बुधवार, 30 मार्च 2016

केरल- 50 सालो तक दलित महिलाओ को स्तन ढकने के लोए लड़नी पड़ी लड़ाई

केरल : 50 सालों तक दलित महिलाओं को स्तन ढकने के लिए लड़नी पड़ी थी लड़ाई
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नई दिल्ली. केरल के त्रावणकोर इलाके में 1859 में वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा। इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया।
नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं। उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे। नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था।
नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है। जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला।इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरपीय असर की वजह से इनमें
जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं। यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता। अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।
लेकिन उस समय अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था। 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं। लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे। आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी।
सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता। आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे।
आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं।
इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है। विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों और उनके दुकानों के सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई। दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया। मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है। अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं। 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया। कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक भी छीन कर लिया।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

आरक्षण का विरोधी कौन

����आरक्षण विरोधी कौन������

:-1. आरक्षण का विरोध मुसलमान नहीं कर रहे हैं।
2. आरक्षण का विरोध सिख नहीं कर रहे हैं।
3. आरक्षण का विरोध ईसाई नहीं कर रहे हैं।
4. आरक्षण का विरोध तो छुआछूत फैलाने वाले कर रहे हैं।
भेदभाव फैलाने वाले कर रहे हैं।
जात-पात का अंतर करने वाले कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले कर रहे हैं।

��आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं क्योंकि उनके अंदर लालच है और ऊँच--नीच की भावना है।वो मनुवादी हैं । मनुवाद खत्म होगा तो मानवतावाद का जन्म होगा ।

��मानवतावादी।अंग्रेजों ने भारत पर 150 वर्षों तक राज किया ब्राह्मणों ने उनको भगाने का हथियार बन्द आंदोलन क्यों चलाया?

��जबकि भारत पर सबसे पहले हमला मुस्लिम शासक मीर काशीम ने 712ई. किया! उसके बाद महमूद गजनबी, मोहम्मद गौरी,चन्गेज खान ने हमला किये और फिर कुतुबद्दीन एबक, गुलाम वंश, तुग्लक वंश, खिल्जी वंश, लोदी वंश फिर मुगल आदि वन्शजों ने भारत पर राज किया और खूब अत्याचार किये लेकिन ब्राम्हणों ने कोई क्रांति या आंदोलन नहीं चलाया!

��फिर अन्ग्रेजों के खिलाफ़ ही क्यो क्रांति कर दी जानिये क्रांति और आंदोलन की वजह

��1- अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति रखने का कानून बनाया।

��2- 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिंग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी।6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।

��3- 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढा बनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था)

��4- 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।

��5- 1813 में अंग्रेजों ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।

��6- 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया(1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नहीं होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)

��7- 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी पड़ती थी।)

��8- 1830 नरबलि प्रथा पर रोक ( देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटक पटक कर चढ़ा देता था।)

��9- 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नही रखा जा सकता है।

��10-1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ। कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।

��11-1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये।पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है।यह बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न जाय इसलिए पैदा होते ही गंगा को दान करवा देते थे।

��12- 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा को अंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।

��13- 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।

��14- दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवा ओंको जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।

��15- देवदासी प्रथा पर रोक लगाई।ब्राह्मणों के कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर की सेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे।और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे।

��1921 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी। यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरों में चल रही है।

��16- 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।

��17- 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे  डी बेटन ने स्थापित किया।

��18- 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 में विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।

��19- 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समान क्रिमिनल लॉ लागू कर दिया।

��20- 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवा दिया जाता था इस पूजा में मान्यता थी की भवन और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।

��21- 1867 में बहु विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया ।

��22- 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार गणना प्रारम्भ की।अजीब दोगलापन है, लोगो को आरक्षण से चिड़ है लेकिन अपनी जाति के उच्च होने पर गर्व है !

��सब्जी खरीदते समय जाति नहीं देखी जाती मगर उसी सब्जी को खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।।

फसल कटाई पर जाति नहीं देखते मगर उसकी बनी रोटियां खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।।

मकान बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर जब मकान बन जाये तो उसमे बैठाने के लिए जाति देखते हैं।।

��मंदिर बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर उसमें जाने के लिए जाति देखते हैं।। स्कूल या कॉलेज बनबाने के लिए जाति नहीं देखते लेकिन पढ़ाई के वक़्त जाति देखी जाती हैं।। कपङे खरीदते समय जाति नहीं देखते मगर उन्हीं कपड़ों को पहनकर उनसे दूर भागते हैं।।

��साथियों ये भारत देश हैं,, जहाँ कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है।

��बुद्धिजीवियों का सामाजिक दायित्व...

