम देकर शिक्षक/शिक्षिका से करवाया जाता है |
06. गुणवत्तापूर्ण व नियमानुसार एवं सर्व सुविधायुक्त विद्यालय ईमारत का न होना |
07 .विद्यालयों में पानी ,साफ-सफाई,रौशनी ,साफसुथरे लैट्रिन-बाथरूमो का न होना |
08. विद्यालय का सही प्रबंधन न होना |
09. विद्यालयों में होने वाली मानिटरिंग को सही अन्जाम न देना ,,यह केवल खानापूर्ति तक
      सीमित रहा गया है |
10. अधिकारियों का अपनी जेब गरम करने से फुर्सत नही जिसकारण विद्यालयों की सुविधा एवं
      पढाई लिखाई पर ध्यान देने का ढुलमुल रवैया |
                                                                 यदि सभी नेता ,अभिनेता ,लोकसेवक ,जज ,अफसर ,लिपिक,चपरासी, किसान ,दलित आदि जब सभी के बच्चे एक ही स्कूल में एक ही छत के नीचे एक ही अध्यापक से शिक्षा ग्रहण करेंगे तो इसके परिणाम भी बेहद रोचक होंगे |साथ ही भारत देश का जो एक बड़ा तबका जो की शिक्षा से अछूता या कहे शिक्षा के नाम पर साक्षर तो है पर शिक्षित नही है |ऐसे बदलाव से समाज पर भी गहरा और भविष्य में सामाजिक भेदभाव मिटाने में कभी सहायक सिद्ध होगा |
समाज पर प्रभाव :-
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01. सभी छात्र एक जैसी वर्दी (यूनिफार्म) पहनेगें तो न कोई आमिर दिखेगा न ही कोई गरीब दिखेगा
02. सभी छात्र एक जैसी किताबो का अध्ययन करेंगे जिससे सभी का ज्ञान बुद्धि-लब्धि के हिसाब से एक जैसा होगा |
03. सरकार के द्वारा स्कुलो में उपलब्ध करवाए गए पढाई –लिखाई के साधन भी एक जैसे होंगे |
04. सबसे अहम बात की गरीब बच्चो को पढाई करने में हीन भावना का शिकार भी नही होना पढ़ेगा |
05. कक्षा में एक अध्यापक सभी छात्रो को एक जैसा ही पढ़ेगा ,यह नही होगा की ये गरीब छात्र है की यह अमीर छात्र है |किसी एक पक्ष को इंगित नही करेगा |
06. अमीर छात्रो को अलग से कोई अन्य भाषा नही पढ़ाई जाएगी ,जैसा की बड़े निजी विद्यालयों में होता है |सभी को एक ही पाठ्यक्रम से पढाया जायेगा |
07. एक साथ स्कूलो में बैठक व्यवस्था होगी | क्यों की अमीर गरीब का भेदभाव अभी भी समाज में व्याप्त है |
08. जब सभी नेता ,अभिनेता ,लोकसेवक ,जज ,अफसर , व्यापारी के पुत्र/पुत्री जब सरकारी स्कूलो में पढेंगे तो आपने आप ही सभी स्कुलो पर विशेष ध्यान देना शुरू
कर देंगे और स्कुलो की खस्ता हालत या लचर व्यवस्था में सुधार आना शुरू हो जायेगा |
09. शिक्षको को सही वेतनमान और सही समय पर पगार(पेमेंट) मिलना शुरू हो जाएगी |
10. वर्तमान में जो हम भारत की साक्षरता 74 प्रतिशत बताते है यही शिक्षा में परिवर्तित हो जाएगी ,फिर हर वर्ग का छात्र देश के प्रति देशप्रेम और देश के संसाधनों को
गुणवत्तापूर्ण उपयोग के बारे में सोचेगा
यह इलाहबाद हाई कोर्ट का बहुत ही सराहनीय कदम है |इससे समाज ही नही देश में भी शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक बदलाव आएंगे |
नरेन्द्र कुमार पासी
भूगोल ( वरिष्ठ अध्यापक )
शास. बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सरवन 
 पोस्ट- सैलाना ,जिला-रतलाम(मध्यप्रदेश)
भारत

