मंगलवार, 15 मार्च 2016

माननीय कांसीराम

कांशीराम साहब की जुबानी

सभी साथियो से अनुरोध है की इस पोस्ट को समय निकालकर पूरा पढ़े

मान्यवर कांशीराम साहब के जीवन पर्यंत संघर्ष का मुख्य मकसद था सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाना. उनका मकसद था एक ऐसा समाज बनाना जो समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित हो. अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए वे सत्ता को एक साधन मानते थे. लेकिन उनके सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं. अपने संघर्ष और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे मनी, माफिया और मीडिया को सबसे बड़ा रोड़ा मानते थे. उन्होंने इनसे मुकाबला करने के लिए अलग-अलग रणनीति बनायीं, साथ ही बहुजन समाज के लोगों को इन तीनों से सावधान रहने का आह्वान किया. हम यहाँ अन्य बिन्दुओं पर विस्तार में जाने की बजाय उन घटनाओं की ओर आपका का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जिनसे आप जान सकें कि मान्यवर कांशीराम साहब ने किस-किस प्रकार की परिस्थितियों का सामना करके चुनावों में सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये. और बहुजन समाज को सत्ता के मंदिर तक पहुँचाने के लिए मजबूत आधार प्रदान किया.
लोकसभा चुनाव १९८४
मान्यवर कांशीराम ने पहला लोकसभा चुनाव "जांजगीर मध्यप्रदेश" से लड़ा था. मान्यवर के शब्दों में “लोकसभा चुनाव १९८४ के लिए हमारे पास न पैसा था, न संगठन औरन ही कोई शक्ति लेकिन, फिर भी हमने हिम्मत और हौसला करके अपने कुछ उम्मीदवार खड़े किये. छतीसगढ़ में कुछ साथियों को, जो मेरे साथ चल रहे थे उनको लड़ाने के लिए मैं उधर पहुंचा. लेकिन छत्तिसगढ़ के लोग थे वो तो पक्के कांग्रेसी थे. श्री खुंटे (टी. आर. खुंटे) को लड़ाने के लिए मैं उधर गया था और उसके ही घर में ही मेरे ठहरने की व्यवस्था थी. उधर उसके बाप ने घर के बाहर भूख हड़ताल शुरू कर दी, यह कहते हुए कि मेरे लड़के का दिमाग ख़राब हो गया है, ये कांशीराम के चक्कर में आ गया है. यह बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़ना चाहता है, मैं कांग्रेस वालों को क्या जवाब दूंगा. इस तरह वह बेचारा भूख हड़ताल पर बैठा था और उसी के घर पर मैं ठहरा हुआ था तो, मैंने सोचा कि भई मुझे क्या करना चाहिए. जिसको लड़ाने के लिए मैं वहां गया था जब वह नहीं लड़ा तो मैंने सोचा कि मैं तो इसे लड़ाने के लिए यहाँ तैयारी करके आया हूँ. अब ये नहीं लड़ रहा है तो मुझे क्या करना चाहिए. मैंने सोचा कि नामांकन का आज आखिरी दिन है, तो अब मुझे ही लड़ना चाहिए लेकिन, उस वक्त तो मेरे पास नामांकन के दौरान अनामत राशि भरने का पैसा नहीं था. मैंने उधर चादर बिछाई और बहुजन समाज के जिन लोगों को मैंने तैयार किया था उनसे अपील किया कि आप लोग इस चादर पर थोड़ा-थोड़ा पैसा डालें ताकि मैं ५०० रूपये जमा करके अपना नामांकन कर सकूं. जब वहाँ उन्होंने पैसा डाला और मैंने गिना तो ७००रुपया हो गया. उसमें से ५०० रूपये डिपोजिट भर दिया और २०० रूपये में मैंने एक साइकिल खरीद ली क्योंकि अब मुझे प्रचार भी करना था. इसलिए मेरे पास साईकिल भी होना जरूरी चाहिए. मैंने सोचा बाकि कर्मचारियों के पास अपनी- अपनी साइकिलें हैं, हम इकट्ठे होकर साइकिल से प्रचार करेंगे. इस तरह से साथियों ! हम लोगों ने प्रचार शुरू कर दिया और मुझे ३२ हजार वोट मिले.”

