Balendu Swami*कुरीतियों का स्रोत और धर्म तथा संस्कृति में अन्तरक्या है!*मैं जब भी किसी भी धर्म और संस्कृति के खिलाफ कुछ लिखता हूँ तो उसके प्रति सॉफ्ट कोर्नर रखने वाले लोग कहते हैं कि आप धर्म के खिलाफ नहीं उसकी कुरीतियों केखिलाफ लिखो. मैं जरा समझना चाहता हूँ कि आखिर कुरीति का मतलब क्या है? कुरीति का मानदण्ड क्या है? कब और कौन ये निश्चित करता है कि ये कुरीति है? किसी रीति को कुरीति का दर्जा देने का अधिकार किसे प्राप्त है?क्या धर्मग्रंथों में लिखी बातें या उनसे प्रेरित परम्पराएँ कुरीति है? बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हेंआप या आपके जैसे कुछ लोग अब कुरीति कह रहे हैं परन्तु जो इन धर्म और संस्कृति से प्रेरित परम्पराओं का पालन सैकड़ों, हजारों वर्षों से करते चले आ रहे हैं वो इसे कुरीति नहीं बल्कि अपनी संस्कृति मान कर करते हैं. कल जो संस्कृति और गर्व की बात थी, जिसे महिमामंडित किया जाता था, आज आप उसे कुरीति कह रहे हो.उदाहरण के लिए आज से 200 साल पहले तक पति की चिता के साथ सती होना महिमा और गर्व की बात थी, राजा राममोहन राय ने कानून बनाकर उसे रोक दिया गया, परन्तु करपात्री जी जैसे धार्मिक पुरोधाओं ने वेदों और अन्यधर्मग्रन्थों से प्रमाण देकर सतीप्रथा को धार्मिक और पुण्य का कार्य बताया! और आज भी राजस्थान में सती का मंदिर है जहाँ रोज दर्शन और पूजा को हजारों लोग जाते हैं. हालाँकि अधिकाँश लोग आज इसे कुरीति मानते होंगे, परन्तु मैं अपने जीवन में खुद हजारों ऐसे लोगों से मिला हूँ जोकि सतीप्रथा को आज भी महिमामंडित करते हैं.चलिए ये बात तो थोड़ी पुरानी हो गई, आज की बात करते हैं:दहेज़ की परम्परा हजारों साल से चली आ रही है, धर्मग्रंथों में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं, और आज के सामान्य जन को भी यह कोई कुरीति नहीं लगती, संभवतः मुट्ठी भर लोगों को यह भी कुरीति लगती होगी, और मुझे पूरा विश्वास है कि आगे आने वाली पीढियां इसे पूरी तरह कुरीति घोषित कर देंगी. तो जो आज कुरीति नहीं बल्कि अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन है वह भविष्य में कुरीति हो जायेगी.ठीक ऐसे ही आज जिसे आप संस्कृति कहते हो और वेदमंत्रों से संकल्प लेकर ‘कन्यादान’ करते हो, मेरा दावा है कि भविष्य में लड़कियां इस रीति से भड़क जायेंगी और कहेंगी कि हम कोई जानवर या वस्तु नहीं हैं, जोकि तुम जिसे चाहे उसे दान कर दो! और फिर देखना आपकी ये सुरीति कुरीति में बदल जायेगी.आज भी संस्कृति का पालन करने वाले परिवारों और गाँवों में घूँघट तथा पर्दा प्रथा आम बात है, परन्तु बहुत से लोग इसे कुरीति मानकर त्याग चुके हैं. हालाँकि जो इसका पालन करते हैं वो इसका पालन न करने वाले को हेय दृष्टि से देखते हैं और उनकी नज़र में यह कुरीति नहीं बल्कि उनकी संस्कृति का पालन है, और जो इसे स्वीकार नहीं करते वो बेशर्म हैं.जाति व्यवस्था और छुआछूत को शायद आप कुरीति कहते होंगे, परन्तु करोड़ों लोगों के लिए यही उनकी संस्कृति है, और उनके धर्मग्रंथों का आदेश है, जो हजारों साल से चला आ रहा है, और आज भी कितने ही मंदिरों में घोषित अथवा अघोषित रूप से ठीक हमारे आपके जैसे एक इन्सान का प्रवेश वर्जित है! और तो और उनकी बस्तियां और पानी भरने के स्थान अलग हैं! और यह सब कुछ धर्म के द्वारा मान्यता प्राप्त और पोषित है.