रविवार, 2 अक्टूबर 2016

बाबा साहेब ने इस्तीफा क्यों दिया।

डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा क्यू दिया..???*****************************मुख्य चार कारण:-
(01.) डा० बी.आर. अंबेडकर ने अनुच्छेद 340 में OBC आरक्षण के विषय मे लिखा उसकी सच्चाई
        और महत्वपूर्ण तथ्य..(1) अनुच्छेद 341 के अनुसार शेड्यूल कास्ट (SC) को 15% प्रतिनिधित्व दिया....
(2 )  अनुच्छेद 342 के अनुसार..शेड्यूल ट्राईब (ST) को 7.5% प्रतिनिधित्व दिया...और इन वर्गो का विचार              करने से पहले डा. अंबेडकर ने सर्वप्रथम OBC अर्थात अन्य पिछड़ी जातियों का विचार किया... इसीलिये           डा.अंबेडकर ने अनुच्छेद 340 के अनुसार OBC को सर्वप्रथम प्राथमिकता दी....
(3)   अनुच्छेद 340 के अनुसार OBC को 52% प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान किया, उस समय लौह-पुरूष                 "सरदार पटेल" इसका विरोध करते हुए बोले...."ये OBC कोन है"...???ऐसा प्रश्न सरदार पटेल स्वत:                  OBC होते हुए भी पूछा...!!!क्युकि उस समय तक SC और ST मे शामिल जातियों की पहचान हो चुकी            थी.... और OBC में शामिल होने वाली जातियों की पहचान....(जो आज 6500 से अधिक है) का कार्य पूर्ण        नहीं हुआ था.......कोई भी "अनुच्छेद" लिखने के बाद.. डा० अंबेडकर को उस"अनुच्छेद" को...प्रथम तीन            लोगो को दिखाना पड़ता था.....
                       1) पंडित नेहरू2) राजेंद्र प्रसाद3) सरदार पटेल..इन तीनों की मंजूरी के बाद... उस अनुच्छेद का       विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी...उस समय संविधान सभा में कुल 308 सदस्य होते थे, उसमें से       212 Congress के थे....अनुच्छेद 340, अनुच्छेद 341 और 342 के पहले है... सभी पिछड़ी जातियों को इस         महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान देनाचाहिए..340 वां अनुच्छेद असल में क्या है... ???जिस समय बाबासाहब            डा० अंबेडकर ने 340 वां अनुच्छेद का प्रावधान किया और सरदार पटेल को दिखाया.. उस पर सरदार पटेल        ने बाबासाहेब से प्रश्न किया " ये OBC कौन है".... "हम तो SC और ST को ही backward मानते हैं"... ये            OBC आपने कहा से लाये......???सरदार पटेल भी बॅरिस्टर थे, और वह स्वयं OBC होते हुए भी ...उन्होंने          OBC से संबधित अनुच्छेद 340 का विरोध किया...!!!किंतु इसके पीछे की बुद्धि.. सिर्फ गांधी और नेहरू की        थी......तब डा. अंबेडकर ने सरदार पटेल से कहा... "it's all right Mr. Patel " मै आपकी बात संविधान मे डाल       देता हूँ कि" संविधान के अनुच्छेद 340 में सरदार पटेल के मुख से बोले गये वाक्य के अाधार पर ... 340 वें      अनुच्छेद के अनुसार ...इस देश के राष्ट्रपति को OBC कौन है...?? "येमालूम नहीं है"....और इनकी पहचान     करने के लिए एक "आयोग गठित" करने का आदेश दे रहे हैं "......गांधी..... नेहरू...पटेल....प्रसाद और उनकी      Congress की, OBC को प्रतिनिधित्व देने की इच्छा नहीं है... ये बाबासाहेब को दिखा देना था....परंतु 340 वें      अनुच्छेद के अनुसार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने OBC कौन है..इन्हें पहचानने के लिए आयोग नहीं बनाया.!!      इसलिए दि. 27 Sept 1951 को बाबासाहेब ने केन्द्रीय कानून मंत्री पद से इस्तीफा दिया..मतलब OBC के          कल्याण के लिए केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देने वाले पहले और अंतिम व्यक्ति डॉ बाबासाहेब आंबेडकर         है...परंतु आज भी यह घटना अपने OBC जाति के मित्र को शायद मालूम नहीं है इस बात पर बहुत आश्चर्य     और दुख होता है.... !!!!...सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाबासाहेब डा. अंबेडकर को त्यागपत्र पंडित नेहरू ने     संसद में पढ़ने नहीं दिया.. !!!अंत में 10 Oct 1951 को बाबासाहेब ने यह बात संसद के बाहर प्रसार माध्यम       के सामने रखी..." यह बात उल्लेखनीय है कि...अगर संसद में "त्यागपत्र" को पढ़ने दिया जाता तो... भविष्य     में OBC को असलियत का पता चलता की OBC के लिए डा.अंबेडकर ने कानूनमंत्री पद से इस्तीफा दिया...     !!!डा. अंबेडकर ने कानूनमंत्री पद से इस्तीफा दिया उसके चार मुख्य कारण...1) अनुच्छेद 340 के अनुसार       आयोग की नियुक्ति नहीं की...2)नेहरू का परराष्ट्रीय ऐजंडा गलत था...3)हिन्दू कोड बिल...4)प्रधानमंत्री            नेहरू ने कैबिनेट वितरण में बाबासाहेब से किया भेदभाव...पर डा. अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के लिए              इस्तीफा दिया... इस बात का प्रचार किया जाता है... !!!इस्तीफा देने के कारण का क्रम देखा जाए तो                डा.अंबेडकरने किस बात को महत्व दिया ...आपके ध्यान में आयेगा.....।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