��"इंसान जीता है,पैसे कमाता है,खाना खाता है और अंततः मर जाता हैं। जीता इसलिए है ताकि कमा सके... कमाता इसलिए है ताकि खा सके... खाता इसलिए है ताकि जिन्दा रह सके... लेकिन फिर भी एक दिन मर ही जाता है...

��अगर सिर्फ मरने के डर से कमाकर खाते हो तो अभी मर जाओ,मामला खत्म,मेहनत बच जायेगी। मरना तो सबको एक दिन हैं ही, नहीं तो समाज के लिए जियो , ज़िन्दगी का एक उद्देश्य बनाओं, गुलामी की जंजीरो में जकड़े समाज को आज़ाद कराओं।

��अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण तो एक जानवर भी कर लेता हैं। मेरी नज़र में इंसान वही है जो समाज की भी चिंता करे और समाज के लिये कार्य भी करे। नहीं तो डूब मरे ,अगर जिंदगी सिर्फ खुद के लिये ही जी रहे हैं तो"..................

इस मैसेज को इतना फैलाओ कि शुद्र-अतिशूद्र (sc/obc) समाज के लोगों के पास पहुंच जाये और उन्हें पता चल जाये कि दलित को आरक्षण क्यों मिल रहा है ।जिसकी रगों में कार्यक्रर्ता होगा वो बेझिझक इस मैसेज को सभी ग्रुपों में भेजेगा ।

��और साथियों OBC वर्ग के लोग जो खुद को शूद्रों से अलग बतातें हैं वो भी शूद्रों की श्रेणी में गिने जाते हैं ।,...
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मंगलवार, 22 मार्च 2016

इतिहास आर्य/अनार्य

[1:43pm, 22/03/2016] ‪+91 96467 59711‬: ईश्वर का अस्तित्व काल्पनिक है, एक धोखा एक भ्रम है।
     गहनता से अध्ययन करेंगे,तब ही समझ पाएंगे।

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देखिये भारत का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू होता है ।

लेकिन स्मरण रहे सिंधु घाटी सभ्यता इतिहास में शुरू से जुड़ा नहीं था यह हाल ही में भारतीय  इतिहास के पन्ने में 1921 के बाद 20 वी सदी में
जोड़ा गया है।
आपने पढ़ा होगा
हड़प्पा का खोज -राय बहादुर दया राम साहनी ने- 1921 में किया गया
मोहनजोदड़ो का खोज -राखल दास बनर्जी ने -1922 में किया।
इसी क्रम  में अनेक जगहों की खुदाई किया गया। अनेक  पुरातत्ववेत्ता ने अब तक 1000 स्थानों की खुदाई की जिसमे 6 स्थानों (हड़प्पा,मोहनजोदड़ो,
कालीबंगा,लोथल,वनवाली,
रंगपुर) को नगर की संज्ञा दिया गया।
और इसे संयुक्त रूप से
सिंधु घाटी की सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता नाम दिया गया।
खुदाई के दौरान प्राप्त अवशेषो के आधार पर
कार्बन डेटिंग विधि c-14 से निष्कर्ष निकाल गयेे की
सिंधु  घाटी सभ्यता

एक नगरीय /शहरी सभ्यता थी
सिंधु घाटी सभ्यता का विकसित होने का काल 2750-1500 ईसा पूर्व बताया गया है।
सिंधु वासी पक्के ईट के मकान में रहते थे ।
पानी निकासी के विशेष प्रबंध थे,
कृषि के लिए सिचाई के साधन कुआँ, नहर से की जाती थी।
स्त्री पुरुष दोनों सजते सवरते
थे।
प्राप्त ताबिजो के आधार पर बिद्वान पुरातत्ववेत्ता कहते है की वे कुछ अन्धविस्वासी भी थे।

सत्ता राजतन्त्र ,मातृतसभ्यता था ,सिंधु वासी स्त्री का बहुत सम्मान करते थे।

समाज चार भागो में बटे थे

(1)बिद्वान(पुरोहित वर्ग)

(2)योद्धा (क्षत्रिय वर्ग) आज का sc/st इसी वर्ग से आते है।इन्होंने लड़ा इस कारण इन्हें अछूत बनाया गया।अछूत कोई प्रकृति प्रदत्त जाति नहीं ब्राम्हणो का बनाया गया जाति है।विश्व में ऐसा मनुस्य जोअछूत हो विश्व में कही नहीं )

(3)व्यापारी  (वैश्य वर्ग )

(4) श्रम जीवी वर्ग

लेकिन पुरातत्ववेत्ता कहते है सबका मकान एक जैसा था।इससे पता चलता है सबकी आर्थिक स्थिति लगभग एक समान थी।

