हम बौद्ध क्यों बने ?
14 अक्तुबर 1956 को दीक्षाभूमि पर दिया हुआ
युगप्रवर्तक भाषण
बौद्ध-धर्मानुयायी, मेरे भाईयों और बहनो !
लोग पूछते है, इस सामूहिक धर्म परिवर्तन समारंभ के लिए मैंने नागपुर को ही क्यो चुना ? इसके उतर मे मेरा कथन है कि भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास जिन्होने पढा है, वे जानते है कि बौद्ध धर्म को फैलाने का श्रेय नाग-जाति के लोगो को है, जिनकी विशाल आबादी नागपुर मे थी वीर नागों का केंद्र-स्थल होने के कारण ही इस नगर का नाम 'नागपुर' पडा । यहाँ से 27 मील की दूरी पर बहने वाली नदी का नाम भी 'नागा' है । नाग-जाति के लोग वैदिक आर्यो के कट्टर शत्रु हो गये थे, हिंदु-पुराणो मे आर्यो और अनार्यों की अनेक बडी -बडी लडाईयो का वर्णन है. लिखा है, अर्जुन ने नागों को जला दिया था । किंतु अगस्त मुनि ने एक नाग को बचा लिया था . उसी नाग की आप लोग संतान है. नागो का बडे ही छल-कपट से आर्यो ने विनाश किया और उन्हे पतित बनाया था, किंतु तथागत गौतम बुद्ध के शरणापन्न होने से नाग-जाति का फिर उदय हुआ और उन्होने सारे भारत मे बौद्ध-धर्म का प्रचार किया । इसी ऐतिहासिक सत्य को पुन: चरितार्थ करने की कामना से मैने इस महान धर्म-समारंभ के लिए नागपुर को ही चुना । जो लोग यह आरोप करते है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेना का नागपुर केन्द्र है, अतः उन्हे चिढाने के लिए मैने नागपुर को चुना, उनकी यह कल्पना मिथ्या और द्वेष-पेरित है ।
* समाचार -पत्रों की बौखलाहट :
जब से सामुहिक धर्म-परिवर्तन की चर्चा चली, एक तहलका-सा मच गया है, और समाचार -पत्रो ने तो बडा ही विष वमन किया है । उन्होने खुलकर कहा है कि मै अपने भाईयों को गलत राह पर ले जा रहा हू । इस धर्मातर के बाद भी अछूत अछूत ही रहेगे, और अछूतों को जो राजनीतिक अधिकार मिले है, वे धर्मातर से समाप्त हो जायेगे । यह सब पागलपन का प्रचार है, संभव है, इस मिथ्या प्रचार का हमारे तरुणों और वृद्धो पर कुछ प्रभाव पडे और वे संशय में पड जाये, इसलिए इस भ्रम के निवारण के लिए मैं कुछ बाते विस्तार से कहना चाहता हू ।
* धूर्तता की पराकाष्ठा :
आज से 30 साल पहले मैंने यह आन्दोलन चलाया था कि "महार-चमार मरी हुई गाय-भैंसों को न उठाये और न मरी हुई गाय-भैसों का मांस ही खायें" मेरे इस आंदोलन से सर्वण हिंदुओं को बडी परेशानी हुई । मेरी बहस यह थी कि 'जीवित गाय-भैसों का दूध तुम प्राशन करो और मरने पर उनकी लिथ हम उठाये
ऐसा क्यों ? सर्वण हिंदु यदि अपनी मृत मां की लाश को खुद उठाते है, तो क्या - भैंसों की लाशें, जिनका वे जन्म -भर दूध पीते है, मरने पर क्यो नही उठाते ? मेरी दुसरी दलील यह थी कि "यदि सर्वण हिंदु मृत माता का मृर्दा भी हमें उठाने दें, तो हम उनकी मृत गाय - भैंसों की लिथें भी उठायेंगें," इस पर एक चितपावन ब्राह्मण ने पुना के 'केसरी' अखबार में ( जो लोकमान्य तिलक का निकाला चित्पावन ब्राह्मणों का मुखपत्र है) कई पत्र प्रकाशित करके हमारे भाईयों को बरगलाना शुरु किया कि मृत पशुओ के न उठाने से