हरिद्वार लोकसभा चुनाव १९८७.
१९८७ में हरिद्वार लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ.कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश का गृहमंत्री चुनाव मैदान में उतारा, तब कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए सारी विपक्षियों को मिलकर चुनाव लड़ना पड़ता था.उन सभी विपक्षियों ने रामविलास पासवान को खड़ा किया. उन्होंने रामविलास पासवान को चुनाव मैदान में उतारने से पहले हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा स्नान करवाया. ठाकुर चंद्रशेखर ने पासवान को कंधे पर बैठाकर स्नान कराया और पंडितों ने आशीर्वाद दिया कि ‘इसने पवित्र जगह से स्नान किया है, इसलिए यह जरूर जीतेगा.’ कांग्रेस वाले प्रत्याशी ने भी कहा कि ‘मैं तो इधर गंगा किनारे ही पैदा हुआ हूँ, मैं तो हमेशा गंगा में ही स्नान करता रहा हूँ ऐसा करके मैं भी जीतूँगा.’ तब (व्यंग करते हुए) मैं भी मायावती को उनसे एक फर्लांग ऊपर लेकर गया. मैंने कहा कि वे जिधर नहाये हैं, उधर गंगा गन्दी हो चुकी है इसलिए इधर गंगा साफ है इधर आप स्नान करो ताकि मैं घोषणा कर सकूं कि हमारा उम्मीदवार जीतेगा (मा.कांशीराम साहब अपने भाषणों में अक्सर इस तरह के अन्ध विश्वासों पर व्यंग करते थे).
अब चुनाव में खर्च करने के लिए हमारे पास कोई पैसे नहीं. चुनाव आने तक हम एक-एक, दो-दो, पांच-पांच रुपया इकठ्ठा करते रहे. मैंने पार्लियामेंट के अन्दर पड़ने वाले विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से पांच चुनाव कार्यालय खोलकर सिल्वर के बर्तन इकट्ठे करके रखे थे कि इन पांच जगहों पर पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए लंगर चलाऊंगा.परन्तु चुनाव ख़त्म हो गया आखिर तक हम लंगर नहीं चला सके. मेरे पास साईकिल थी तो मैं कुछ कार्यकर्ताओं को लेकर जगह-जगह घूमता था.मायावती को साइकिल चलाना नहीं आता था तो वो बस से घूमती थी. तब मायावती ने मुझे बताया कि ‘प्रत्याशी को बस में घूमने से बेइज्जती होती है क्योंकि, मैं बस में घूमती हूँ तो लोग कहते हैं कि देखो ये चुनाव लड़ रही है’. चुनाव तक मैंने एक गाड़ी लेनी चाही लेकिन आखिर तक हम वह गाड़ी भी नहीं ले सके. पांच दिन चुनाव के रह गये. हमें एक पुरानी टूटी सी जीप किराये पर मिली जो इतनी ख़राब थी कि उसमें तेल की टंकी की जगह पीपी रखी थी. तब मायावती ने बताया की इस जीप में आग लग गयी तो मैं कहाँ जाऊँगी. मैंने उस जीप में बैठने के लिए मायावती को तैयार किया. इसके बाद सारे देश भर से पार्टी समर्थक कार्यकर्ताओं ने थोड़ा-थोड़ा पैसा भेजा जो, आखिर तक मेरे पास कुल ८७००० रुपया इकठ्ठा हुआ जिससे हमने वह चुनाव लड़ा. उस ८७,००० रुपया खर्च करने पर सुश्री मायावती को १,३६,०००(एक लाख छत्तीस हजार) वोट पड़े. जबकि नोटों वाली कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को १ लाख ४९ हजार और सारी विपक्षी पार्टियों के उम्मीदवार रामविलास पासवान को मात्र ३२ हजार वोट पड़े. इस तरह मात्र १३ हजार वोट के अन्तर से (सुश्री) मायावती को हारना पड़ा. यह २३ मार्च १९८७ की कहानी है. इसके बाद मैं हमेशा पश्चाता रहा कि अगर मेरे पास एक लाख रूपये भी होता तो मैं मायावती को सांसद बना देता. फिर (सुश्री) मायावती को दो साल इन्तजार करना पड़ा.
१९८९ में हरिद्वार की बजाय हरिद्वार से लगी हुयी पार्लियामेंट की बिजनौर सीट से वह पार्लियामेंट मेम्बर बनीं.