सिंधु वासी युद्ध प्रेमी नहीं थे ,शांतिप्रिय थे।
मोहनजोदड़ो में भारी नरकंकाल मिले जिससे पुरातत्व वेत्ता कहते है की यह युद्ध में मारे गये लोगो के नरकंकाल है।
जो इतिहास में वर्णन है भी की देवासुर संग्राम हुवा था,मुझे पूरा यकीन है की ये अस्थिया सिंधु वासी लोगो का ही है जिसे मारकर एक जगह दफना दिया गया है।
नगर की बनावट आधुनिक काल से तुलना करने लायक था।
सिंधु वासी सूरा पान अर्थात मंदिरा नशा नहीं करते थे।
इस कारण आर्य यहाँ के मूलनिवासी को असुर कहते थे।
देश विदेश से व्यापार होता था ,सुमेर प्रमुख व्यपारिक केंद्र थे।लोथल जैसे कई बंदरगाह मिले है।
भाषा मर हटी ,लिपि चित्रात्मक थी।
मूर्ति निर्माण,चित्रकला ,हस्तकला में माहिर था,उस समय की सोने के नक्कासी देखकर विदेशी लेखक लिखते है की इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे यह  लंदन के किसी ज्वैलरी सराफा दुकान से लाया गया हो।

सिंधु सभ्यता नस्ट होने के कारन विद्वान वर्ग ,पुरातत्ववेत्ता इस प्रकार बताते है।कि-
सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश आर्यो के आक्रमण के ही  कारण हुवा।
स्मरण रहे, आर्य (ब्राम्हण ,बनिया,क्षत्रिय  ) अभिजात वर्ग को ही कहते है।
कुछ बिद्वान का कहना है की इस सभ्यता के लोगो पर क्रमिक हमला किया गया ,कई जगह अग्निकांड किया गया।जिन्दा लोगो को जलाया गया।
कुछ बिद्वानो का कहना है की बाढ़ के कारण भी यह सभ्यता नाश हुवा ।
कुछ बिद्वानो का कहना है कि सिंधु वासी युद्ध प्रेमी नहीं थे इस कारण भी इस विकसित सभ्यता का नाश हुवा।

कहने का तात्पर्य यह है की इतनी विकसित सभ्यता कैसे गायब हो गया ।
आज अगर 1921 ,1922 में इन जगहों को पुरातत्ववेत्ता खुदाई नहीं करता तो आपको इस विकसित सभ्यता का  भारतीय इतिहास में पढ़ने को नहीं मिलता।
अब सवाल यह पैदा होता है जिस इतिहास का पता आज 20 शताब्दी में हो रहा है उस इतिहास का पता क्या किसी को नहीं था।
अब सवाल यह बनता है की

सिंधु वासी क्या सब मर गये।
या जीवित है?

अगर जीवित है तो वर्तमान में कौन लोग है वो?
अब  इतिहास का अगला चरण
आर्यो के आगमन से शुरू होता है।
आपने पढ़ा होगा की आर्य भारत के मूलनिवासी नहीं है।आर्य मध्य एशिया के यूरेशिया क्षेत्र से आये हुवे लोग है।इस सन्दर्भ में कई देशी विदेशी लेखक बिद्वानो ने अपने मत रखे की आर्य भारत के मूलनिवासी बिलकुल ही नहीं है ये विदेशी है।इनकी भाषा संस्कृत है जो यूरोपीय भाषा है।अर्थात ये यूरोपीय लोग है।
बाबा साहब के बुक में पढ़ने को मिला की आर्य में तीन जाति के लोग थे अर्थवा ,रथारिस्ट,वस्तारिया जो देवासुर संग्राम के बाद खुद को ब्राम्हण,क्षत्रिय ,वैश्य कहलाये और भारत के मूलनिवासी को शुद्र कहे ।
और उपरोक्त तीनों वर्णों का सेवा करने का काम दिया।

इनके लिखे धर्म शास्त्र अनुसार 
आर्य 3300 ईसा पूर्व भारत में आये,जिस समय समूचे भारत में तीन राजाओ(राजा शंकर पूर्वोत्तर भारत में ,राजा बाली उत्तर भारत में , राजा रावण दक्षिण भारत में)का राज था।