महार-चमारो का बडा नुकसान होगा । उसने उटपटांग आंकडे देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मरे हुए पशु की हड्डी, दांतो, सिंगों और अंतडियो आदि के बेचने से पांच-छ: सौ रुपया वार्षिक लाभ होता है । डाक्टर आंबेडकर उन्हे बहकाकर उनका नुकसान कर रहा है । एक बार 'संगमनेर' ( बेलगाव-मैसोर) मे वह ब्राह्मण मुझे मिला और उन्ही बातों को कहकर मुझसे तर्क करने लगा । मैने 'केसरी' में प्रकाशित सभी प्रशनों का खुली सभा में जवाब दिया । 'मेरे भाईयों के पास खाने को अन्न नहीं है, स्त्रियों के पास तन ढकने को कपडा नही है, रहने को मकान नही है और जोतने के लिए जमीन नही है: इसलिये वे दलित है और महा दुखी है, इस सभा में उपस्थित लोग बताये' इसका कारण क्या ?' लेकिन किसी ने उतर नही दिया । वह ब्राह्मण भी चुप बैठा रहा । तब मैंने कहा - अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिंता क्यों करते हो ? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे । अगर तुम्हे इस काम में भारी लाभ दिखाई देता है, तो तुम अपने संबंधियों को क्यों नही सलाह देते कि वे मरे हुए पशुओं को उठाकर पांच-छ: सौ, रुपया वार्षिक कमा लिया करे ? ' यदि वे ऐसा करे तो इस लाभ के अलावा उन्हे 500 रु. इनाम मैं खुद दूंगा । तुम जानते हुए इस बडे मुनाफे को क्यों छोडते हो ?" लेकिन आज तक कोई सवर्ण हिंदु इस काम के लिए तैयार नही हुआ । शायद खुद करने मे मुनाफा नजर न आया होगा !
दूसरो को मिथ्या प्रलोभन देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को 'धूर्तता' कहा जाता है और इतना बडा सफेद झूठ 'केसरी' जैसे पत्र में छपना धूर्तता की पराकाष्ठा है ।
** मनुष्य को अपनी इज्जत प्यारी है :
हम इज्जत के लिए संघर्ष करते है । हम अपने देश मे सम्मान के साथ जीना चाहते है हम इज्जत के लिए कष्ट सहते है ।आप में से बहुतों को मालूम है, बम्बई में व्याभिचार का एक मोहल्ला है । वहां की स्त्रियां सोकर सबेरे 8 बजे उठती है और उठते ही ईरानी होटलों के मुसलमान लडकों को बुलाकर कहती है - " ओ सुलेमान ! एक प्लेट खीमा और रोटी ले आ." वे खीमा-रोटी खाती है । चाय पीती है और मौज में रहती है । पर हमारी औरते सिर्फ चटनी और सूखी रोटी खाकर इज्जत के साथ संतुष्ट रहती है । उन्हें बेइज्जती से कमाया खीमा-रोटी पसन्द नही करती । हम जो लड रहे है, वह इज्जत के लिए लड रहे है । इज्जत के साथ रहना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । इसकी पूरी प्राप्ति के लिए हम जो भी त्याग करें, थोडा है ।
* मुझ पर विश्वास किजिए, मेरे बताये मार्ग पर चलिए :
इसी प्रकार कुछ सवर्णो ने अब यह कहना आरभ्भ किया है कि हम लोग विधानसभा में प्राप्त अपनी सीटों को क्यों छोड रहे है ? आज अछूतों को जो राजनैतिक अधिकार मिले है वे धर्मातर से समाप्त हो जायेगे । मेरा उतर है कि ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ,बनिये आदि महाराज,चमार,भंगी बनकर उन सीटों और उन अधिकारो को क्यों नही ले लेते ? हमारी सीटों के लिए आपको क्यों रोना आता है ?