इस सन्दर्भ में हमें संगठित धर्म और संस्कृति के अन्तर को समझना भी जरुरी है. संगठित धर्म वह व्यवस्थाअथवा कानून है जो समाज का नियमन करने के लिए हजारों साल पहले बनाया गया. जिसके अनुसार आपको बताया जाता हैकि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए! और धर्म की व्यवस्था ने शोषण के उद्देश्य से स्वयं को जड़बनाया और उसमें संशोधन तथा बदलाव की सारी संभावनाएं समाप्त कर दीं. इसीलिये आप गीता और कुरान को बदल नहीं सकते. तथा संस्कृति का मतलब है परिवेश, जिसमें व्यक्तियों के समूह की सोच का प्रभाव और प्रवाह होता है. निश्चित रूप से धर्म व्यक्ति की सोच को प्रभावित करता है और उसका प्रतिबिम्ब संस्कृति पर भी पड़ता है. परन्तु संस्कृति धर्म की तरह जड़ नहीं होती और हमेशा बदलती रहती है.सौ पचास साल पहले की बात तो आप छोड़ दो हमारे आसपास की संस्कृति तो बहुत जल्दी बदलती रहती है. आपको एक उदाहरण दूँ: लगभग 25 साल पहले जब मैं एक टीनएज था तब हमारे छोटे से शहर में अगर कोई प्रेम विवाह कर लेता था तो बहुत बड़ी बात होती थी और पूरे शहर में वो विवाह चर्चा का विषय बन जाता था परन्तु आज ये कोई सामान्य बात तो नहीं है, फिर भी हल्ला भी नहीं होता और खबर भी नहीं बनती. इस तरह से संस्कृति (कल्चर) बदलता है और हरक्षण बदल रहा है. आप बदलाव को रोक नहीं सकते परन्तु यदि आप नहीं बदलोगे तो कष्ट पाओगे. हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की हर समय, हर बात में दुहाई देने वालों से पूछना चाहता हूँ कि प्राचीन समय मतलब हमारी दादी नानी के जमाने में तो बाल विवाह हुआ करते थे, और आजकल की अरेंज मैरेज की तरह दिखाई की रस्म नहीं होती थी! तो क्यों नहीं करते आप अपने 10-12 साल के बच्चों की शादी! बदले तो आप भी हो और अगले दस बीस सालों में आपभी वो नहीं रहोगे जो कि आज हो परन्तु आपके साथ दिक्कत ये है कि इस बदलाव को स्वीकार करने और पचाने में आपको दिक्कत हो रही है! और ऐसा भी नहीं है कि प्राचीन संस्कृति हमेशा महान ही हो, अपनी संस्कृति की बहुत सीबातों को सुनकर आप आज नाक मुंह सिकोड़ने लग जाओगे! परन्तु मैंने हमेशा देखा है कि इस तरह के लोग जो आधुनिक भी होना चाहते हैं, और पुराने को छोड़ना भी नहीं चाहते अधिकांशतः दुविधा और संशय में रहते हैं और कई बार तो अवसाद के मरीज तक बन जाते हैं.अब मैं वापिस अपनी मूल बात पर लौटता हूँ, और कहना यह चाहता हूँ कि यहाँ तो मैंने कुछ कुरीतियों की ही चर्चा करी परन्तु आप किसी भी कुरीति को उठाकर देख लो, उसके मूल में धर्म का वह सडा और रुका हुआ वह पानी होताहै, जिसमें कि प्रवाह नहीं है और वो बदबू देने लग गया है, परन्तु धर्म और प्राचीन संस्कृति के मोह और मिथ्या गर्व को न छोड़ पाने वाले लोग उसे ढोते रहने का दुराग्रह करते हैं. धर्म आपको आज भी उसी हजारों साल पुरानी लाठी (कानून) से हाँकना चाहता है, जिसका कि उद्देश्य मनुष्य मन के भय और लालच का दोहन करके शोषण करना था. उसी के हिसाब से उसने अपने तानाशाही वाले कानून बनाए और न पालन करने पर नरक इत्यादि के भय दिखाए अथवा पालन करने पर स्वर्ग इत्यादि के लालच दिए!