इलाहाबाद लोकसभा चुनाव १९८८
हरिद्वार उपचुनाव के बाद १९८८ में इलाहबाद संसदीय सीट का उपचुनाव हुआ. वहां से मैंने अपना नामांकन भरा. जहाँ एक तरफ कांग्रेस पार्टी मैदान में थी तो दूसरी तरफ सारी विपक्षी पार्टियों की ओर से वी. पी. सिंह चुनाव मैदान में थे जिनके पास खर्च करने को करोड़ों रूपये थे. हमारे पास वहां पर भी पैसों की कमी थी. तब वहां पर मैंने चुनाव के लिए एक डिब्बा ख़रीदा और एक रेड़ी किराये पर लिया. रेड़ी पर हारमोनियम लेकर गाना गानेवालों का साज-बाज रखा और मैं उस रेड़ी के पीछे-पीछे ‘एक वोट के साथ एक नोट’ डालनेवाला डिब्बा लेकर चला. गाना गानेवाले साथ-साथ चलते हुए कहते थे कि ‘नोट भी दे दो और वोट भी दे दो’. इस प्रकार तब मैंने गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर बहुजन समाज के लोगों से अपील की कि मैं निर्धन समाज की ओर से उमीदवार खड़ा हूँ. मेरा बहुजन समाज निर्धन समाज है. हमारा (निर्धन समाज का) मुकाबला धनवानों (मनुवादी समाज)से है. मैं अभी आप लोगों से वोट मांगने आया हूँ. आपको यदि मुझे एक वोट डालना है तो उससे पहले मुझे अपने वोट के साथ एक नोट भी डालना है. आप निर्धन समाज के लोग हैं इसलिए आपको यदि मुझे वोट डालना है तो अभी से मन बना लें और एक वोट के साथ एक नोट भी डालना है.हमारा चुनाव भर में यह कार्यक्रम चलेगा. इसके बाद चुनाव आयोग की ओर से वोट के लिए मतदान-पत्र का डिब्बा आयेगा. इसलिए इससे पहले मुझे अपना एक नोट के साथ एक वोट भी डालें ताकि मैं अंदाजा लगा सकूँ कि मुझे मेरे निर्धन समाज का इतना वोट जरूर मिलेगा.
इसके साथ-साथ हमारे कुछ पेन्टर कार्यकर्ता भी आये. उनको मैंने बोला कि वइलाहबाद की हर दीवार पर हाथी बना दो.उन्होंने इलाहबाद की दीवारों पर एक लाख हाथी बना दिये. इसके आलावा हमारा कोई प्रचार नहीं था. उन हाथियों को देखकर अख़बार वाले भी कुछ लिखने लग ये कि कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के वी. पी. सिंह के आलावा बहुजन समाज पार्टी का कांशीराम भी चुनाव मैदान में है. जब चुनाव का दिन आया तो वोट पड़ने के बाद इलेक्शन कमिश्नर ने अपने डिब्बे में वोट गिनकर घोषणा की कि डिब्बे में से कांशीराम के ८६हजार वोट निकले जबकि कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के मात्र ९२ हजार वोट निकले. कांग्रेस पार्टी के मुझसे मात्र ६ हजार वोट ज्यादा निकले. तब थोड़े से ज्यादा वोट लेकर विपक्षी पार्टियों का उम्मीदवार वी. पी. सिंह जीत गया.

इटावा लोकसभा चुनाव १९९१
मान्यवर अब तक जितने चुनाव लड़े थे वह समाज को तैयार करने और उसका हौसला बढ़ाने की दृष्टि से लड़ते आये थे. उनका मानना था कि जब तक बहुजन समाज के ५० सांसद जीतकर नहीं पहुँचते तब तक मुझे संसद में नहीं जाना चाहिए. उनका कहना था कि मैं अपने बहुजन समाज को तैयार करके पूरी ताकत के साथ संसद में जाऊंगा. परन्तु १९९१ के लोकसभा चुनावों के बाद पूरे पूरे देश के कार्यकर्ताओं ने मा. कांशीराम साहब से व्यक्तिगत मुलाकातें करके आग्रह किया कि सामाजिक परिवर्तन की लहर को आगे बढाने के लिए आपका लोकसभा में जाना जरुरी है. अत: अपने निकट सहयोगियों और सक्रिय कार्यकर्ताओं की इच्छा को देखते हुए मान्यवर कांशीराम साहब ने इटावा संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से अपना नामांकन दाखिल किया. इटावा में हो रही चुनावी सभाओं में मान्यवर ने ऐलान किया कर दिया था- “अभी तक मैंने समाज को तैयार करने के लिए
इलाहबाद में वी. पी. सिंह, अमेठी में राजीव गाँधी व
पूर्वी दिल्ली में एच. के. एल. भगत के मुकाबले चुनाव लड़ा किन्तु,
अब मैं इटावा से चुनाव जीतने के लिए लड़ रहा हूँ. हमें यह चुनाव जीतना है. कार्यकर्ताओं को भी निर्देश है- ‘करो या मरो’. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो समाज का मनोबल ऊँचा नहीं कर गपाएंगे. इसलिए हमें बहुजन समाज का मनोबल बढ़ाने के लिए पूरी ताकत तो लगानी ही होगी.” इस चुनाव में मान्यवर कांशीराम के मुकाबले समाजवादी जनता पार्टी का रामसिंह शक्य, भाजपा का लाल सिंह वर्मा और कांग्रेस का शंकर तिवारी था. इस मुकाबले में कड़े संघर्ष के बावजूद भी
मा. कांशीराम साहब ने भाजपा के उम्मीदवार को २१९५१ मतों से हराकर विजय हासिल की.मान्यवर की जीत से कार्यकर्ताओं तथा लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी.
लोगों का आभार व्यक्त करते हुए मान्यवर ने सार्वजानिक पत्र लिखा- “इटावा लोकसभा चुनाव में सफलता से बहुजन समाज में हर्षोल्लास का वातावरण निर्माण हुआ. इस सन्दर्भ में देश-विदेश से असंख्य बधाई-पत्र तथा टेलीग्राम प्राप्त हुए हैं. इन तमाम बधाई-पत्रों तथा टेलीग्राम का प्रत्यक्ष जवाब देना तो मेरे लिए असंभव है. बहुजन समाज निर्माण की प्रक्रिया में जुड़े हुए तमाम साथियों, हित चिंतकों तथा मित्रों का मैं अत्यंत आभारी हूँ. शुभ कामनाओं के साथ, जय भीम”.