चालीस साल से अखबार वाले मेरे पीछे पडे है । मै उनसे कहता हूँ आप जरा गंभीर बनिए और समझ से काम लीजिए । बौद्ध धर्म स्वीकार करने पर हम सब कुछ प्राप्त कर लेंगे । हमने सभी बातों को आदि से अंत तक सोच लिया है । आपतियो के निवारण के लिए हमारे पास काफी मसाला है, मुझे मौत से मत डराइये । मे मॄत्यु से नही डरता । मेरे मरने के बाद क्या हो, मै ही जानता; किंतु आशा करता हूँ यह आंदोलन तीव्रतर होगा.आप मुझ पर विश्वास किजिए और जो मार्ग मैं बता रहा हूँ, उस पर पूर्ण विश्वास रखकर चलिए विरोधियों की बातों में कुछ भी सच्चाई नही है ।
बौद्ध धर्म क्यो अपनाया ? :
आज हर जगह यही चर्चा है कि मैने सभी धर्मों को छोडकर बौद्ध धर्म को क्यों अपनाया ? सन 1935 में मैंने हिंदु धर्म को त्यागने का आंदोलन चलाया था । अप्रैल 1935 में केवल जिला नासिक के विशाल जलसे में मैंने एक प्रस्ताव द्वारा निर्णय लिया था, कि हमें हिंदू -धर्म त्याग देना चाहिए । मैने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी मैंने हिंदु धर्म में जन्म लिया है, यह मेरे बस की बात न थी, किंतु यह बस की बात है कि मैं हिंदू रहकर मरूंगा नही । " मेरी यह 21 वर्ष की प्रतिज्ञा आज पूरी हुई । मैं आज हर्ष से प्रफुल्लित हो उठा हूँ ।"
कार्ल मार्क्स का मार्ग क्यों नही अपनाया ? :
मार्क्सवाद अथवा कम्युनिज्म का लक्ष्य केवल आर्थिक समानता है । मैं आर्थिक उन्नति का विरोधी नही हूँ । मेरा मत है कि मनुष्य -मात्र की आर्थिक उन्नति होनी चाहिए ।निर्धनता के कष्टों को मैं जानता हूँ अपने पिता की निर्धनता के कारण मैंने जितना कष्ट सहन किया है । उतना बहुत कम लोंगो ने सहा होगा । इसलिए गरीबों का जीवन कितना कष्टमय होता है, इसे मैं भली -भांति जानता हूँ । किंतु मेरा विश्वास है कि आर्थिक उन्नति के साथ मानसिक उन्नति भी होनी चाहिए, जिसके लिए धर्म की आवश्यकता है। कार्ल मार्क्स के सिद्धांत में धर्म का कोई महत्व नही है । उनका धर्म केवल यह है कि उन्हे प्रातःकाल मक्खन लग टोस्ट और दोपहर स्वादिष्ट भोजन, सोने के लिए बढिया बिस्तरा और देखने के लिए सिनेमा मिले । मैं कम्युनिस्टो के निरे भौतिक और जड तत्वज्ञान का हामी नही हूँ । इस संबंध में मेरे अपने विचार है । मेरे अपने विचार से पशुओं और मनुष्यो में अंतर है, पशुओ को चारे के सिवा किसी और चीज की जरुरत नही होती । किंतु मानव-जीवन शरीर के साथ मन भी है । मन का विकास जरुरी है । मन को पवित्र और सुसंस्कृत करने के लिए धर्म की आवश्यकता है । जिस प्रकार शरीर का निरोगी होना जरुरी है उसी प्रकार शरीर को सुदृढ़ और नियंत्रित रखने के लिए मन को सुसंस्कृत होना आवश्यक है अन्यथा यह कहना ही व्यर्थ होगा कि मनुष्य उन्नति कर रहा है ।
