सम्मान कि रक्षा के लिए क्यों नही लड़ते शिक्षक
यह आलेख १८ अगस्त को सुप्रसिध्द समाचार पत्र दैनिक भास्कर में प्रकाशित किया गया था |तब के शिक्षाकर्मी आन्दोलन और और अब अध्यापक के रूप में आंदोलन पैराटीचर्स के लिए एक बार और प्रकाशित किया जा रहा है |
जून के आखिरी सप्ताह से म.प्र. में नया शिक्षा सत्र आरंभ होता है |सत्र के प्रारंभ होते ही समाचार माध्यम भी सक्रीय हो जाते है अखबारों में विद्यालयों के हालत ,शिक्षकों कि कमी ,शासन कि अन्य कमियों और उपलब्धियों के समाचार पढ़ने को मिलते है |ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा जगत में कोई नई क्रांति आने वाली है ,हर तरफ शिक्षा के प्रति उत्साह नजर आता है |लेकिन इन्ही दिनों एक समाचार और पढ़ने में आता है ,जो शिक्षाकर्मियों के आन्दोलन से सम्बंधित होता है आखिर वे कौन सी समस्याए है जो पिछले एक दशक से हल नही हो पा रही है ,,और शिक्षाकर्मियो को आन्दोलन के लिए विवश करती है ,,शिक्षाकर्मियो ने अब तक अपनी समस्यायों को जिस रूप में पेश किया है ,उससे तो यह भी प्रतीत होता है कि उनकी लड़ाई शासन से बेहतर वेतन भत्ते एवं चंद सुविधाए हासिल करने भर है ,,शिक्षाकर्मियो का नेतृत्व इतने लंबे समय तक जिन व्यक्तियों के पास रहा ,,उनसे भारी चूक हुई है वे ये नही समझ सके कि हमारे समाज में सुविधाओं के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयो को कम ही समर्थन मिलता है ,,सरकारे भी बड़ी सामाजिक हलचलों के बिना नही जगती शिक्षाकर्मियो कि समस्याए जितनी भारी शिक्षकर्मोयो के लिए है उससे कही अधिक भारी और घातक समाज के लिए है |इसे यदि चेतावनी भी मान लिया जाए तो भी इस पर व्यापक चिंतन के आवश्यकता है ,,प्रदेश का एक तिहाई से अधिक स्कूली शिक्षक ,शिक्षाकर्मियो ,संविदा ,शिक्षकों ,गुरुजनों,जैसे रूपों में काम करता हुआ अति कुंठित है ,,शिक्षक के लिए प्रयुक्त शिक्षकर्मी शब्द जैसा भी लगता हो ,,पर यह शब्द पुराने जैसी गरिमा और भाव व्यक्त नही करता ,,शासन ने बुध्दिमानी से इस बात को इस भाव को और इतनी बड़ी चूक को अब सुधार लिया है ,प्रदेश का शिक्षाकर्मी इस शब्द भेद को समझ कर उसकी व्याख्या कर पता उससे पहले ही शासन ने इस नए शब्द का प्रयोग बंद कर दिया ,,,हलाकि शिक्षकों को शिक्षाकर्मी बना कर शासन कि मंशा शिक्षक को अपमानित करने कि कतई नही थी ,,शासन से तो चूक भर हुई थी शिक्षाकर्मियो ने नेतृत्व को शिक्षकों कि गरिमा कि रक्षा कि ,,लड़ाई को वेतन ,भत्तो में उलझाए रखा ..,किसी ने भी शिक्षक और शिक्षाकर्मी का शब्द भेद समाज एवं प्रबुध्द वर्ग के सामने व्यापक रूप से नही रखा ,,शिक्षक आर्थिक लाभ से जोड़-घटने के चक्कर में अपने स्कूल से टिन शेड तक घूमते रहे औए शासन को पूरा-पूरा मौका दिया कि वो अपनी चूक सुधारे ,,शासन ने ये चूक सुधारी और शिक्षाकर्मी शब्द का प्रयोग बंद कर दिया ,,,शिक्षाकर्मी और उनका नेतृत्व गत दस वर्षों में शासन और समाज के सामने अपना पक्ष इस तरह से नही रख पाया कि व्यक्ति कि मुलभुत आवश्यकताओं में रोटी कपडा और मकान तो अनिवार्य ही है ,पर इनमे संतुष्ट और सम्मान भी सामिल है ,,शिक्षाकर्मी शब्द का प्रतिस्थापन होने पर जो नया शब्द शिक्षक को मिला है वो संविदा शाला शिक्षक है ,अंतिम शब्द शिक्षक लिखा कर शासन ने शायद पुरानी गरिमा लौटने का प्रयाश किया है ,,लेकिन चूक यहाँ भी हो गई ,,क्यों कि इसमें प्रयुक्त शब्द शाला इस बात कि पुष्टि करता प्रतीत होता है कि शिक्षक का शाला से कोई न कोई स्थाई रिश्ता है ,,प्रतीत में इस रिश्तेदारी को साथ लिखने कि आवश्यकता शायद इसलिए नही थी ,,क्यों कि अकेले शिक्षक से ही लोग उसका पूरा भाव और उसकी शाला से रिश्तेदारी समझ सकते थे ,,परन्तु शासन को शिक्षक के पहले शाला लिखना शायद इसलिए अनिवार्य लगा कि अब लोग शिक्षक का रिश्ता शाला में पढ़ाई के काम से कम मानते है ,,क्यों कि उनका रिश्ता हर माह के सर्वे कि रिपोर्ट तैयार करने और मध्यान भोजन का हिसाब रखने जैसे अन्य कार्यों से गहराता जा रहा है ,,संविदा शाला शिक्षक ने प्रथम शब्द कि राह तो एकदम नई है ,,संविदा का अर्थ ठेका ही होता है ,यह व्यावसायिक शब्द दो पक्षों के बीच व्यापारिक अनुबंध होता है ,ये समझ से परे है कि शिक्षक को संविदाकार बनाकर शासन शिक्षक कि समाज के प्रति जिम्मेदारी को किस दिशा में ले जाना चाहते है ,||||
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