इस तरह मान्यवर कांशीराम साहब ने अपने पास उपलब्ध छोटे-छोटे साधनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करके तथा धनवानों से मुकाबला करने के लिए अपने निर्धन समाज से थोड़ा- थोड़ा धन का बंदोबस्त करके अपने विरोधियों परास्त किया और सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये. मान्यवर कांशीराम साहब का सांसद में प्रवेश बहुजन नायक

मान्यवर कांशीराम साहब ने २० नवम्बर, १९९१ को प्रात : ११ बजे संसद में उस समय पहला कदम रखा जब संसद में सभी सांसद सदस्य प्रवेश कर चुके थे. संसद के मुख्य द्वार पर जैसे ही मान्यवर पहुंचे तो सैकड़ों पत्रकार, फोटो ग्राफर आदि ने उन्हें घेर लिया. कुछ देर फोटोग्राफरों ने इतने फोटो खींचे की बिजली की सी चका- चौंध होती रही. इसके बाद संसद की सीढियाँ चढ़ते हुए भी फोटोग्राफरों के फोटो खींचें जाने के कारण उन्हें हर सीढ़ी पर रुक-रुक कर आगे बढ़ना पड़ रहा था. पत्रकारों की निगाह में भी अब तक सांसद तो बहुत जीत कर आते रहे किन्तु कांशीराम साहब की जीत के मायने ही कुछ और थे. इसलिए उनके इंतजार में आज पत्रकार 10 बजे से ही खड़े थे. इसके बाद आगे बढ़ते हुए

मान्यवर कांशीराम साहब ने जब संसद के मुख्य हाल में प्रवेश किया तो सबसे पहले लोकसभा अध्यक्ष श्री शिवराज पाटिल अपनी सीट छोडकर उन्हें लेने पहुंचे और उनसे हाथ मिलाया. मुख्य हाल में प्रवेश करते ही अन्दर बैठे सभी सांसदों ने अपने स्थान में खड़े होकर इस तरह स्वागत किया जैसे संसद में प्रधानमंत्री के स्वागत में खड़े हुए हों. प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिम्हाराव और अन्य पार्टियों के सभी बड़े नेता भी आगे बढ़कर मा. कांशीरामजी से हाथ मिलाये. शून्यकाल से पहले जब मान्यवर साहब को शपथ दिलायी गयी तो उस वक्त भी संसद तालियों से गूंज उठा. मान्यवर ने अंग्रेजी में "सत्यनिष्ठा" की शपथ ली थी. इस तरह उन्होंने न केवल शून्य से शिखर तक का रास्ता तय किया अपितु भारतीय राजनीति में उनकी इस आगाज ने देश की राजनीति की दिशा भी बदल दी.

मा.साहब के एतिहासिक  साहस को नमन तथा नमन उस बहुजन समाज को जिसने फुले-शाहू-आंबेडकर और कांशीराम साहब की विचारधारा को समझा और सम्मान  करते हुए  ब.स.पा.  को सत्ता  तक पहुंचाया ।
जय भीम ! जय कांशी !! जय भारत !!!

बहुजन पुर्नजागरण जन आंदोलन के प्रेरक और पॉलिटिकल साइंटिस्ट मान्यवर कांशीराम जी की आज जयंती है (15 मार्च 1934 से 9 अक्टूबर 2006 -72 साल ) जंयती की आपको हार्दिक  शुभकामनाएं ।मान्यवर साहब को विनम्र श्रद्धांजलि । उनके कथन
" मैं कोई नेता नहीं हूँ, थोड़ा ज्यादा काम करता हूँ । इसलिये कार्यकर्ता मुझे बड़ा कार्यकर्ता समझते है " और
" अगर जिंदगी में हम पीछे रह गए है तो इसके लिए पहले दोषी हम खुद् हैं , कोई दूसरा बाद में है ।"

बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम साहब के जन्म दिन 15 मार्च के अवसर पर मूलनिवासी टाइम्स पत्रिका मे प्रकाशित मा आर एस राम सदस्य केंद्रीय कार्य कारिणी  बामसेफ का लेख आप सब के लिए।
बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम तथा बहुजन आंदोलन

कांशीराम तेरी नेक कमाई - तूने सोती कौम जगाई

मान्यवर  दीनाभाना ने जब मान्यवर  कांशीराम को यशकायी डीके खापर्डे से मिलवाया तो उन्होनें माँ कांशीराम साहब को बाबा साहब की पुस्तक एनिहिलेशन आफ कास्ट पढने के लिए दिया। मा कांशीराम ने बाबा साहब की पुस्तक एनिहिलेशन आफ कास्ट को तीन बार पढा और आन्दोलित हो गये। यहां से मा कांशीराम का जीवन और इसका उददेश्य पूर्णतह बदल गया एवं यही से मा कांशीराम के जीवन में एक नयी स्फुर्ति आयी और उन्होने मा डीके खापर्डे, मा दीनाभाना एवं अन्य साथियों केा मिलाकर भारत में बहुजन आन्दोलन की शुरूआत की।

                मा कांशीराम ने बाबा  साहब डा भीमराव अम्बेडकर के आन्दोलन का गहन अध्ययन किया तो इन्होने देखा कि बाबा साहब के परिनिर्वाण के बाद उनका कारवां रूक गया है। इसलिए जहा-जहा से कारवा रूका था वहा-वहा से पुनः हमें आंदोलन रिस्टार्ट करना पडेगा।