धर्म और संस्कृति

Balendu Swami*कुरीतियों का स्रोत और धर्म तथा संस्कृति में अन्तरक्या है!*मैं जब भी किसी भी धर्म और संस्कृति के खिलाफ कुछ लिखता हूँ तो उसके प्रति सॉफ्ट कोर्नर रखने वाले लोग कहते हैं कि आप धर्म के खिलाफ नहीं उसकी कुरीतियों केखिलाफ लिखो. मैं जरा समझना चाहता हूँ कि आखिर कुरीति का मतलब क्या है? कुरीति का मानदण्ड क्या है? कब और कौन ये निश्चित करता है कि ये कुरीति है? किसी रीति को कुरीति का दर्जा देने का अधिकार किसे प्राप्त है?क्या धर्मग्रंथों में लिखी बातें या उनसे प्रेरित परम्पराएँ कुरीति है? बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हेंआप या आपके जैसे कुछ लोग अब कुरीति कह रहे हैं परन्तु जो इन धर्म और संस्कृति से प्रेरित परम्पराओं का पालन सैकड़ों, हजारों वर्षों से करते चले आ रहे हैं वो इसे कुरीति नहीं बल्कि अपनी संस्कृति मान कर करते हैं. कल जो संस्कृति और गर्व की बात थी, जिसे महिमामंडित किया जाता था, आज आप उसे कुरीति कह रहे हो.उदाहरण के लिए आज से 200 साल पहले तक पति की चिता के साथ सती होना महिमा और गर्व की बात थी, राजा राममोहन राय ने कानून बनाकर उसे रोक दिया गया, परन्तु करपात्री जी जैसे धार्मिक पुरोधाओं ने वेदों और अन्यधर्मग्रन्थों से प्रमाण देकर सतीप्रथा को धार्मिक और पुण्य का कार्य बताया! और आज भी राजस्थान में सती का मंदिर है जहाँ रोज दर्शन और पूजा को हजारों लोग जाते हैं. हालाँकि अधिकाँश लोग आज इसे कुरीति मानते होंगे, परन्तु मैं अपने जीवन में खुद हजारों ऐसे लोगों से मिला हूँ जोकि सतीप्रथा को आज भी महिमामंडित करते हैं.चलिए ये बात तो थोड़ी पुरानी हो गई, आज की बात करते हैं:दहेज़ की परम्परा हजारों साल से चली आ रही है, धर्मग्रंथों में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं, और आज के सामान्य जन को भी यह कोई कुरीति नहीं लगती, संभवतः मुट्ठी भर लोगों को यह भी कुरीति लगती होगी, और मुझे पूरा विश्वास है कि आगे आने वाली पीढियां इसे पूरी तरह कुरीति घोषित कर देंगी. तो जो आज कुरीति नहीं बल्कि अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन है वह भविष्य में कुरीति हो जायेगी.ठीक ऐसे ही आज जिसे आप संस्कृति कहते हो और वेदमंत्रों से संकल्प लेकर ‘कन्यादान’ करते हो, मेरा दावा है कि भविष्य में लड़कियां इस रीति से भड़क जायेंगी और कहेंगी कि हम कोई जानवर या वस्तु नहीं हैं, जोकि तुम जिसे चाहे उसे दान कर दो! और फिर देखना आपकी ये सुरीति कुरीति में बदल जायेगी.आज भी संस्कृति का पालन करने वाले परिवारों और गाँवों में घूँघट तथा पर्दा प्रथा आम बात है, परन्तु बहुत से लोग इसे कुरीति मानकर त्याग चुके हैं. हालाँकि जो इसका पालन करते हैं वो इसका पालन न करने वाले को हेय दृष्टि से देखते हैं और उनकी नज़र में यह कुरीति नहीं बल्कि उनकी संस्कृति का पालन है, और जो इसे स्वीकार नहीं करते वो बेशर्म हैं.जाति व्यवस्था और छुआछूत को शायद आप कुरीति कहते होंगे, परन्तु करोड़ों लोगों के लिए यही उनकी संस्कृति है, और उनके धर्मग्रंथों का आदेश है, जो हजारों साल से चला आ रहा है, और आज भी कितने ही मंदिरों में घोषित अथवा अघोषित रूप से ठीक हमारे आपके जैसे एक इन्सान का प्रवेश वर्जित है! और तो और उनकी बस्तियां और पानी भरने के स्थान अलग हैं! और यह सब कुछ धर्म के द्वारा मान्यता प्राप्त और पोषित है.