विवाह के समय 'सात-फेरों', अवदान और 'लाजा-होम' का रहस्य------------------------------------------------------------(कृपया अवश्य पढ़ें !)प्राचीन काल में 'आर्यों' की सामाजिक व्यवस्थाओं में विवाह के कोई विशेष नियम नहीं होते थे |उस काल में एक पिता अपनी पुत्री या दोहित्री से, तो एकभाई अपनी बहिन से योन सम्बन्ध कायम कर सकता था ! आर्यों में अस्थायी तौर पर स्त्रियों को भाड़े पर भी दिया जाता था | इसके साथ एक अन्य प्रथा भी आर्यों में प्रचलित थी, जिसके तहत वंश-संवर्धन' अर्थात 'संतानोत्पत्ति'के लिए स्त्रियों को सर्वोत्तम पुरुषों के लिए सोंपा जाता था | ये सर्वोत्तम पुरुष 'देव' या 'ब्राहमण' कहलाते थे |आर्यों में वह एक ऐसा वर्ग था, जिसे 'देव' या 'ब्राहमण' कहा जाता था, जो उस काल में पद और पराक्रम में श्रेष्ठमाने जाते थे | उस समय की वैदिक मान्यतानुसार अन्य वर्ण के लोगों को अच्छी संतानोत्पत्ति के लिए उस 'देव-वर्ग' को अपनी स्त्रियों के साथ संभोग करने की अनुमति अनिवार्यतः देनी होती थी !धीरे-धीरे यह प्रथा इतने व्यापक रूप से प्रचलित हो गयी की उक्त 'देव-लोग' (ब्राहमण) अन्य सभी स्त्रियों के साथ संभोग करना अपना अधिकार समझने लगे | किसी भी कुमारी या विवाहित आर्य-स्त्रियों के साथ देव-ब्राहमण आदेशात्मक रूप से संभोग कर सकते थे जिसे'पुर्वास्वादन' कहा जाता था | 'पुर्वास्वादन' के ऐसे उदाहरण हिन्दू-पुराणों में बहुत मिलते हैं |किसी भी लड़की का उस समय तक विवाह नहीं हो सकता था, जब तक वह लड़की उसके माता-पिता द्वारा देवोँ के 'पुर्वास्वादन' के अधिकार से मुक्त नहीं कर ली जाती ! मुक्त करने के इस धर्मानुष्ठान को को तकनीकी भाषा में इसे 'अवदान' कहते थे, जो आज भी 'हिन्दू-विवाह' के समय किया जाता है |जिसके तहत विवाह के समय देव-ब्राहमण को दान दिया जाता है और बदले में वह 'देव' उस लड़की को 'पुर्वास्वादन' से मुक्त करता है | 'अवदा'न की इस रश्म के साथ 'लाजा-होम' नामक हवन किया जाता है, जिसमें उस लड़की की 'लज्जा' को अग्नि में होमा (हवन द्वारा जलाना) जाता है ! अर्थात इस रश्म को करने का तात्पर्य यह है की विवाह से पहले लड़की की लाज (लज्जा) देव के पास या देव अधिकृत थी; मगर विवाह के बाद अब इसकी लज्जा का 'अग्नि' में हवन किया जाता है !"लाजा-होम" अनुष्ठान प्रत्येक हिन्दू-विवाह में आज भी किया जाता है, जिसका विवरण 'आश्वलायन गृह्य सूत्र' में मिलता है |'लाज-होम' में लड़की के माता-पिता द्वारा जो 'अवदान' किया जाता है, उसके करने से देवोँ का वधु के ऊपर से अधिकार समाप्त हो जाता है | इस अवसर पर "सप्तपदी" नामकएक धर्मानुष्ठान भी किया जाता है, जिसके बिना 'हिन्दू-विवाह' को क़ानूनी मान्यता नहीं मिलती |'सप्तपदी' का देवोँ के 'पुर्वास्वादन' के अधिकार से अंगभूत सम्बन्ध है | 'सप्तपदी' का अर्थ है, 'वर का वधु के साथ 'सात कदम चलना' |' यह क्यों अनिवार्य है ? इसका उत्तर यह है की अब देवोँ की अंगभूत 'कन्या' अर्थात 'काम्या' सात कदम चलकर देव से दूर जा रही है, अतः यदि 'देव-ब्राहमण' असंतुष्ट हो तो सातवां फेरा लेने से पहले क्षतिपूर्ति का हक उस 'काम्या' पर पुनः जतला सकतें है | सातवां फेरा लेने के बाद 'देवोँ' का अधिकार समाप्त हो जाता है ! मगर कईं विवाहादि-धर्मानुष्ठानों में देखा जाता है की ये 'सात फेरे' भी पूरे नहीं लिए जाते हैं, अर्थात विवाह के बाद भी वह कन्या देव के अंगीभूत ही रहती है !'सात फेरे लेने के बाद देव-ब्राहमण कोई अडचन नहीं डाल सकते हैं और न ही देव छेड़खानी कर सकते है | इसके बाद वरऔर वधु का एक-दूसरे पर अधिकार हो जाता है | दोनों पति और पत्नी की तरह रह सकते है | ईधर कन्या की देवोँ से मुक्ति के बदले में मिला हुआ 'अवदान' देव अर्थात 'ब्राहमण' ले जाता है |तो इस प्रकार देखा जा सकता है की विवाह के इस 'अनुष्ठान' का पति-पत्नी के बंधन से ज्यादा कन्या का 'देव-ब्राहमण' से मुक्त होने का सम्बन्ध ज्यादा है |
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