** उन्नति का मूल कारण उत्साह -पूर्ण मन:
मन में यदि उत्साह न हो तो अभ्युदय नहीं हो सकता । दबे-पिछडे लोगों का उत्साह मर जाता है, जो इनकी उन्नति में सबसे बडी बाधा है । हमें विश्वास हो गया है कि हमें उपर उठने का अवसर नहीं मिल सकता । जब आशा नही तो उत्साह कहां से हो ? स्कूलों में मास्टर जब यह कहता हो कि यह तो चमार है यह प्रथम श्रेणी में क्यों उतीर्ण हुआ ? इसे तो चौथी श्रेणी में आना चाहिए था ।प्रथम श्रेणी में आना तो ब्राह्मणों का काम है, तो उसका उत्साह कैसे रह सकता है ? मैं जानता हूँ मैने किन मुसीबतों से शिक्षा प्राप्त की । गरीबी के कारण मैं लंगोटी लगाकर स्कूल जाता था । स्कूल में मुझे पीने के लिए पानी भी न मिलता था एक दिन मैंने मास्टर से कहा । मास्टर ने चपरासी से कहा - इसे नल पर ले जाकर पानी पिला लाओ ।चपराशी ने नल खोला, तो मैंने पानी पिया । यदि चपरासी न होता, तो कई कई दिन तक मुझे पानी पीने को न मिलता । प्यासा ही घर वापस आता और घर आकर ही प्यास बुझाता । मेरे स्कूल में एक मराठा औरत थी । वह अनपढ थी परंतु मुझे कभी न छूती थी । बंबई के एलफिन्स्टन कालेज तक मेरी यही दशा रही । ऐसी परिस्थिती में एक चमार छात्र को क्या उत्साह मिलेगा ? उसकी उन्नति कैसे होगी ? उत्साह का मूल तो महत्वकांक्षा-पूर्ण मन है । जहां मन मार दिया गया हो, तो उस मरे हुए मन में उच्च आकांक्षा उत्पन्न कहां से होगी ? बलवान मन में ही धैर्य होता है । धैर्य से ही विपतियो से पार हुआ जाता है । मुसीबतों का मुकाबला आत्म-विश्वास से होता है।
हिंदु-धर्म का तत्वज्ञान ऐसे असमानता और अन्यायपूर्ण सिद्धांतो पर आधारित है कि उस पर श्रद्धा रखनेवाले दबे,पिछडे, मानव को कभी उत्साह मिल ही नही सकता । शिक्षा का द्वार खुल जाने पर भी हजारो वर्षो तक केवल पेट भरनेवाले "कुछ बाबू " पैदा होगे । ऐसे क्लर्को की रक्षा के लिए बडे क्लर्को की जरुरत होगी । इस गुलाम क्लर्को से अछूतो की क्या भलाई होगी ?
** निशाने की जगह बैठनेवाले व्यक्तियों की आवश्यकता :
अंग्रेजी अमलदारी में मैं दिल्ली में भारत के वाइसराय लार्ड लिनलिथगो की इक्जीक्यूटिव्ह का कौंसिलर था । एक दिन मैंने लार्ड लिनलिथगो से कहा "आप मुसलमानों के नाम पर अलिगढ युनिवर्सिटी को तीन लाख और हिंदुओं के नाम पर बनारस युनिवर्सिटी को तीन लाख रुपया देते हैं, "पर गरीब असहाय अछूतों के नाम ? " लार्ड लिनिलिथगों ने सहनुभूतिपूर्वक मुझसे कहा कि मुझे जो कुछ कहना है उसे लिख कर पेश करुं । मैंने एक मेमोरैंडम लिखकर उन्हे दिया । उन्होने मेरी बात मान ली । मगर यह निर्णय न हो सका कि यह पैसा खर्च कैसे हो ।उनका खयाल था कि इस पैसे को हमारी लडकियों को शिक्षित किया गया, तो उनके लिए अचछा खाना, अच्छा पहनना, अच्छा घर और अच्छा सामान चाहिए । यह सब कहां से आयेगा ? हमारी जाति तो अत्यंत गरीब है । हम लोग अपनी शिक्षित लडकियों की इच्छा पूरी करने के लिए पैसा कहा से लायेगे और शिक्षा का परिणाम क्या होगा ? उन्होंने मेरी बात पर ध्यान देकर उस पैसे को दुसरी भलाईयों पर खर्च किया । एक बार और लार्ड लिनलिथगो से शिक्षा संबंधी खर्चो पर बातचीत के बीच मैंने कहा - " यदि आपको गुस्सा न आये तो मै एक प्रश्न