इस सन्दर्भ में हमें संगठित धर्म और संस्कृति के अन्तर को समझना भी जरुरी है. संगठित धर्म वह व्यवस्थाअथवा कानून है जो समाज का नियमन करने के लिए हजारों साल पहले बनाया गया. जिसके अनुसार आपको बताया जाता हैकि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए! और धर्म की व्यवस्था ने शोषण के उद्देश्य से स्वयं को जड़बनाया और उसमें संशोधन तथा बदलाव की सारी संभावनाएं समाप्त कर दीं. इसीलिये आप गीता और कुरान को बदल नहीं सकते. तथा संस्कृति का मतलब है परिवेश, जिसमें व्यक्तियों के समूह की सोच का प्रभाव और प्रवाह होता है. निश्चित रूप से धर्म व्यक्ति की सोच को प्रभावित करता है और उसका प्रतिबिम्ब संस्कृति पर भी पड़ता है. परन्तु संस्कृति धर्म की तरह जड़ नहीं होती और हमेशा बदलती रहती है.सौ पचास साल पहले की बात तो आप छोड़ दो हमारे आसपास की संस्कृति तो बहुत जल्दी बदलती रहती है. आपको एक उदाहरण दूँ: लगभग 25 साल पहले जब मैं एक टीनएज था तब हमारे छोटे से शहर में अगर कोई प्रेम विवाह कर लेता था तो बहुत बड़ी बात होती थी और पूरे शहर में वो विवाह चर्चा का विषय बन जाता था परन्तु आज ये कोई सामान्य बात तो नहीं है, फिर भी हल्ला भी नहीं होता और खबर भी नहीं बनती. इस तरह से संस्कृति (कल्चर) बदलता है और हरक्षण बदल रहा है. आप बदलाव को रोक नहीं सकते परन्तु यदि आप नहीं बदलोगे तो कष्ट पाओगे. हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की हर समय, हर बात में दुहाई देने वालों से पूछना चाहता हूँ कि प्राचीन समय मतलब हमारी दादी नानी के जमाने में तो बाल विवाह हुआ करते थे, और आजकल की अरेंज मैरेज की तरह दिखाई की रस्म नहीं होती थी! तो क्यों नहीं करते आप अपने 10-12 साल के बच्चों की शादी! बदले तो आप भी हो और अगले दस बीस सालों में आपभी वो नहीं रहोगे जो कि आज हो परन्तु आपके साथ दिक्कत ये है कि इस बदलाव को स्वीकार करने और पचाने में आपको दिक्कत हो रही है! और ऐसा भी नहीं है कि प्राचीन संस्कृति हमेशा महान ही हो, अपनी संस्कृति की बहुत सीबातों को सुनकर आप आज नाक मुंह सिकोड़ने लग जाओगे! परन्तु मैंने हमेशा देखा है कि इस तरह के लोग जो आधुनिक भी होना चाहते हैं, और पुराने को छोड़ना भी नहीं चाहते अधिकांशतः दुविधा और संशय में रहते हैं और कई बार तो अवसाद के मरीज तक बन जाते हैं.अब मैं वापिस अपनी मूल बात पर लौटता हूँ, और कहना यह चाहता हूँ कि यहाँ तो मैंने कुछ कुरीतियों की ही चर्चा करी परन्तु आप किसी भी कुरीति को उठाकर देख लो, उसके मूल में धर्म का वह सडा और रुका हुआ वह पानी होताहै, जिसमें कि प्रवाह नहीं है और वो बदबू देने लग गया है, परन्तु धर्म और प्राचीन संस्कृति के मोह और मिथ्या गर्व को न छोड़ पाने वाले लोग उसे ढोते रहने का दुराग्रह करते हैं. धर्म आपको आज भी उसी हजारों साल पुरानी लाठी (कानून) से हाँकना चाहता है, जिसका कि उद्देश्य मनुष्य मन के भय और लालच का दोहन करके शोषण करना था. उसी के हिसाब से उसने अपने तानाशाही वाले कानून बनाए और न पालन करने पर नरक इत्यादि के भय दिखाए अथवा पालन करने पर स्वर्ग इत्यादि के लालच दिए!