ये लोग 3150 इसा पुर्व तक यहाँ झुंगी झोपडी बनाकर रहे और चोरी चकारी से पेट पालन किये।पकडे जाने पर पेट का हवाला दिया।राजा बाली बहुत ही दयालु राजा था उन्होंने आर्यो को माफ़ किया और रहने खाने के लिए कुछ जगह जमीन ,रुपये ,खाद्य सामान दे दिए।150 साल में ये लोग द्राविनो को पूरा भांप गये फिर 3150 ईसा पूर्व से उन्होंने सडयंत्र करना आक्रमण करना जारी रखा जो 1500 ईसा पूर्व ता जारी रहा।फिर इन्होंने वैदिक युग का पारंभ 1500 ईसा पूर्व में रखा,ऋग्वेद पहला ग्रन्थ लिखा उसी अनुसार सत्ता का संचालन वर्ण ब्यवस्था बनाकर किया गया जिसमे भारत के मूलनिवासी को शुद्र वर्ण में डाल दिया और जो यौद्धा जमात लड़े उसे अछूत घोसित किया।और समाज के घृणित कार्य दिये।

इन्होंने सडयंत्र पूर्वक राजा बाली से तीन वचन माँगा(त्रिवाचा) जो उस समय प्रचलित था की जो राजा तीन बार कह दे उसे राजा को देना ही होता था,
इसी का फायदा उठाते हुवे बामन उर्फ़ (आज जिसे विष्णु भगवान कहते है )राजा बाली से त्रिवाचा कराने के बाद तीन मांग रखी।
पहला वचन -कि हे ! राजा हमें ऐसी शिक्षा का अधिकार दे जिसे हम चाहे तो दे न चाहे तो न दे।
दूसरा वचन-हे! राजा हमें ऐसी धन का अधिकार दे जिसे हम चाहे दे न चाहे तो न दे।
तीसरा वचन-हे! राजा हमें ऐसी राज करने का अधिकार दे जिसे हम चाहे राज कराये और न चाहे तो न कराये।
इस प्रकार राजा बाली से सडयंत्र पूर्वक त्रिवाचा कराकर शिक्षा,धन,राज करने का अधिकार ले लिया।
फिर राजा को राज सत्ता से बेदखल कर मार कर जमीन में गाड़ दिया ।
जिसे लोगो के सामने दूसरे ढंग से पेश किया गया की राजा बाली से तीन पग धरती में बामन ने जगह माँगा और मारकर जमीन में गाड़ दिया गया जिसे झूठा प्रचार किया गया, की राजा बाली को पाताल लोक का राजा बना दिया।
आज विज्ञानं का युग है सौरमंडल ,आकाशगंगा,गैलेक्सी,ब्रम्हांड चाँद सूरज ,तारा सब का पढाई कर लिए है ।कहाँ पर पाताल लोक कहाँ पर स्वर्ग लोक है कहाँ पर नर्क लोक है , शेष नाग धरती के फन पर खड़ा है
आज तक बड़े से बड़े बिद्वान वैज्ञानिक खोज नहीं कर पाये, ऐसी बातो का विश्लेषण कर सत्य क्या है खुद जान सकते है।
इस प्रकार सद्यंत्रपूर्वक ही राजा शंकर को आर्य पुत्री पार्वती के द्वारा फसाकर जहर देकर  मारा गया ,जहर से शरीर नीला पड़ गया तो उसे नीलाम्बर कह दिया।,उसके सेना पति महिसासुर को दुर्गा के रूप में पार्वती ने ही मारा , ,राजा रावण भाभिसन  के छल से मारा ।छोटे छोटे अनेक राजाओ को क्रमश मारता गया।इसकी विस्तृत जानकारी यहाँ नहीं बता पाउँगा।
इसके बाद ही भारत के द्रविण मूलनिवासी जिसे आर्य लोग अनार्य ,असुर कहे और आर्यो के बीच लगातार क्रमिक युद्ध चला ,जिसे इतिहास में देवासुर संग्राम (आर्य खुद को देव और भारत के मूलनिवासी को असुर कहते है ) चला जिसमे भारत के मूलनिवासी आर्यो के साम,दाम,दंड,भेद नीति से परास्त हुवे ।अंतिम युद्ध के दौरान जो जान बचाकर जंगल में शरण लिए वो आज का आदिवासी समाज है।और जो लोग लड़भीड़ कर वही रुक गये ,जिसने उनके संस्कृति को स्वीकारा नहीं उसे समाज से बहिस्कृत कर अछूत नाम दिया गया।
स्मरण रहे आज का दलित आदिवासी सिंधु घाटी सभ्यता के समय क्षत्रिय (योद्धा जमात) थे।
और युद्ध के बाद यहाँ के मूलनिवासी को शुद्र घोसित करवाया,और उन्हें ब्रम्हाण,बनिया,क्षत्रिय का एक मात्र सेवा करने का काम दिया ।जिसे आप बुक में पढ़े भी होंगे।
ऋग्वेदिक काल में ऋग्वेद का निर्माण हुवा जिसमे पुरुष शुक्त में इस वर्ण ब्यवस्था का वर्णन है जिसे ईश्वरी आदेश बताकर लोगो से बलपूर्वक मनवाया गया।
अनेक देवी देवता का निर्माण किया गया ताकि हमें धार्मिक गुलामी में बांध सके।इसमें से कुछ देवी देवता के रूप में हम आर्य की ही पूजा करते है जिसने हमारे मूलनिवासी राजाओ की हत्या किया है।
ये सारे देवी देवता काल्पनिक और सरासर false है।अगर देवी देवता का अस्तित्व में सच्चाई होता तो पुरे विश्व भर में इनका अस्तित्व होता ,भारत को छोड़ अन्य देश में ये देवी देवता क्यों प्रकट नहीं हुवे ,क्यों  अन्य देश में चमत्कार नहीं कर सके ,इसे अन्य देशो में प्रकट होने से किसने रोका है।
ये सारे देवी देवता सरासर झूठ है धोखा है इसके पीछे ब्रम्हाण आर्य का एकमात्र उदेश्य इस विशाल शुद्र जनसमुदाय को धार्मिक तरीके से अपने नियंत्रण में रखना है ।