पूछना चाहता हूं ' उन्होने कहा - " हां, हां, पूछिये, मैंने कहा - " क्या आप मानते है कि मै अकेला पांच सौ ग्रेज्युएटों के बराबर हूँ । उन्होने कहां "हां मैं मानता हूँ ।" फिर मैंने अपनी महेनत और कठिनाइयों का जिक्र करते हुए कहा - " मैने इतनी योग्यता प्राप्त कर ली है कि मैं शासन के किसी भी पद पर बैठ सकता हूँ । हमारी जनता की भलाई के लिए ऐसे लोगों की जरुरत है ' जो शासन के किले में निशाना मारने की जगह बैंठ कर शत्रु को परास्त कर सकें और हमारे गरीब असहाय लोगों की देखरेख कर सकें " . मेरे इस कथन को लार्ड लिनलिथगो ने माना और उसी साल 16 विधार्थियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विलायत भेजा ।
** वर्ण व्यवस्था और जाति-भेद ही हिन्दु धर्म :
वर्ण - भेद और जाति -भेद हिंदू धर्म की रिढ है और धर्म एक संस्था है । अतः वर्ण -व्यवस्था फुंक मारकर उठाई नही जा सकती । मनुस्मृति में चातुवर्ण का विधान है, उसी को बढाने के लिए सारे हिंदु शास्त्रों की रचना हुई । इसके अनुसार शूद्रों का काम सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय-वैश्यों और लाला लोगों की सेवा करना है । अन्याय और असमानता पर आधारित हिंदु धर्म में रहकर हम अपनी उन्नति नही कर सकते । वर्ण व्यवस्था मनुष्य -मात्र की उन्नति के लिए महाघातक है । मैं एक बार गांधीजी से मिलने गया । गांधीजी ने मुझसे कहां कि वे चातुर्वर्ण को मानते है । मैने अपनी चार अंगुलियों को एक के उपर एक करके उनसे पुछा - " यह चातुवर्ण किधर से चलता है ? इसका आदि और अंत कहां है ? गांधीजी मेरी बात का कोई जवाब न दे सकें । हिंदुओँ के पास इसका कोई उतर है भी नही । इसी धर्म के बदौलत कई बार हमारा देश गुलाम हुआ । युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है । क्षत्रिय मर गये कि सारा देश मर गया । यदि हम लोगों को शस्त्र धारण करने का अधिकार होता, तो भूतकाल में इस महान देश पर आक्रमण करके कोई इसे जीत न सकता । युरोप सन् 1939-45 का महायुद्ध अनिवार्य फौजी भर्ती से जीता गया । वहां किसी जाति विशेष को इसका श्रेय नहीं है, मेरे कथन में तिलमात्र भी झूठ नही है कि हिंदू-धर्म की रचना केवल कुछ तथाकथित सवर्णो के स्वार्थ के लिए हुई, जो सदियों से बेजा लाभ उठा रहे है, शूद्रों की कोई भलाई इससे नही हुई । ब्राम्हण की औरत गर्भवती हुई कि उसका ध्यान सीधा हाईकोर्ट की ओर जाता है किं वहां जज की जगह खाली है या नही, जबकी हमारी औरत गर्भवती होने पर यह ध्यान करती है कि म्युनसिपालिटी में झाडू लगानेवाले की जगह खाली है या नही हमारी यह दुर्गति हिंदु-व्यवस्था के कारण हुई ।इस में रहकर हमारी क्या भलाई हो सकती है ? इसे तो त्याग देने मे ही हमारा कल्याण है ।
** समता पूर्ण बौद्ध -धर्म से ही भलाई होगी :
तथागत बुद्ध के धर्म को ब्राम्हणों ने भी अपनाया और शूद्रों ने भी उन सभी भिक्खूओं को आदेश देते हुए तथागत ने कहा ।