1.       पूना पैक्ट का धिक्कार:-

मा कांशीराम इस नतीजे पर पहुचे कि अछूतों को मिलने वाले पृथक निर्वाचन के अधिकार को पूना पैक्ट ने समाप्त कर दिया और वह हथियार जो अछूतों को मिला था उसे गान्धी जी ने पूना पैक्ट कराकर यहां की शासक जातियों को पकडा दिया। यदि पृथक निर्वाचन प्रणाली रहती तो अछूत लोग अपनी सीट पर अपना प्रतिनिधि तो चुनते ही चुनते, लेकिन दूसरे वोट से सामान्य सीट पर भी हार एवं जीत का फैसला अछूत ठीक वैसे ही करते जैसे कि पूना पैक्ट के बाद अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की आरक्षित सीट पर हार एवं जीत का फैसला बर्तमान मे तथाकथित उच्च जातियाँ करती है। यदि पृथक निर्वाचन प्रणाली रहती तो अछूतों के अन्दर भी एक वर्ग के रूप में वोट देने की आदत विकसित हो जाती इसलिए सामान्य सीट वाला भी अछूतों से डरता और उनके मुद्दो पर चुप्पी नहीं साधता एवं आरक्षित सीट पर भी आज की तरह चमचे नही जीत सकते थे। परंतु ऐसा नहीं हुआ और गांधी जी के आमरण अनशन के कारण मजबूर होकर बाबा साहब को पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा जिसके कारण संयक्त निर्वाचन प्रणाली लागू हुई। इस लिए ही आरक्षित सीट पर हार एवं जीत का फैसला आज-कल शासक जातियां कर रही है। इससे अछूतों में दलाल एवं भडवें पैदा हो जा रहे है और ये प्रतिनिधि विधान सभा एवं लोकसभा में मुह में ताला लगाये रहते है। समाज को जागरूक करने के लिए ही इनकी आलोचना में ही उन्होने चमचा युग पुस्तक लिखी और पूना पैक्ट का धिक्कार किया।

2 गैर राजनीतिक जड (Non Political Root):- दूसरी बात उन्होंने आरपीआई से सीखा कि हमारा राजनैतिक आंदोलन इसलिए सफल नहीं हो रहा है क्योकि हमारी गैर राजनैतिक अर्थात सामाजिक जडे मजबूत नहीं। यह बात बाबा साहब डा अंबेडकर की ही लाइन को आगे बढा रही थी कि सामाजिक आंदोलन, राजनैतिक आंदोलन से आगे-आगे चलना चाहिए (Social reform must precede the Political reform)

3 पे बैक टू सोसायटी (Pay back to society):- ज्योतिबा फुले, साहूजी महाराज, बाबा साहब आंबेडकर एवं मूलनिवासी बहुजन समाज के सभी संतो एवं गुरुओ के चलाये आंदोलन का परिणाम था कि एससी,एसटी,ओबीसी वर्ग मे पढा-लिखा कर्मचारी-अधिकारी वर्ग तैयार हो गया था जो आरक्षण का लाभ लेकर सरकारी नौकरी मे प्रवेश कर गया था। इस वर्ग के समय, प्रतिभा एवं पैसा (time, talent, treasury) उपलब्ध है परंतु इस वर्ग मे अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का अभाव था।  इसी वर्ग को संबोधित करते हुये बाबा साहब ने 18 मार्च 1956 को आगरा में कहा था कि “मुझे पढे-लिखे लोगो ने धोखा दिया। मैं तो समझ रहा था कि ये पढे-लिखे लोग समाज के आंदोलन को आगे ले जायेंगे लेकिन यहां तो क्लर्कों की भीड खडी हो गयी जो अपना ही पेट पालने में लगे रहते हैं”। इस वर्ग को जागृत करने के लिए मान्यवर ने Pay back to society का सिद्धान्त तैयार किया और नौकरी पेशा लोगो को समझाया कि, “आपको जो नौकरी मिली है वह प्रतिनिधित्व के कारण मिली है और प्रतिनिधित्व पुरुखों द्वारा चलाये आंदोलन का प्रोडक्ट है। अर्थात समाज का आपके ऊपर ऋण है और इसलिए आपका सामाजिक उत्तरदायित्व है कि आप अपने समाज को अपना मनी, माइंड, टाइम शेअर करे और समाज केव ऋण से उऋण हो”।  इस प्रकार पढ़े-लिखे कर्मचारी-अधिकारी वर्ग को उनका सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibility) समझा कर उसको pay back to society के लिए तैयार किया।

4- बहुजन पहचान (Bahujan Identify) :- बाबा साहब के जीवन काल में अछूतों की 6 जातियां उनके आंदोलन से जुड गयी थी। ये जातियां हैं, 1- महाराष्ट्र के महार, 2- उत्तर भारत के चमार+जाटव, 3- बंगाल के नमोशुद्राय, 4- मद्रास के परियाह 5-आन्ध्रा के माला, 6-मध्य प्रदेश के सतनामी। इन जातियो ने बाबा साहब के आधुनिक, तर्कसंगत एवं बैज्ञानिक विचारधारा अपनाने के कारण अपने-अपने क्षेत्रो मे अछूतों की दूसरी उप-जातियां जो पुराने रूढ़िवादी विचारधारा मे जकड़ी हुयी है, से ज्यादा आगे बढ़ी।