दूसरा और कोई बात नहीं है।
आज इतने माता ,बहन, बेटी के साथ बलात्कार हत्या हो रहा है
निर्दोष लोगो की हत्या ,या जाति धर्म के नाम पर मारा काटा या सताया जा रहा है।2 साल 5 साल के बच्ची तक से बलात्कार किया जा रहा है तो  क्यों नहीं आता कृष्ण भगवान् उसे बचाने या अन्य देवी देवता उसे बचाने।ये सिर्फ रील लाइफ में बचाते है रियल लाइफ में बचाते तब तो हम मानते की दुनिया में भगवान नाम का चीज है।स्वंम भगवान् के मंदिर में बलात्कार हो जाता है ,और भगवान महाराज देखते रहते है,।सुबह न्यूज़ में खबर आता है दबंगो ने मंदिर में अबला महिला का इज्जत लुटा,दरिंदो ने भगवान के मूर्ती गहने तक लूट डाले।भगवान खुद पर बैठे मक्खी नहीं भगा सकता। किस भ्रम में जी रहे हो। मन में संदेह मत पालो की कोई भगवान तुम्हारा इस दुनिया में रक्षा करेगा।तुम्हे तरक्की देगा।

आगे चलकर उत्तरवैदिक काल में स्थायी गुलाम बनाने के लिए सामवेद,यजुर्वेद,अर्थववेद का निर्माण किया गया ,जिसमे जाति ब्यवस्था सिर्फ शुद्र का बनाया गया उसके बीच विवाह के प्रतिबन्ध लगाये गए की एक जाति दूसरे जाति से शादी नहीं करेगा ताकि सामजिक एकता शुद्र उर्फ़ भारत के मूलनिवासी जो अब तक sc/st/obc के रूप में 6743 जाति में टुटा है।कभी भी एक न हो पाये।
महिलाओ को शिक्षा से वंचित करना वो भी सवर्ण महिला को इससे ऐसा लगता है की आर्य अपने साथ स्त्री नहीं लाये थे,यही की महिला को जबरदस्ती लूट कर ले गये होंगे और उन्हें दास के रूप में रखते थे सिर्फ वासना के लिये, शायद इसी कारण सवर्ण महिला को शिक्षा नहीं दिया गया और ढोर गवार शुद्र पशु और नारी कहा गया।
मैं समझता हूँ की कोई भी पति अपने पत्नी को शिक्षित क्यों नहीं होने देगा।निश्चित ही सवर्ण की महिला यही की मूलनिवासी नारी तो नहीं।
यही ब्यवस्था मगध साम्राज्य(हर्यक वंश ) के आने तक चला जिस कारण इसे वैदिक युग कहा गया।

