~~मूर्तिपूजा की हानिया~
* पहली – दुष्ट पूजारियों को धन देते है वे उस धन को वेश्या , परस्त्रीगमन , शराब-मांसाहार , लड़ाई बखेड़ों में व्यय करते है जिस से दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दु:ख होता है ।
* दूसरी – स्त्री-पुरुषों का मंदिरों में मेला होने से व्याभिचार , लड़ाई आदि व रोगादि उत्पन्न होते है ।
* तीसरी – उसी को धर्म , अर्थ , काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थरहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गवाता है ।
* चौथी – नाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप नाम चरित्रयुक्त मूर्तियों के पूजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चल कर आपस में फूट बढ़ा के देश का नाश करते है।
* पांचवी – उसी के भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठते है । उन का पराजय होकर राज्य , स्वातंत्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होता है और आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हार के गदहे के समान शत्रुओं के वश में होकर अनेकविधि दु:ख पाते है ।
* छठी – भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर देशदेशान्तर में घूमते-घूमते दु:ख पाते , धर्म , संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते , चोर आदि से पीड़ित होते , ठगों से ठगाते रहते है ।
* सातवी – जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के स्थान व नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता वा गाली देता है वैसे ही जो परमेश्वर की उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्तियां धरते है उन दुष्टबुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे ?
* आठवी – माता-पिता आदि माननीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते है।
* नवमी – भ्रांत होकर मंदिर-मंदिर देशदेशांतर में घूमते-घूमते दु:ख पाते, धर्म, संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीड़ित होते, ठगों से ठगाते रहते है।
* दशवी – दुष्ट पुजारियों को धन देते है वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मांस-मदिरा, लड़ाई-बखेड़ों में व्यय करते है जिस से दाता का सुख का मूल (अच्छे कर्म) नष्ट होकर दु:ख होता है।
* ग्यारहवाँ – उन मूर्तियों को कोई तोड़ डालता व चोर ले जाता है हा-हा करके रोते है।
* बारहवाँ – पुजारी परस्त्रीगमन के संग और पुजारिन परपुरुषों के संग से प्राय: दूषित होकर स्त्री-पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते है।
* तेरहवाँ – स्वामी सेवक की आज्ञा का पालन यथावत न होने से परस्पर विरुद्धभाव होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।
* चौदहवां – जड़ का ध्यान करने वाले का आत्मा भी जड़-बुद्धि हो जाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्त:करण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।
* पन्द्रहवां – परमेश्वर ने सुगन्धियुक्त पुष्पादि पदार्थ वायु जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिए बनाये हैं। उन को पुजारी जी तोड़ताड़ कर न जाने उन पुष्पों कितने दिन तक सुगन्धि आकाश में चढ़ कर वायु जल की शुद्धि करता और पूर्ण सुगन्धि के समय तक उस का सुगंध होता है; उस का नाश करके मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीच के साथ मिल-सड़ कर उल्टा दुर्गन्ध उत्पन्न करते है। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिए पुष्पादि सुगन्धियुक्त पदार्थ रचे है।
* सोलहवां – पत्थर पर चढ़े हुए पुष्प, चन्दन और अक्षत आदि सब का जल और मृतिका (मिट्टी) के संयोग होने से मोरी या कुंड में आकर सड़ के इतना उस से दुर्गन्ध आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सैकड़ों जीव उसमें पड़ते उसी में मरते और सड़ते है।
सतरहवां-मूर्ति पूजा ईश्वर की आज्ञा का उलंघन होने से पाप है वेदों में केवल अष्टांग योग द्वारा ही उसकी उपासना का उपदेश किया गया है l
ऐसे-ऐसे अनेक मूर्तिपूजा के करने में दोष आते हैं। इसलिए सर्वथा पाषाणादि मूर्तिपूजा सज्जन लोगों को त्याग देनी योग्य है। और जिन्होंने पाषाणमय मूर्ति की पूजा की है , करते है , और करेंगे। वे पूर्वोक्त दोषों से न बचें; न बचते है, और न बचेंगे।भारत के पतन और पराधीनता का मुख्य कारण भी मूर्ति पूजा ही है l
दुनिया होई बावरी पात्थर पूजन जाए,घर की चाकी कोई न पूजे जिसका पीसा खाए-संत कबीर
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