                मा कांशीराम ने जाति के गणित को समझा और देखा कि यह छोटी जातियां तो अल्प जन हैं अतः इनको बहुजन बनाना होगा और इसके लिए उन्होंने नया नारा दिया कि जाति तोडो समाज जोडो। इस प्रकार उन्होने जाति पहचान (cast Identity) को वर्गीय पहचान (Class Identity) मे बदला। उन्होंने देखा कि दुश्मन ने हमें 6743 जातियों में विभक्त कर दिया है और इनके बीच भार्इचारे का अभाव है इसलिए इनके बीच भार्इचारा डालना होगा। इसलिए उन्होंने इनमें भार्इचारा बढाने के बारे में भार्इचारा सम्मेलन आयोजित किया। उन्होंने गांधी की दी गयी हरिजन की अपमानजनक पहचान को चुनौती दिया। तथागत बुद्ध द्वारा दिया गया शब्द बहुजन पहचान पर समाज को अल्पजन से बहुजन बनाने का सामाजिक आंदोलन चलाया। बहुजन शब्द एक विशाल शब्द है। यह शब्द उन्होंने तथागत बुद्ध से प्रभावित होकर लिया था। इस विषय में संवैधानिक रूप से बाबा साहब द्वारा संबिधान मे इस्तेमाल बैकवर्ड क्लास (एससी,एसटी,ओबीसी वर्ग) शब्द, कांशी राम साहब की मदद कर रहा था। बैकवर्ड क्लास (एससी,एसटी,ओबीसी वर्ग) शब्द कानूनी पहचान थी। कांशीराम ने इसे ही नर्इ सामाजिक पहचान बहुजन दिया और समीकरण को उलट दिया कि हम एससी,एसटी,ओबीसी वर्ग,  85 प्रतिशत बहुजन हैं और 15 प्रतिशत शासक जातियां अल्पजन हैं। उन्होंने कहा कि बडी विडम्बना है 85 प्रतिशत वाला हाथ फैलाकर 15 प्रतिशत  वाले से मांग रहा है। इसलिए उन्होंने नारा दिया कि हमें मांगने वाला नहीं देने वाला बनना है और इसके लिए एससी,एसटी,ओबीसी वर्ग और इनसे धर्मांतरित आप्लसंख्यक वर्ग को एक पहचान पर संगठित करने का प्रयास किया और वह एक पहचान थी बहुजन पहचान। हर शब्द का एक संदेश होता है। कांशीराम द्वारा चुना गया बहुजन शब्द कर्इ संदेश दे रहा था

i- हम इस देश में बहुजन हैं अर्थात दुश्मन अल्पजन है। 

II-बहुजन बहुसंख्यक है औए लोकतंन्त्र में तो बहुमत की सरकार होती है यह शब्द हमारे अन्दर शक्ति एवं सम्मान लाता है तो दुश्मन के अन्दर भय

III- यह शब्द हमें तथागत बुद्ध से जोडता है। 

                मा कांशीराम ने कहा कि जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती तथा अपने महापुरूषों का आदर और सम्मान नहीं करती है उसका विकास कभी नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने बहुजन समाज का इतिहास बताया कि आर्य ब्राह्मण विदेशी हैं और बहुजन समाज इस देश का मूलनिवासी है। 

                उन्होंने भारत देश मे बहुजन समाज के महापुरूषों को फिर से स्थापित किया जिसमें राष्ट्रपिता फूले, छत्रपति शाहूजी महाराज, पेरियार रामासामी नायकर, नारायना गुरू, संत कबीर दास, संत रविदास, गुरु घासी दास, विरसा मुण्डा इत्यादि थे। कांशीराम ने पेरियार की बात आगे बढाते हुए कहा कि हमारा आंदोलन सेल्फ रेस्पेक्ट का है अतः यह सेल्फ हेल्प से ही लड़ा जायेगा क्योंकि अगर आप किसी का सहारा लेते हैं तो उसका इशारा भी मानना पडेगा। अतः आंदोलन अपने संसाधनों से ही खडा होना चाहिए। कांशीराम ने नारा दिया कि जो बहुजन की बात करेगा वो दिल्ली से राज करेगा और राज प्राप्त होने पर जाति विशेष को नहीं सभी जातियों को बराबर का लाभ मिलेगा और इसके लिए दूसरा नारा दिया कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागेदारी। 

                कांशीराम ने कहा कि मैं सम्राट अशोक के विशाल भारत का पुनर्निर्माण चाहता हू और विदेशी आर्य ब्राह्मण जो घोडे पर बैठकर आये थे अगर उन्होने अपने आचरण मे सुधार नहीं किया तो उनको बाहर भी भेजा जा सकता है।

                मान्यवर ने आंदोलन की शुरूआत में ही नौकरी त्याग दिया और अपने लिए स्वयं ही चार शर्तें निर्धारित की .