" हे भिक्खुओं! आप कई देशो और कई जातियों से आये है, किंतु यहां आप सब एक हो गये है । जिस प्रकार भिन्न भिन्न देशों मे अनेक नदियां बहती है और उनका अलग-अलग अस्तित्व दिखाई देता है । किंतु वे सब नदियां जब सागर में मिलती है तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती है, और सब समुद्र में समा जाती है । बौद्ध संघ भी समुद्र की भांति है । इस संघ में सभी एक है और सभी बराबर है । समुद्र में गंगा और यमुना के मिल जाने पर जैसे उनके पानी को अलग - अलग पहचानना कठिन है । इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संध में आ जाने पर आप सभी एक है और सभी एक एक समान है " ।
इस प्रकार का उदार महत् वचन किसी धर्म में बोला नहीं गया ।
** धर्म की आवश्यकता केवल गरीबों को होती है :
लोग मुझसे प्रश्न करते है कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने में मैंने इतनी देर क्यों की ? प्रश्न महत्वपूर्ण है । इस संबंध में मैं केवल यही निवेदन कर सकता हूँ कि इस धर्म के गंभीर तत्व दूसरों को समझाने की तैयारी करने में मुझे देर लग गई । आज मुझ पर जितनी जिम्मेदारी है, उतनी शायद संसार में किसी पर नहीं है । यदि मैं ज्यादा साल जीवित रहा, तो सब काम पुरा करके दिखाऊंगा ।
अमीरों को धर्म की जरुरत नही । जो कोठियों और बढिया बंगलों में रहते है, जिनके पास धन है, नौकर - चाकर है, आराम और मनोरंजन की सारी चीजें है, उन्हें धर्माधर्म पर विचार करने की कोई आवश्यकता नही । दुखी, अभाव -ग्रसित और पीडित लोगों को ही धर्म की विशेष आवश्यकता होती है । क्योंकि वह आशा पर जीवित रहता है और धर्म उसे आशावादी बनाता है, धर्म उसे धीरज देता है कि " घबराओ नही तुम्हारा मंगल होगा ।" युरोप में जिस समय ईसाई धर्म का प्रचार हुआ लोगों को पेट भर खाना नही मिलता था । पीडित वंचित और शोषित लोग ही मसीहा की शरण में गये । " गिबन ने एक बार कहां भी था - "ईसाई धर्म भिखमंगो का धर्म है ।" लेकिन वही ईसाई धर्म सारे युरोप का धर्म बनकर संसार पर छा गया । 'गिबन' यदि आज जीवित होते, तो अपनी बात का जबाब खुद पा लेते ।
कुछ लोग कहेंगे बौद्ध धर्म भंगी-चमारों का धर्म है । इससे आपको खिन्न होना न चाहिए । ब्राम्हण तथागत बुद्ध को भी "भौ गौतम! " कहकर चिढाया करते थे और तथागत बुद्ध कभी कभी उन्हें "भों वादी " कह देते थे । आप जानते है कि विदेशों में खरीदने के लिए बुद्ध की मूर्ति रखी जाय, तो एक भी नही बचेगी! तथागत बुद्ध का धर्म विश्वव्यापी है, और भारत में भी वह पुनः फैलकर रहेगा । तथागत बुद्ध का धर्म अजर अमर है वह आशा का प्रतीक एवं अभ्युदय और निःश्रेयस का महान मार्ग है । हमें दुख है कि इस धर्म को हमने पहले क्यो नही अपनाया ।
