रविवार, 25 अक्टूबर 2015

नवधा भक्ति ।श्रीराम/शबरी

        रामायण ~ जीवन की सींख

श्री राम द्वारा माता शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश . . . .

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीँ । सावधान सुनु धरु मन माहीँ ।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।

(श्री राम जी ने कहा) मैँ तुझ से अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मन धारण कर । पहली भक्ति है संतो का सत्संग । दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंग मेँ प्रेम ।

दोहा - गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ।।

तीसरी भक्ति है अभिमान रहित हो कर गुरु के चरण कमलोँ की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़ कर मेरे गुण समूहोँ का गान करे ।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।

मेरे मंत्र का जाप और मुझ मेँ दृढ़ विश्वास-यह पाँचवी भक्ति है, जो वेदोँ मेँ प्रसिद्ध है । छठी भक्ति है इन्द्रियोँ निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्योँ से वैराग्य और निरन्तर संत पुरुषोँ के धर्म (आचरण) मेँ लगे रहना ।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतेँ संत अधिक करि लेखा ।।
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिँ देखइ परदोषा ।।

सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझ मेँ ओत-प्रोत (राममय) देखना और संतो को मुझ से भी अधिक करके मानना । आठवीँ भक्ति है जो कुछ मिल जाये, उसी मेँ संतोष करना और स्वप्न मेँ भी पराये दोषोँ को न देखना ।

नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ।।
नव महुँ एकउ जिन्ह केँ होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ।।

नवीँ भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित व्यवहार करना, हृदय मेँ मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था मेँ हर्ष और विषाद का न होना । इन नवोँ मेँ से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो ।

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरेँ । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरेँ ।।

हे भामिनि ! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है । फिर तुझ मेँ तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है ।

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