वैदिक युग के बाद मगध साम्राज्य (600 ईसा पूर्व से 184 ईसा पूर्व )आया।महावीर स्वामी ,गौतम बुद्ध मगध कालीन है इन्होंने वेद को झूठा करार दिया,और अनीश्वरवाद का सिद्धान्त दिया की दुनिया में ईश्वर नाम का कोई चीज नहीं है।आपके दुखो को खुद को हल करना है।जाति गत असमानता गलत है और उन्होंने समानता ,समता ,बंधुता का सिद्धान्त दिया ,बुद्ध के बाद सबने वेद को दरकिनार कर दिया।और मौर्य वंश में मानवता समानता समता बंधुता ने स्थान लिया।जो ब्रम्हाण सेनापति द्वारा  (सम्राट अशोक के परपोता )बृहद्रथ का हत्या करके शुंग वंश का स्थापना किया ,फिर से अंधविस्वास के ग्रन्थ रामायण महाभारत और वेद आधरित कानून युक्त मनुस्मृति लिखा।
इसके बाद बौध्हो और ब्राम्हणो के बीच एक लंबी युद्ध की शृंखला चली ,जो तुर्क मुसलमान  के आने तक चला।
इस प्रकार
कभी ब्रम्हाण साम्राज्य हावी हो जाता ,कभी बौद्ध साम्राज्य हावी हो जाता।
इसी क्रम में
कण्व वंश
कुषाण वंश
गुप्त वंश
सातवाहन वंश ,चेर,चोल,हर्षवर्धन वंश,पण्ड्या वंश,पल्लव वंश ,राष्ट्रकूट वंश,गहड़वाल वंश,शक वंश ,कई वंश चला ।
बीच बीच में तुर्क मुसलमानो ने हमला जारी रखा।
मुहम्मद बिन कासिम(7 वी सदी में )
महमूद गजनवी(11 वी सदी में)
मोहमद गौरी(11-12) सदी में आक्रमण किया।
तुर्को को ब्राम्हणो ने नेवता दिया था की वो बौध्हो को ख़त्म करे ,उनके विहारों को तोड़े फोड़े।
तुर्को ने ऐसा ही किया उन्होंने बौध्हो को मारा काटा ,साथ ही  ,50000 ब्राम्हणो को भी हत्या कर सोमनाथ मंदिर लूट लिए जहाँ अपार सोने का भण्डार था।
बौद्ध लोग इसी समय मुसलमान बने और मुसलमान बनकर ब्राम्हणो को कुचला।
इसी कारण ब्राम्हण अछूत आज का दलित आदिवासी (sc/st) व मुसलमान को अपना जानी दुश्मन समझता है।
इसके बाद दिल्ली सल्तनत कालीन युग आया जिसमे कुतुबुद्धिन ऐबक को दिल्ली का सत्ता सौप कर मोहम्मद गौरी गजनी चला गया जहा उसकी हत्या दुश्मनो ने 1206 में कर दी।
इसके बाद
कुतुबुद्धिनऐबक,
इल्तुतमिश,
रजिया सुल्तान
बलबन
,ख़िलजी,
लोधी
वंश का शासन रहा।
फिर
मुग़ल साम्राज्य 1526 से शुरू हुवा जिसमे।
बाबर ,
हुमायूँ
शेरशाह सूरी
फिर हुमायूँ
अकबर
जहांगीर
शाहजहाँ
औरंगजेब
का शासन चला ,फिर उत्तर कालीन मुग़ल साम्राज्य में
मुहमद शाह
मुहम्मद शाह आडिल
फरुख्शियर कई मुसलमान शासक हुवे।
व अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया।
फिर अंग्रेज का शासन शुरू हुवा।
अंग्रेज यूरोप में छापेखाने की मशीन व अन्य अविष्कार से यूरोप में औधोगिकीकरण का शुरुवात हुवा और ब्यापार का प्रसार के लिए डच,पुर्तगाली  ,फ़्रांसिसी , अंग्रेजो का आना शुरू हुवा,
सर टामस रो  जहांगीर के समय व औरंगजेब के समय आये थे फिर 17 सताब्दी में जहांगीर ,औरंगजेब से  अनुमति लेकर भारत में कंपनी स्थापित किये,धीरे धीरे पुरे भारत में कंपनी स्थापित करना शुरू किया।व्यापार के लिए यूरोपीओ के बीच भी संघर्ष युद्ध चला।