1 मैं शादी नहीं करूगा।

2 मैं घर नहीं जाउंगा। 

3 मेरी कोर्इ सम्पति नहीं होगी। 

4 मैं अपना पूरा जीवन फूले-अम्बेडकरी आंदोलन के लिए समर्पित करूगा। 

                इन शर्तों का पालन कर कांशीराम ने त्याग की एक नर्इ मिशाल प्रस्तुत किया और इस त्याग के कारण समाज में उनकी स्वीकार्यता बढी इसलिए उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 6 दिसम्बर 1973 को बामसेफ, 6 दिसम्बर 1981 को डीएस-4 और 14 अप्रैल 1984 को बीएसपी बनार्इ। 

                मान्यवर ने बहुजन आंदोलन प्रारम्भ करने से पूर्व आरएसएस, वीएचपी, बीजेपी का भी अध्ययन किया और इसको काउन्टर करने के लिए उन्होंने तीन संगठन बनाये। बामसेफ एक सांस्कृतिक संगठन था जो कि आंदोलन के लिए ब्रेन का काम करता था और इसका उद्देश्य आंदोलन के लिए मानव संसाधन और आर्थिक संसाधन निर्माण करना था और पूरे आंदोलन पर वैचारिक नियंत्रण रखना था। बामसेफ संगठन गैर राजनैतिक(Non Political), गैर धार्मिक(Non Religious), गैर संघर्षात्मक (Non Agitational) था अर्थात यह संगठन आरएसएस के सामान्तर मे बनाया गया। दूसरा संगठन उन्होंने डीएस-4 बनाया जो कि संघर्षात्मक (Agitational) संगठन था और इसका उपयोग वही था जो आरएसएस के लिए वीएचपी का है।  तीसरा संगठन बीएसपी राजनैतिक संगठन था जैसे कि आरएसएस के लिए बीजेपी है। 

5 मान्यवर से एक छोटी सी भूल:- यहां पर मान्यवर से एक छोटी सी गलती हो गयी कि बामसेफ एक गैर राजनैतिक सांस्कृतिक/सामाजिक संगठन था अतः डीएस-4 एवं बीएसपी बनाने के पहले उनको बामसेफ को किसी योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देना चाहिए था या फिर यदि उन्हे बामसेफ चलाना चाहिए था और डीएस-4 एवं बीएसपी किसी योग्य व्यक्ति को सौप देना चाहिए था। क्योंकि उन्होने स्वयं बामसेफ को गैर राजनैतिक/ गैर संघर्षात्मक माना था तो इसका नेतृत्व एक राजनैतिक व्यक्ति कैसे कर सकता था? उनको एक मेथडोलाजी विकसित करनी चाहिए थी जिससे कि बामसेफ, डीएस-4 और बीएसपी के बीच आन्तरिक संबंध और सहयोग चलता रहे और तीनों संगठनों का स्वतंत्र स्वरूप भी बना रहे तीनों संगठनों समानान्तर मे एक साथ परस्पर सहयोग एवं संयोजन के साथ अपने –अपने क्षेत्र सामाजिक, संघर्षात्मक एवं राजतीतिक मे चलते रहे और विकसित होते रहे।  परन्तु मान्यवर ने बामसेफ, डीएस-4 और बीएसपी तीनों ही संगठन का स्वयं नेत्रित्व करते रहे और इस तरह एक्स,एक्स,एक्स माडल पर कार्य किया जबकि जहां से वे माडल उठाकर लाये थे वहां एक्स, वार्इ, जेड माडल कार्यरत था अर्थात आरएसएस, वीएचपी, बीजेपी तीनों संगठनों के मुखिया अलग-अलग हैं न कि एक व्यक्ति है और तीनों संगठनो मे वैचारिक रूप से एकता है, तीनों का लक्ष्य एक है, लेकिन तीनों का स्वतंत्र स्वरूप बरकरार है। आगे चलकर उन्होंने केवल राजनैतिक संगठन को ही तवज्जो दिया और डीएस-4 को भी समाप्त कर दिया।  जिस बामसेफ को वे ब्रेन बैंक बनाना चाहते थे और जिसके बौद्धिक नियंत्रण मे पूरे आंदोलन को चलाना चाहते थे, उससे अपने आपको पूर्णतः अलग कर लिया लेकिन बाद में आवस्यकता पड़ने पर सैडो बामसेफ बनाकर गैर राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठन को राजनैतिक विंग के अधीन कर दिया। Action (क्रियान्वयन) हमेशा Idea(विचार) के अधीन और उसके बाद होता है जबकि उन्होने खुद बाबा साहब की यह बात मानी थी कि सामाजिक आंदोलन, राजनैतिक आंदोलन से आगे-आगे चलना चाहिए (Social reform must precede the Political reform) और कहा था कि जिस समाज की गैर राजनैतिक जडे मजबूत नहीं होंगी उसकी राजनीति सफल नहीं हो सकती। क्योंकि मान्यवर की एक बहुत बडी पर्सनालिटी विकसित हो चुकी थी। इससे मूलनिवासियों में संगठन न विकसित होकर व्यक्ति विकसित हो गया और जो संगठन बना वह व्यक्ति केन्द्रीत संगठन था। 1992 तक भारत में सभी अन्य पिछडी जातियों के नेताओ को अपनी अहमियत और ताकत का एहसास नहीं था और सभी कांग्रेस, भाजपा और जनता दल के सवर्ण नेताओ के पिछलग्गू बनकर राजनीति कर रहे थे। परन्तु भारत की राजनैतिक पटल पर मान्यवर के उदय के बाद पिछडे वर्ग के नेताओं में एक चेतना आर्इ कि यदि अनुसूचित जाति के लोग अपने दम पर राजनीति कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं- इसके बाद ही माननीय मुलायम सिंह यादव ने अपने दम पर समाजवादी पार्टी, माननीय शरद पवार ने एनसीपी एवं मा लालू प्रसाद यादव ने आरजेडी, नितीश कुमार ने समता पार्टी बनार्इ । लेकिन इस सभी लोगों ने मान्यवर को अपना रोल माडल मानकर व्यक्ति केन्द्रित संगठन ही बनाये इसका दुष्परिणाम हुआ कि मूलनिवासियों में छोटे छोटे तानाशाह पैदा हो गये जो आपस मे एक दूसरे से संवाद भी नहीं करते आपस मे एक दूसरे को सहयोग करना तो बहुत दूर की बात है। इन छोटे छोटे तानाशाह लोगों को मनुवादी मीडिया सुर्पीमो कहकर संबोधित करता है। जब वह इनको सुर्पीमों कहता है तो ये बहुत प्रसन्न होते हैं जबकि प्रजातंत्र में सुर्पीमों संबोधन एक व्यंग पूर्ण आलोचना है। अब तो मूलनिवासियों के कई सामाजिक संगठनो ने भी सुर्पीमों सिस्टम को अपना लिया है। 

