देवदासी प्रथा........................................
...........................अभी इन कुकर्मीयों का एक
और घृणित रिवाज देखिए. ...............
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देवदासी प्रथा पर कुछ लिखूं इससे पहले आइए
एक आंध्राप्रदेश के देवदासी की व्यथा उसी
की जुबानी सुनते है। “आंध्र प्रदेश की
लक्ष्मम्मा अधेड़ उम्र की हैं और उनके मां-
बाप ने उन्हें मंदिर को देवदासी बनाने के
लिए दान कर दिया। इसकी वजह लक्ष्मम्मा
कुछ यू बयां करती हैं, मेरे माता-पिता की
तीनों संतानें लड़कियां थीं। दो लड़कियों
की तो उन्होंने शादी कर दी लेकिन मुझे
देवदासी बना दिया ताकि मैं उनके बुढ़ापर
का सहारा बन सकूं। आज भी आंध्र प्रदेश में,
विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं
को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के
नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल
रही है। लक्ष्मम्मा मानती हैं कि उनका भी
शारीरिक शोषण हुआ लेकिन वो अपना दर्द
किसी के साथ बांटना नहीं चाहतीं। जिस
शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ
जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल
दहला देने वाले शोषण को सामना ये
देवदासियां हर दिन करती हैं। ये दर्द
इकलौती लक्ष्मम्मा का नहीं है, आंध्र प्रदेश
में लगभग 30 हज़ार देवदासियां हैं जो धर्म के
नाम पर शारीरिक शोषण का शिकार
होती हैं।
देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग कौटिल्य के
‘अर्थशास्त्र’ में मिलता है। मत्स्य पुराण,
विष्णु पुराण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी
इस शब्द का उल्लेख मिलता है। फिर भी इस
प्रथा की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में
सुनिश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा
सकता। भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के
अंतर्गत धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण
को संस्थागत रूप दिया गया था। इतिहास
और मानव विज्ञान के अध्येताओं के अनुसार
देवदासी प्रथा संभवत: छठी सदी में शुरू हुई
थी। ऐसा माना जाता है कि अधिकांश
पुराण भी इसी काल में लिखे गए।देवदासी
का मतलब है ‘सर्वेंट ऑफ गॉड’, यानी देव की
दासी या पत्नी। देवदासियां मंदिरों की
देख-रेख, पूजा-पाठ के लिए सामग्री-
संयोजन, मंदिरों में नृत्य आदि के अलावा
प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों,
प्रभावशाली अधिकारियों, सामंतों एवं
कुलीन अभ्यागतों के साथ संभोग करती थीं,
पर उनका दर्जा वेश्याओं वाला नहीं था।
इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से
था ।इस अश्लील तमाशे के पीछे लोगों का
यह विश्वास था कि मंदिर में देवदासी के
साथ प्रणय-क्रीड़ा करने से गांव पर कोई
विपत्ति नहीं आती और सुख-शांति बनी
रहती है।यह कुप्रथा भारत में आज भी
महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर,
शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम,
बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी
है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती
स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ
पुर्णिमा जिसे ‘रण्डी पूर्णिमा’ भी कहते है,
के दिन किशोरियों को देवदासियां
बनाया जाता है। उस दिन लाखों की
संख्या में भक्तजन पहुँच कर आदिवासी
लड़कियों के शरीर के साथ सरेआम छेड़छाड़
करते हैं। शराब के नशे में धूत हो अपनी काम
पिपासा बुझाते हैं।
कालिदास के ‘मेघदूतम्’ में मंदिरों में नृत्य करने
वाली आजीवन कुंआरी कन्याओं का वर्णन
मिलता है, जो संभवत: देवदासियां ही रही
होंगी।प्रख्यात लेखक दुबॉइस ने अपनी
पुस्तक ‘हिंदू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरेमनीज़’ में
लिखा है कि प्रत्येक देवदासी को देवालय में
नाचना-गाना पड़ता था। साथ ही,
मंदिरों में आने वाले खास मेहमानों के साथ
शयन करना पड़ता था। इसके बदले में उन्हें
अनाज या धनराशि दी जाती थी। प्राय:
देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा
वार्षिक वेतन पर की जाती थी।मध्ययुग में
देवदासी प्रथा और भी परवान चढ़ी। सन्
1351 में भारत भ्रमण के लिए आए अरब के दो
यात्रियों ने वेश्याओं को ही ‘देवदासी’
कहा। उन्होंने लिखा है कि संतान की
मनोकामना रखने वाली औरत को यदि सुंदर
पुत्री हुई तो वह ‘बोंड’ नाम से जानी जाने
वाली मूर्ति को उसे समर्पित कर देती है। वह
कन्या रजस्वला होने के बाद किसी
सार्वजनिक स्थान पर निवास करने लगती है
और वहां से गुजरने वाले राहगीरों से, चाहे वो
किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय के हों,
मोल-भाव कर कीमत तय कर उनके साथ
संभोग करती है। यह राशि वह मंदिर के
पुजारी को सौंपती है।
देवदासियों को अतीत की बात मान लेना
गलत होगा। दक्षिण भारतीय मंदिरों में
किसी न किसी रूप में आज भी उनका
अस्तित्व है। स्वतंत्रता के बाद पैंतीस वर्ष
की अवधि में ही लगभग डेढ़ लाख कन्याएं
देवी-देवताओं को समर्पित की गईं। ऐसी
बात नहीं है कि अब यह कुप्रथा पूरी तरह
समाप्त हो गई है। अभी भी यह कई रूपों में
जारी है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और
आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को
गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन
मंदिरों में देवदासियों का गुजारा बहुत पहले
से ही मुश्किल हो गया था। 1990 में किये गए
एक सर्वेक्षण के अनुसार 45।9 फीसदी
देवदासियां महानगरों में वेश्यावृत्ति में
संलग्न मिलीं, बाकी ग्रामीण क्षेत्रों में
खेतिहर मजदूरी और दिहाड़ी पर ककाम
करती पाई गईं।।
धर्म के नाम पर हज़ारों वर्षों से लोगों का
तरह-तरह से शोषण होता रहा है। तरह-तरह
की ऐसी प्रथायें चलती रहीं, जो
अमानवीय थीं। इक्कीसवीं सदी और पोस्ट
मॉडर्निज़्म के इस दौर में भई धर्म के प्रभाव में
कोई कमी नहीं आई है। धर्म अभी भी व्यापक
जन समुदाय को अज्ञान और अंधविश्वास के
अंधकार में धकेलने का कारगर माध्यम बना
हुआ है।
गुरुवार, 7 मई 2015
देवदासी
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