फिर औरंगजेब के बाद यहाँ के राजाओ में फुट पडने लगा,कई रियासतो में टूटने लगा। उसी का फायदा उठा कर मुसलमानी राजाओ से भी युद्ध हुवा।अंतत युद्ध के बाद कई समझोउता संधि हुवा ,कंपनी के अधीन शासन चलने लगा।
उसी समय सिखो के साथ ,मराठो के साथ ,हैदराबाद के निजामो के साथ अन्ग्रेजो का युद्ध हुवा 1857 तक 55% हिस्सों को अंग्रेजो ने कब्ज़ा कर लिया।1857 के क्रांति को अंग्रेजो ने बुरी तरह से कुचला लाखो लोगो को गोली से भून दिया गया,हजारो लोगो को खुले आम फांसी दे दिया गया।
अंग्रेजो ने अपने राजकीय काम काज के लिये आर्य ब्रम्हाण को चुना ,पर ब्रम्हाण अपने चालाकी सडयंत्र कारी बुद्धि दिखाने लगे जिसे भाप कर अंग्रेज शुद्रो को भी शिक्षा देना शुरू किया।1813 में पहली बार शुद्रो (sc/st/obc व वंचित सवर्ण/अवर्ण महिला)को भी  शिक्षा देना शुरू किया।
इस परिवर्तन से घबराकर आर्यो ने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
अंग्रेजी शासन में शुद्रो को दिए शिक्षा के अधिकार के कारण बाबा साहब पढ़ पाये।फिर भी छुवाछुत का दंश झेलते रहे।स्मरण रहे बाबा साहब दलित समाज में पहला ब्यक्ति था जो मेट्रिक पढाई तक पहुचे।उस समय पूरा दलित आदिवासी, पूरा अनपढ़ था,और
महात्मा ज्योतिबा के समय 1827 में पूरा शुद्र ही जिसमे आज का sc/st/obc  अनपढ़ था बाबा साहब उस समय की स्थिति से बहुत क्षुब्ध थे और  इतना पढ़ा की 5000 साल की ब्राम्हणो की
वेद आधरित ,मनुस्मृति आधारित वर्ण व जाति आधरित  ब्यवस्था को बदल कर रख दिया।जो भारत के मूलनिवासी से 5000 साल पहले आर्यो ने हमसे छीन रखा था।आज शुद्र की मुख्य बेड़िया टूट चुकी है लेकिन शुद्रो में जाग्रति के अभाव में शासन से दुरी अभी बना ही  है।जो निकट भविष्य में सफल होगा।
इसमें हमारे सभी संत महापुरूषो का योगदान भी शामिल है।जिसमे गुरुनानक,संत रविदास,संत कबीरदास,संत चोखामाला ,गुरु घासी दास ,गुरु बालक दास,स्वामी विवेकानंद,महात्मा ज्योतिबा फुले ,माता सावित्री बाई फुले ,माता मिनीमाता,साहूजी महाराज ,संत गाडगे बाबा,बड़ोदा के गायकवाड़ महाराज व कई संत महापुरुष शामिल है।
जरुरत है मूलनिवासी को उनके मूल इतिहास से  जगाओ।ब्राम्हणवाद (अंधविस्वास ,जादू टोना टोटका ,जाति ,उपजाति,वर्ण,देवी देवता ,चमत्कार,ग्रह,स्वर्ग,नरक ,नक्षत्र,भाग्य,किस्मत,) को भगाओ ,भगाओ बोलने से दिमाग से इस फ़ालतू के संदेह को delete करो,मिटाओ।
और सविधान की पढाई कर अपने अधिकार को जानो,गहन अध्ययन कर शासन,प्रशासन ,नोकरी में पाव जमाओ ,जिसका मुख्य आधार सिर्फ शिक्षा है।
शिक्षा( ज्ञान) बल से ही आप हर चीज को पा सकते है अपने अंधविस्वास को नाश कर सकते है।पाठ्य पुस्तक के अतिरिक्त हर प्रकार के बुक को पढ़ो और अपने हित अहित का सही विश्लेषण कर सही सरकार ,सही कांसेप्ट को चुनो।