                मान्यवर ने जब बामसेफ एवं डीएस-4  को समाप्त कर दिया तो उन्हें अपने राजनैतिक संगठन के लिए शिक्षित एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन मिलना बंद हो गया। जो लोग 1984 के पहले के प्रशिक्षित थे उन्हीं के बल पर राजनैतिक आंदोलन आगे बढा। पहले यह उम्मीद थी कि बामसेफ, डीएस-4 राजनैतिक विंग (बीएसपी) के लिए फीडर कैडर का काम करेंगा और बीएसपी के लिए प्रशिक्षित एवं योग्य मानव संसाधन उपलब्ध कराएगा करेंगे परन्तु वैसा नहीं हुआ। इसलिए राजनैतिक आंदोलन को रा-हैण्ड संसाधन समाज से उठाना पड़ा। इसलिए विचारधारा में इतनी गिरावट आयी और बाहर से आए कार्यकर्ताओं के भ्रष्टाचार की शिकायत भी बढी और इससे आंदोलन बदनाम हुआ। 

6.
हमने सबक लिया है:- हमने बामसेफ को फिर से धारा के विपरीत खड़ा किया यद्द्पि कि इसे खड़ा करने में बड़ी दिक्कते आर्इ। हमने मान्यवर के आंदोलन का निरपेक्ष मूल्यांकन किया और जहा उनकी अच्छाइयों से प्रेरणा लिया वही हमने गलतियों से सबक लिया है, क्योंकि हम मिशन को जहां मान्यवर ने छोडा था उसके आगे ले जाना चाहते हैं। इस लिए हमने निम्न सुधार किया है.
1॰ बामसेफ एक सांस्कृतिक संगठन रहेगा और इसके अध्यक्ष का कार्यकाल दो वर्ष का होगा, उसके बाद नये व्यक्ति को अवसर दिया जायेगा, जिससे कि व्यक्ति न विकसित होकर संगठन विकसित हो।
2॰ मूलनिवासी संघ एजीटेशनल विंग का कार्य करेगा और इसका अध्यक्ष बामसेफ के अध्यक्ष के अलावा दूसरा व्यक्ति होगा और दोनों संगठन साथ-साथ स्वतंत्र रूप से चलते रहेंगे।
3॰ कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण के लिए एक दिवसीय एवं दो दिवसीय पाठयक्रम तैयार किया गया है जिसके अनुसर प्रत्येक प्रदेश में कर्इ प्रशिक्षक तैयार किये गये हैं, जो प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं।
4॰ संगठन में आन्तरिक लोकतंत्र का समावेश किया गया है और संगठन को व्यक्ति वाद के नियन्त्रण से निकाल कर उसका संस्थायीकरण किया गया है।
मान्यवर के मिसन को आगे बढ़ाना ही उनको सच्ची श्रद्धांजली होगी। उनकी एक त्रुटि या भूल के बावजूद भी, उन्होंने बाबासाहब के रूके हुए कारवां को आगे बढाकर मूलनिवासी बहुजन समाज में जागृति फैलाने का जो कार्य किया उससे करोडो लोगों के अन्तर्मन से यह नारा अपने-अपने आप प्रस्फुटित हुआ
कांशीराम तेरी नेक कमाई - तूने सोती कौम जगाई
मूलनिवासी बहुजनों के इस नायक को हम सादर नमन करते हैं।

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