इसीलिये मैं धार्मिक व्यक्ति पर नहीं बल्कि धर्म और उसके ठेकेदारों पर चोट करता हूँ, आम धार्मिक व्यक्ति तो केवल भेड़ होता है जिसके पास अपनी कोई समझ नहीं और कुछ किताबों में लिखी अच्छी बुरी बातों को मानने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं. सावधान रहने की जरुरत तो उन पाखंडियों से है जो यह कहते हैं कि वो भी “धर्म के पाखण्ड के खिलाफ हैं”. अरे सच्ची बात तो यह है कि धर्म में पाखण्ड के सिवाय कुछ और है ही नहीं, अथवा यों कह लो कि पाखण्ड धर्म में से निकाल दोगे तो धर्म में कुछ बचेगा ही नहीं, क्योंकि चोरी न करना, ईमानदारी और प्रेम से रहना तथा झूठ न बोलने जैसी नैतिक शिक्षाओं के लिए तुम्हें हिन्दू, मुसलमान होनेकी जरुरत नहीं, परन्तु शोषण के उद्देश्य से कुछ नैतिकशिक्षाओं को इकट्ठा करके उसे संगठित धर्म के रूप में बेचने का षड्यंत्र करने वाले सबसे बड़े अपराधी हैं. भूतकाल में ये षड्यंत्र चाहे जिन्होंने भी किया हो, परन्तु वर्तमान में ये षड्यंत्रकारी बाबा, गुरु और सन्यासी अथवा कथावाचक के रूप में मिल जायेंगे, ये भी जरुरी नहीं कि ये हमेशा पारम्परिक परिवेश में ही हों,कई बार ये आपके अगल बगल और आप जैसी वेशभूषा में भी फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से यह कहते मिल जायेंगे किहम भी “धर्म के पाखण्ड के खिलाफ हैं”, परन्तु “धर्म का मतलब धारण करना है”, “एक मनोविज्ञान है”, “जीवन की पद्धति है” और भी जाने कितना ब्ला ब्ला, धर्म के द्वारा प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष लाभ लेने वाले (कभी कभी अवैतनिक मानसिक रोगी) इन ठेकेदारों से बचना, क्योंकि इन्हें पता पड़ चुका है कि इनके इस गंदे धंधे की पोल खुल रही है और अधिकतर लोग धर्म के चंगुल से छूटरहे हैं, इसलिए अब इन्हें नए फंडे चाहिए अपना वर्चस्वकायम रखने के लिए. कभी ये आपको निर्मल बाबा की तरह टीवी पर समौसे खिलाकर ईश्वर की कृपा बेचते मिल जायेंगे और कभी कुमार स्वामी की तरह मन्त्रों से कैंसर ठीक करते मिलेंगे या फिर कभी श्रीश्री रविशंकरकी तरह अपनी फोटो के आगे मोबाइल चार्ज करने का दावा करते और चमत्कारी तेल से तुरन्त मांस-पेशियों में ताकत पैदा करते तथा जीवन को जीने की कला सिखाते हुए मिल जायेंगे, परन्तु इन सबके पीछे काल्पनिक, अलौकिक, ईश्वरीय सत्ता और शक्ति को बेचने का धूर्त प्रयास अवश्य ही होगा, अब चाहे आप उनके इस प्रोडक्ट को भय से खरीदो या लालच से, इसीलिये मैं कहता हूँ कि धर्म ही खुद में सबसे बड़ा पाखण्ड और कुरीति है.सबसे बड़ी कुरीति तो हर संगठित धर्म खुद ही है, जिसमें से असंख्यों छोटी-मोटी कुरीतियाँ निकलती हैं. परन्तु जब आप ‘धर्म की कुरीतियां’ कहते हैं तो यह कहकरइस गन्दगी के ऊपर कपड़ा डालकर उसे छुपा रहे होते हैं, और उस गन्दगी के स्रोत को वैसा ही छोड़ देते हैं, जिससेकि गन्दगी और बढ़ेगी, और इसी तरह से आजतक बढी है. जरुरत क्या है, इस धर्म नामक भेड़ों वाली कुव्यवस्था और कुरीति को ढोने की! क्या आपमें खुद सोचने समझने की क्षमता नहीं है? क्यों न हम समय के प्रवाह, आधुनिक और वैज्ञानिक सोच के साथ चलें और एक सुन्दर ताजे पानी केझरने की तरह बहती हुई सुसंस्कृत संस्कृति का निर्माणकरें, और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इस दुनिया को धर्म, सम्प्रदाय, अन्धविश्वास और कुरीतियों से मुक्त बनायें.ऐसे ढेर सारे विषयों पर चर्चा करने के लिए आपका स्वागत है