जय भीम जय भारत।
[1:43pm, 22/03/2016] ‪+91 96467 59711‬: मेरे लेख का शीर्षक है " बाबा साहब अम्बेडकर को समझो "BY --S.L.jaroria
बाबा साहब अम्बेडकर की बात हम सभी लोग करते रहते हैं, लेकिन मात्र बात करने से समाज का भला होने वाला नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि फिर समाज का भला कैसे हो ?
यदि हम लोग समाज का भला करना चाहते हैं तो हमें बाबा साहब अम्बेडकर को समझना होगा।
बाबा साहब को समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की भी आवश्यकता नहीं है।
केवल उनके द्वारा बताई गयी तीन बातों को ठीक से समझने की जरूरत है:-
जिसमें पहली है :-शिक्षित बनो,
हमारे लोग बाबा साहब अम्बेडकर की पहली बात को समझने में ही भंयकर गलती कर बैठते हैं।
क्यों कि हम लोग केवल स्कूली शिक्षा या कॅालेज शिक्षा ग्रहण कर लेने को ही शिक्षित होना समझ बैठते हैं,सबसे बड़ी गलती यहाँ से ही शुरू हो जाती है।
अब सोचने वाली बात यह कि तो फिर किसको शिक्षित मानेंगे ?
इसका सीधा सा उत्तर है कि जो भी व्यक्ति किसी बात पर ??? प्रशनवाचक चिन्ह लगा सकता है और उस प्रशनवाचक चिन्ह वाली बात का तब तक पीछा नहीं छोड़ें की जब तक उस बात का उचित एवं सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल जाए।
उदाहरण स्वरूप मानलो की आपने एक बात कहीं से सुनी या किसी पुस्तक में पढ़ी कि " हनुमान जी ने अपने हाथों में पर्वत उठाया था एवं केवल पर्वत उठाया ही नहीं था बल्कि पूरे पर्वत को उठाकर आकाश में उड़ते हुए लेकर भी आया था,फिर आगे आप पढ़ते हो या सुनते हो कि श्री लंका पर चढ़ाई करने के लिए राम को रामसेतु तैयार करवाना पड़ा,अब यहाँ शिक्षित व्यक्ति प्रशनवाचक चिन्ह जरूर लगाएगा की जब रामभक्त हनुमान, पूरा पहाड़ उठा सकता है तो रामसेतु नामक पूल बनाने की क्या जरूरत थी क्यों कि करीब एक हजार लोगों को लेकर हनुमान जी आराम से उड़कर श्री लंका पहुंचा सकता था ।
फिर आप सुनते हैं कि रावण के पास पुष्पक विमान था उसमें बैठाकर सीता को लेकर गया था,अब फिर प्रशनवाचक चिन्ह लगाने की आवश्यकता होती है कि वह विमान किसने बनाया था, उस प्रकार के और कितने विमान उस वक्त थे,जब रावण उस विमान को रख सकता है तो राम ने क्यों नहीं रखा ?
आपने यह भी सुना होगा कि स्वयंवर वाले धनुष को सीता एक हाथ से उठा लेती थी, इससे साफ जाहिर होता है कि धनुष का वजन सीता के वजन से बहुत कम था,लेकिन रावण उस धनुष को दोनों हाथों से भी नहीं उठा सका ।
अब फिर प्रशनवाचक चिन्ह लगाने की आवश्यकता है कि सीता के वजन से आधा वजन धनुष का था उसे तो रावण उठा नहीं सका तो फिर दो गुना वजन वाली सीता को कैसे उठा सकता है ?
आपने यह भी सुना होगा कि हनुमान जी जब सरजीवन बुंटी लेने के लिए जाने वाला था तो उन्हें बताया गया कि सूर्य उदय होने से पहले लेकर आना जरूरी है वरना तो लक्षमण के प्राण नहीं बचेंगे तो हनुमान जी ने पहला काम यह किया कि सूर्य को ही गाल में दबा लिया जिससे सूर्य उदय नहीं हो सके । अब यहाँ प्रशनवाचक चिन्ह क्या नहीं लगाना चाहिए कि सूर्य को गाल में कैसे दबाया जा सकता है ?
यह तो उदाहरण के तौर पर कुछ बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है जबकि ऐसे कई हजारों उदाहरण हमारे जीवन में देखने को मिलेंगे जिन पर प्रशनवाचक चिन्ह लगाने की आवश्यकता है।
जो अपने आपको बहुत अधिक शिक्षित मानते हैं उन्होंने कभी भी ऐसे सवालों पर प्रशनवाचक चिन्ह नहीं लगाया,बल्कि वे तो आज भी अन्ध भक्त बनकर हनुमान चालीसा पढ़ने में मस्त हैं एवं आरक्षण से नौकरी लगने पर बालाजी की मेहरबानी समझकर हजारों रूपये बालाजी के नाम पर खर्च करते हैं।
ऐसे व्यक्ति यदि पी एच डी भी हैं तो उन्हें शिक्षित नहीं कहा जा सकता है लेकिन दूसरी तरफ पूर्णतया निरक्षर कबीर और संत रैदास को शिक्षित माना गया है क्योंकि उन्होंने इस व्यवस्था पर प्रशनवाचक चिन्ह लगाने का काम किया था।
इसलिए आज बाबा साहब अम्बेडकर की पहली बात पर अमल करने की बहुत ज्यादा जरूरत है।
दूसरी बात बाबा साहब अम्बेडकर ने बताई थी कि संगठित बनो:-
अब हमारे लोग बाबा साहब की इस बात को भी समझने में गलती कर बैठे और जिस बीमारी को बाबा साहब खत्म करना चाहते थे उसी को मजबुत करने में लग गए अर्थात, जातियों के आधार संगठित होने लगे,जबकि बाबा साहब उन सभी शिक्षित लोगों को संगठित करना चाहते थे जो प्रशनवाचक चिन्ह लगा सकते हैं चाहे वह किसी भी मूल निवासी जाति से हों।
इस मामले में बहुत से लोग अपनी सफाई पेश करते हैं कि हम पहले अपनी जाति को संगठित करना चाहते हैं उसके बाद सभी को संगठित करेंगे, मेरा अपना मानना है कि सभी जातियों में सभी व्यक्ति एक समान नहीं हो सकते हैं,पूरी जाति की बात तो छोड़ो एक मोहल्ले के भी सभी व्यक्तियों की राय एक समान नहीं हो सकती है,यहाँ तक की एक परिवार में भी सभी सदस्य एक समान नहीं हो सकते हैं,इसीलिए तो सम्यक् सम् बुद्ध ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का सिद्धांत अपनाया था।