इसीलिये मैं धार्मिक व्यक्ति पर नहीं बल्कि धर्म और उसके ठेकेदारों पर चोट करता हूँ, आम धार्मिक व्यक्ति तो केवल भेड़ होता है जिसके पास अपनी कोई समझ नहीं और कुछ किताबों में लिखी अच्छी बुरी बातों को मानने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं. सावधान रहने की जरुरत तो उन पाखंडियों से है जो यह कहते हैं कि वो भी “धर्म के पाखण्ड के खिलाफ हैं”. अरे सच्ची बात तो यह है कि धर्म में पाखण्ड के सिवाय कुछ और है ही नहीं, अथवा यों कह लो कि पाखण्ड धर्म में से निकाल दोगे तो धर्म में कुछ बचेगा ही नहीं, क्योंकि चोरी न करना, ईमानदारी और प्रेम से रहना तथा झूठ न बोलने जैसी नैतिक शिक्षाओं के लिए तुम्हें हिन्दू, मुसलमान होनेकी जरुरत नहीं, परन्तु शोषण के उद्देश्य से कुछ नैतिकशिक्षाओं को इकट्ठा करके उसे संगठित धर्म के रूप में बेचने का षड्यंत्र करने वाले सबसे बड़े अपराधी हैं. भूतकाल में ये षड्यंत्र चाहे जिन्होंने भी किया हो, परन्तु वर्तमान में ये षड्यंत्रकारी बाबा, गुरु और सन्यासी अथवा कथावाचक के रूप में मिल जायेंगे, ये भी जरुरी नहीं कि ये हमेशा पारम्परिक परिवेश में ही हों,कई बार ये आपके अगल बगल और आप जैसी वेशभूषा में भी फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से यह कहते मिल जायेंगे किहम भी “धर्म के पाखण्ड के खिलाफ हैं”, परन्तु “धर्म का मतलब धारण करना है”, “एक मनोविज्ञान है”, “जीवन की पद्धति है” और भी जाने कितना ब्ला ब्ला, धर्म के द्वारा प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष लाभ लेने वाले (कभी कभी अवैतनिक मानसिक रोगी) इन ठेकेदारों से बचना, क्योंकि इन्हें पता पड़ चुका है कि इनके इस गंदे धंधे की पोल खुल रही है और अधिकतर लोग धर्म के चंगुल से छूटरहे हैं, इसलिए अब इन्हें नए फंडे चाहिए अपना वर्चस्वकायम रखने के लिए. कभी ये आपको निर्मल बाबा की तरह टीवी पर समौसे खिलाकर ईश्वर की कृपा बेचते मिल जायेंगे और कभी कुमार स्वामी की तरह मन्त्रों से कैंसर ठीक करते मिलेंगे या फिर कभी श्रीश्री रविशंकरकी तरह अपनी फोटो के आगे मोबाइल चार्ज करने का दावा करते और चमत्कारी तेल से तुरन्त मांस-पेशियों में ताकत पैदा करते तथा जीवन को जीने की कला सिखाते हुए मिल जायेंगे, परन्तु इन सबके पीछे काल्पनिक, अलौकिक, ईश्वरीय सत्ता और शक्ति को बेचने का धूर्त प्रयास अवश्य ही होगा, अब चाहे आप उनके इस प्रोडक्ट को भय से खरीदो या लालच से, इसीलिये मैं कहता हूँ कि धर्म ही खुद में सबसे बड़ा पाखण्ड और कुरीति है.सबसे बड़ी कुरीति तो हर संगठित धर्म खुद ही है, जिसमें से असंख्यों छोटी-मोटी कुरीतियाँ निकलती हैं. परन्तु जब आप ‘धर्म की कुरीतियां’ कहते हैं तो यह कहकरइस गन्दगी के ऊपर कपड़ा डालकर उसे छुपा रहे होते हैं, और उस गन्दगी के स्रोत को वैसा ही छोड़ देते हैं, जिससेकि गन्दगी और बढ़ेगी, और इसी तरह से आजतक बढी है. जरुरत क्या है, इस धर्म नामक भेड़ों वाली कुव्यवस्था और कुरीति को ढोने की! क्या आपमें खुद सोचने समझने की क्षमता नहीं है? क्यों न हम समय के प्रवाह, आधुनिक और वैज्ञानिक सोच के साथ चलें और एक सुन्दर ताजे पानी केझरने की तरह बहती हुई सुसंस्कृत संस्कृति का निर्माणकरें, और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इस दुनिया को धर्म, सम्प्रदाय, अन्धविश्वास और कुरीतियों से मुक्त बनायें.ऐसे ढेर सारे विषयों पर चर्चा करने के लिए आपका स्वागत है
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