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

आरक्षण का विरोध कौन कर रहे है

������  *मेरे दलित भाइयो अगर आपने ये नही पढ़ा तो समझो आपने ज़िंदगी कुछ नही पढ़ा इसलिये ये जरुर पढ़ो ओर जानो--->* ������
30 crore Sc/St PeoplesOf India,•
*आरक्षण का विरोध कौन कर रहे हैं :-*
1. आरक्षण का विरोध मुसलमान नहीं कर रहे हैं।
2. आरक्षण का विरोध सिख नहीं कर रहे हैं।
3. आरक्षण का विरोध ईसाई भी नहीं कर रहे हैं।
आरक्षण का विरोध तो छुआछूत फैलाने वाले कर रहे हैं। भेदभाव फैलाने वाले कर रहे हैं। जात-पात का अंतर करने वाले कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले कर रहे हैं। आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं..?
क्योंकि उनके अंदर लालच है और ऊँच--नीच की भावना है।
वो मनुवादी हैं । मनुवाद खत्म होगा तो मानवतावाद का जन्म होगा और हम हैं मानवतावादी।
अंग्रेजों ने भारत पर 150 वर्षों तक राज किया उच्च जाति वालो  ने उनको भगाने का हथियार बन्द आंदोलन क्यों चलाया?
जबकि भारत पर सबसे पहले हमला मुस्लिम शासक मीर काशीम ने 712ई. किया!
उसके बाद महमूद गजनबी, मोहम्मद गौरी,चन्गेज खान ने हमला किये और फिर कुतुबद्दीन एबक, गुलाम वंश, तुग्लक वंश, खिल्जी वंश, लोदी वंश फिर मुगल आदि वन्शजों ने भारत पर राज किया और खूब अत्याचार किये लेकिन उच्च जाति वालो ने कोई क्रांति या आंदोलन नहीं चलाया!
फिर अन्ग्रेजों के खिलाफ़ ही क्यो क्रांति कर दी l
*जानिये क्रांति और आंदोलन की वजह*
1- अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति रखने का कानून बनाया।
2- 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिंग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी। 6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।
3- 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढा बनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था)
4- 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।
5- 1813 में अंग्रेजों ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।
6- 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया(1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नहीं होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)
7- 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनीपड़ती थी।)
8- 1830 नरबलि प्रथा पर रोक ( देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटकपटक कर चढ़ा देता था।)
9- 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नही रखा जा सकता है।
10-1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ। कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।
11-1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये।
पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है। यह बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न जाय इसलिए पैदा होते हीगंगा को दान करवा देते थे।
12- 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा कोअंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।
13- 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।
14- दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवाओंको जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।