** बौद्ध-धर्म का भारत से उच्छेद क्यों हुआ ?:
ऐसे अभ्युदय और नि:श्रेयस को देनेवाले बौद्ध धर्म का भारत से नाश क्यों हो गया ? इस शंका का एक ऐतिहासिक उतर है । दो हजार वर्ष पूर्व भारत की वायव्य सीमा पर एक ग्रीक राजा था, जिसका नाम मिलिन्द (मिनांडर) था । अकबर की तरह इस राजा को भी धर्म-चर्चा बहुत पसंद थी । उसने हिंदु-धर्म के पंडितों से बहस करके कई बार उन्हें हराकर निरुत्तर किया । जब बौद्ध विद्वानों से मिलने की इच्छा की , तो बौद्ध भिक्षुओं ने महापंडित नागसेन भिक्षु का राजा से सामना करा दिया । राजा मिलिन्द भिखु नागसेन से धर्म-चर्चा करके बहुत संतुष्ट हुआ । यह धर्म-चर्चा "मिलिन्द प्रश्न" नाम से एक पुस्तक के रुप में हमें प्राप्त है । इसमें मिलिन्द का एक यह भी प्रश्न है कि " धर्म की ग्लानि कब होती ? भिक्षु नागसेन ने इसके तीन कारण बताये - पहला , सच्चे धर्म का कभी नाश नहीं होता । मिथ्या धर्म ही केवल काल-धर्म होते है, जो समय के बीतने पर स्वतः नष्ट हो जाते हैं, और सत्य प्रदीप्त हो उठता है । दूसरा यह कि जब प्रचार करने वाले विद्वान नही रहते, तो धर्म की ग्लानि होती है और पाखंडियों की बन आती है । तीसरा यह कि जब साधारण लोगों के लिए मंदिर और विहार नही रहते, जहां जाकर जनता पूजा, उपासना और धर्म श्रवण करें । तो धर्म की ग्लानि होती है ।भारत में बौद्ध धर्म के संबंध में तीनों बातें हुई। मुसलमानों के अमानुषी आक्रमण से हजारो बौद्ध मूर्तियां तोडी गई ।मंदिर और विहार नष्ट किये गये, भिक्षु मारे गये । शेष घबराकर तिब्बत, चीन आदि दूसरे देशो को चले गये । फल यह हुआ कि भारत में बौद्ध-भिक्षुओं का अभाव हो गया । कोई धर्मोपदेशक न रह गया । किंतु सारे संसार से बौद्ध धर्म का लोप नही हुआ । 2500 वर्ष पहले जिस धर्म की भारत - भूमि में घोषणा हुई थी, आज सारा संसार उन तत्वों को मान रहा है । अमरीका में बौद्धों की दो हजार संस्थाए है, जर्मनी में तीन हजार बौद्ध संस्थाएँ है,इंग्लैंड मे अभी हाल मे एक विशाल बौद्ध - मंदिर बनवाया गया है और तिब्बत, चीन,जापान,बर्मा,लंका,कम्बोडिया,हिंदचीन,श्याम आदि विशाल बौद्ध-देशों को तो आप जानते ही है ।
** तथागत बुद्ध का धर्म ईशवरीय धर्म नहीं :
तथागत बुद्ध ने कभी यह दावा नहीं किया कि उसका धर्म ईश्वरीय धर्म है जब कि ब्राम्हण, ईसाई और मुसलमान अपने धर्मो को ईश्वरीय होने का दावा करते और हर एक के यहाँ ईश्वरीय किताबे है । तथागत ने अपने धर्म को सनातन - मानव धर्म ही कहा है । उन्होने साफ कहा कि मेरे माता-पिता सामान्य मनुष्यों की भांति है । इसलिए दूसरे धर्मो की तरह बौद्ध धर्म में यह नही बताया गया कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की आकाश, वायु, सूर्य,चंद्र, आदि सब ईश्वर ने बनाये इसीलिए हमें उसका शुक्रिया अदा करना और उसकी उपासना व भजन करना चाहिए, अन्यथा इंसाफ के दिन हमसे जवाब तलब होगा । ईश्वर और आत्मा के लिए बौद्ध धर्म में कोई स्थान नही है । तथागत ने कहा - संसार दुःखबहुल और अशाशवत है । 60 प्रतिशत लोग दुखी पीडित है । दुख से पीडित लोगों का दुख नोचने ही बौद्ध धर्म का मुख्य ध्येय है । कार्ल मार्क्स ने केवल रोटी, कपडा और मकान के दुख का ही उपाय बताया किंतु तथागत ने संसार और परमार्थ दोनों की सिद्धि बताई और उनका मार्ग सरल सीधा अहिंसामय, सत्य और शांत है ।