15- देवदासी प्रथा पर रोक लगाई।ब्राह्मणोंके कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर कीसेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे।और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे। 1921 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी। यह प्रथाअभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरों में चल रही है।
16- 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।17- 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे ई डी बेटन ने स्थापित किया।
18- 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 में विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।
19- 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समानक्रिमिनल लॉ ला़गू कर दिया।
20- 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजापर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवादिया जाता था इस पूजा में मान्यता थी की भवन और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।
21- 1867 में बहु विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया ।
22- 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवारगणना प्रारम्भ की।
���� *जीत...* ����
अजीब दोगलापन है, लोगो को आरक्षण से चिड़ है लेकिन अपनी जाति के उच्च होने पर गर्व है !
सब्जी खरीदते समय जाति नहीं देखी जाती मगर उसी सब्जी को खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।।
फसल कटाई पर जाति नहीं देखते मगर उसकी बनी रोटियां खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।
मकान बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर जब मकान बन जाये तो उसमे बैठाने के लिए जाति देखते हैं।।
मंदिर बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर उसमें जाने के लिए जाति देखते हैं।।
स्कूल या कॉलेज बनबाने के लिए जाति नहीं देखते लेकिन पढ़ाई के वक़्त जाति देखी जाती हैं।।
कपङे खरीदते समय जाति नहीं देखते मगर उन्हीं कपड़ों को पहनकर उनसे दूर भागते हैं।।
साथियों ये भारत देश हैं,, जहाँ कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है। बुद्धिजीवियों का सामाजिक दायित्व..."इंसान जीता है, पैसे कमाता है, खाना खाता है और अंततः मर जाता हैं।
जीता इसलिए है ताकि कमा सके... कमाता इसलिए है ताकि खा सके... खाता इसलिए है ताकि जिन्दा रह सके... लेकिन फिर भी एक दिन मर ही जाता है... अगर सिर्फ मरने के डर से कमाकर खाते हो तो अभी मर जाओ, मामला खत्म, मेहनत बच जायेगी।
मरना तो सबको एक दिन हैं ही, नहीं तो समाज के लिए जियो, ज़िन्दगी का एक उद्देश्य बनाओं, गुलामी की जंजीरो में जकड़े समाज को आज़ाद कराओं। अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण तो एक जानवर भी कर लेता हैं। मेरी नज़र में इंसान वही है जो समाज की भी चिंता करे और समाज के लिये कार्य भी करे। नहीं तो डूब मरे ,अगर जिंदगी सिर्फ खुद के लिये ही जी रहे हैं तो"..................इस मैसेज को इतना फैलाओ कि दुनिया के सभी समाज जाति के लोगों के पास पहुंच जाये और उन्हें पता चल जाये कि दलितों को आरक्षण क्यों मिल रहा है ।
जिसकी रगों में एक दलित समाज के व्यक्ति का खून होगा वो बेझिझक इस मैसेज को सभी ग्रुपोंमें भेजेगा ।
और साथियों OBC वर्ग के लोग जो खुद को शूद्रों से अलग बतातें हैं वो भी शूद्रों की श्रेणी में गिने जाते हैं ।,...
������ *जय भीम*
           *जय भारत* ������

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

भोला की चिट्टी

भोला की चिट्ठी

आदरणीय मास्टर जी,

मैं भोला हूँ, आपका पुराना छात्र. शायद आपको मेरा नाम भी याद ना हो, कोई बात नहीं, हम जैसों को कोई क्या याद रखेगा.

मुझे आज आपसे कुछ कहना है सो ये चिट्ठी डाक बाबु से लिखवा रहा हूँ.

मास्टर जी मैं 6 साल का था जब मेरे पिताजी ने आपके स्कूल में मेरा दाखिला कराया था. उनका कहना था कि सरकारी स्कूल जाऊँगा तो पढना-लिखना सीख जाऊँगा और बड़ा होकर मुझे उनकी तरह मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी,

दो वक़्त की रोटी के लिए तपते शरीर में भी दिन-रात काम नहीं करना पड़ेगा… अगर मैं पढ़-लिख जाऊँगा तो इतना कमा पाऊंगा कि मेरे बच्चे कभी भूखे पेट नहीं सोयेंगे!

पिताजी ने कुछ ज्यादा तो नहीं सोचा था मास्टर जी…कोई गाडी-बंगले का सपना तो नहीं देखा था वो तो बस इतना चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिख कर बस इतना कमा ले कि अपना और अपने परिवार का पेट भर सके और उसे उस दरिद्रता का सामना ना करना पड़े जो उन्होंने आजीवन देखी…!

पर पता है मास्टर जी मैंने उनका सपना तोड़ दिया, आज मैं भी उनकी तरह मजदूरी करता हूँ, मेरे भी बच्चे कई-कई दिन बिना खाए सो जाते हैं… मैं भी गरीब हूँ….अपने पिता से भी ज्यादा !

शायद आप सोच रहे हों कि मैं ये सब आपको क्यों बता रहा हूँ ?
क्योंकि आज मैं जो कुछ भी हूँ उसके लिए आप जिम्मेदार हैं !

मैं स्कूल आता था, वहां आना मुझे अच्छा लगता था, सोचता था खूब मन लगा कर पढूंगा,क्योंकि कहीं न कहीं ये बात मेरे मन में बैठ गयी थी कि पढ़ लिख लिया तो जीवन संवर जाएगा…इसलिए मैं पढना चाहता था…लेकिन जब मैं स्कूल जाता तो वहां पढाई ही नहीं होती.

आप और अन्य अध्यापक कई-कई दिन तो आते ही नहीं…आते भी तो बस अपनी हाजिरी लगा कर गायब हो जाते…या यूँही बैठ कर समय बिताते…..कभी-कभी

हम हिम्मत करके पूछ ही लेते कि क्या हुआ मास्टर जी आप इतने दिन से क्यों नहीं आये तो आप कहते कुछ ज़रूरी काम था!!!

आज मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आपका वो काम हम गरीब बच्चों की शिक्षा से भी ज़रूरी था?
आपने हमे क्यों नहीं पढाया मास्टर जी…क्यों आपसे पढने वाला मजदूर का बेटा एक मजदूर ही रह गया?

क्यों आप पढ़े-लिखे लोगों ने मुझ अनपढ़ को अनपढ़ ही बनाए रखा ?

क्या आज आप मुझे वो शिक्षा दे सकते हैं जिसका मैं अधिकारी था?

क्या आज आप मेरा वो बचपन…वो समय लौटा सकते हैं ?
नहीं लौटा सकते न ! तो छीना क्यों ?

कहीं सुना था कि गुरु का स्थान माता-पिता से भी ऊँचा होता है, क्योंकि माता-पिता तो बस जन्म देते हैं पर गुरु तो जीना सिखाता है!

आपसे हाथ जोड़ कर निवेदन है, बच्चों को जीना सिखाइए…उनके पास आपके अलावा और कोई उम्मीद नहीं है …उस उम्मीद को मत तोड़िये…आपके हाथ में सैकड़ों बच्चों का भविष्य है उसे अन्धकार में मत डूबोइए…

पढ़ाइये…रोज पढ़ाइये… बस इतना ही कहना चाहता हूँ!
             
             क्षमा कीजियेगा !
                    भोला