** अपना और अगणित दुखी प्राणियों का उद्धार किजिए :
आपके सिर पर वैश्यों, क्षत्रियों और ब्राम्हणों ने पहाड खडा किया है । उसे किस तरह उलटा या तोडा जाय ? यह एक गंभीर प्रश्न है । मैं जब शिक्षा समाप्त करके आया, तो मुझे डिस्ट्रिक्ट जज बनाने को कहा गया । लेकिन इस रस्सी को मैने अपने गले मे इसलिए नही बंधवाया कि नौकर हो जाने पर मैं अपने लोगों की सेवा न कर सकूंगा । मैने सारे जीवन चिंता करके आपके उद्धार का जो मार्ग स्थिर किया है, मै चाहता हूं उस धर्म का आपको पूर्ण ज्ञान कराऊंगा। आज आप मुझ पर विश्वास करके इस मार्ग पर चलिए जिन भाईयों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया है । उन पर काफी जिम्मेदारी आ पडी है । आप इस धर्म को ऐसा न समझे कि अपने गले में मिट्टी का एक घडा बांध लिया है । बौद्ध धर्म की दॄष्टि से भारत भूमि इस समय सुनसान जंगल जैसी है । सच्चे बौद्ध बनकर आप इस पर छा जाइए । आप इस पवित्र धर्म को उतम रीति से पालन करने की प्रतिज्ञा कीजिए । अन्यथा आपकी निंदा होगी आज आप प्रतिज्ञा कीजिए की आप बौद्ध बंधु न केवल अपना बल्कि अपने साथ अपने देश का और साथ-साथ सारे संसार का उद्धार करेगे। स्मरण रखिए, संसार का उद्धार केवल बौद्ध धर्म से ही होगा दूसरा कोई रास्ता नहीं है ।
** अपनी आमदनी का बीसवां भाग दीजिए :
भाइयों बहनों! जिस जिम्मेदारी को अपने - अपने कंधों पर लिया है , उसे पूरा करने के लिए आपको बहुत कुछ करना है । आप लोग केवल अपने पेट के पुजारी न बने । अपनी आमदनी का कम से कम बीसवां भाग इस पवित्र धर्म के प्रचार में खर्च किजिए । यह मत सोचिये कि आप थोडे है । मैं अकेला था । अब इतने लोग मेरे साथी बन गये । तथागत बुद्ध ने पहले सिर्फ पांच सहपाठियों को दिक्षा दी । 'यश' नामक एक विद्वान और चालिस अन्य व्यक्तयों को दीक्षा दी । 'यश' धनिक घराने का था । तथागत बुद्ध ने आदेश दिया कि "बहुत लोगो के हित के लिए लोगो के सुख के लिए और सब लोगों पर अनुकंपा के लिए मेरे बताये इस आदि में बहुत कल्याण करनेवाले मध्य में कल्याण करनेवाले और अंत में कल्याण करने वाले धर्म का प्रचार करो और विशुद्ध बौद्ध धर्म का प्रकाश करो " तथागत बुद्ध ने तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार धर्म-प्रचार का तरीका अपनाया, अब हमें इस धर्म के प्रचार का कोई तरीका संसार की बदली हुई परिस्थिति के अनुसार अपनाना होगा । आज देश में भिखु नहीं है, इसलिए आप में से प्रत्येक को इस धर्म की दीक्षा स्वयं देना होगा । मैं इस बात की पूर्ण घोषणा करता हूँ कि "बौद्ध मतावलम्बी प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों को भी दीक्षा देने का पूर्ण अधिकार है" और जो हिंदू त्रिशरण सहित पंचशिल ग्रहण करे उनके लिए 22 प्रतिज्ञाएं करने का मैं आदेश देता हूँ ।
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