रविवार, 29 नवंबर 2015

कठिन नही है शुद्ध हिंदी-भाग-41

कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 41
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इस भाग में हम 'का', 'के' और 'की' के प्रयोग पर विस्तार से नज़र डालेंगे। 'की' पर हम पहले विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। 'मेरा', 'मेरी', 'मेरे', 'हमारे', 'हमारा', 'हमारी', 'तुम्हारे', 'तुम्हारा', 'तुम्हारी', 'अपना', 'अपनी', 'अपने' आदि के साथ 'उनका', 'उनकी', 'उनके', 'उसका', 'उसकी', उसके', 'आपके', 'आपका', 'आपकी', 'किसका', 'किसकी', 'किसके', 'जिसका', 'जिसकी', 'जिसके', 'जिनके', 'जिनका', 'जिनकी', 'जिनके' आदि के लिए भी वही सारी बातें लागू हो सकती हैं, जिनकी बात हम करने जा रहे हैं।
स्वामित्व के भाव में, जैसे 'देश का राजा', 'सत्यम का घर' आदि; अंग, भाग, हिस्से, टुकड़े आदि के साथ, जैसे 'लड़की के केश', 'दस पन्ने की किताब', 'सुरेन्द्र का हाथ', 'तीन कमरे का मकान' आदि; उत्पत्ति या जन्म के कारक के साथ, जैसे 'मनोहर का पुत्र', 'ईश्वर की सृष्टि', 'आधुनिक भारत के निर्माता' आदि; रचना या कृति के साथ, जैसे 'किताब का लेखक', 'मार्क्स की पूँजी', 'रवि वर्मा के चित्र' आदि; नाते या रिश्ते के भाव में, जैसे 'महिला का पति', 'रामेश्वर की माता', 'चंचल की बुआ' आदि; प्रयोजन या मकसद के साथ, जैसे 'बैठने का कमरा', 'पीने का पानी', 'नहाने की जगह', 'दिये की बत्ती आदि; समय या काल के साथ, जैसे 'एक समय की बात है', 'पाँच हज़ार साल का इतिहास', 'छह महीने का बच्चा', 'चार दिन की चाँदनी', 'पचपन बरस का आदमी' आदि तथा परिमाण या मात्रा के साथ (जैसे 'दो हाथ की लाठी', 'दस बीघे का मैदान', 'कम ऊँचाई की दीवाल' आदि) 'का', 'के' और 'की' का प्रयोग किया जाता है।
किसी गाड़ी, बोझ या सवारी के साथ, जैसे 'कोल्हू के बैल', 'गधे का बोझ', 'ऊँट की सवारी' आदि; गुण, करनी या स्वभाव के साथ, जैसे 'नौकर का विश्वास', 'पढ़ाई का काम', 'मनुष्य की बुराई', 'भरोसे का आदमी' आदि; मोल या क़ीमत के साथ, जैसे 'चार रुपए की कलम', 'दो कौड़ी का आदमी', 'रुपए के सात सेर चावल' आदि; पेशा, सेवा, कर्मचारी, सेना आदि के साथ, जैसे 'भारत की सेना', 'ईश्वर का भक्त', 'हरि का नौकर', 'गाँव का किसान', 'स्कूल का मास्टर' आदि और उपादान (साधन या सामग्री, जिससे कोई चीज़ बनती है; जैसे 'लोहे की कील' में 'लोहा' तथा 'मिट्टी का खिलौना' में 'मिट्टी' उपादान हैं), कारण या मूल के साथ (जैसे 'सब उस दुष्ट के चलते हुआ है', 'राम का किया धरा है यह! ', 'चाँदी की अँगूठी', 'सोने का बिस्कुट', 'लकड़ी का घोड़ा' आदि) भी 'का', 'की' या 'के' का प्रयोग होता है।
'नगर के लोग', 'दूध का कटोरा', 'पानी की नहर', 'जाति का शूद्र', 'जय की ध्वनि', 'आषाढ़ का महीना', 'खजूर का पेड़' आदि भी इन विभक्ति चिन्हों के कुछ प्रयोग दिखाते हैं।
'मूर्ख का मूर्ख ही रहा वह!', 'दूध का दूध', पानी का पानी', 'ज्यों का त्यों', 'जैसे का तैसा', 'जहाँ का तहाँ' आदि में, जिनमें अपरिवर्तित रहने का भाव हो और 'सारा का सारा', 'गाँव के गाँव जल गए', 'शहर के शहर तबाह हो गए!', 'घर का घर' आदि में, जिनमें समस्तता का भाव हो; 'का', 'के' या 'की' का प्रयोग होता है।
कई बात अगर नियमित रूप से होती हो, जैसे 'महीने के महीने तनख्वाह' में तथा दशा बदलने की स्थिति में (जैसे 'कुछ का कुछ', 'राई का पहाड़', 'मंत्री का राजा होना' आदि) भी 'का', 'की' या 'के' का प्रयोग होता है।
क्रियाओं से जुड़े होने पर भी इन विभक्ति चिन्हों का प्रयोग होता है, जैसे 'भगवान् का दिया हुआ', 'कमल का खिलना', 'गाँव की लूट', 'नौकर का भेजा जाना', 'ऊँट की चोरी', 'भूख का मारा', 'चूने की छाप', 'दूध का जला', 'कवि की लिखी हुई पुस्तक', 'डाल का टूटा', 'जेल का भागा हुआ', 'मैं कब की पुकार रही हूँ', 'वह तो कब का आ चुका!', 'घर का बिगड़ा हुआ', 'पहाड़ का चढ़ना', 'गोद का खिलाया लड़का', 'खेत का उपजा हुआ अनाज' आदि।
'आँख का अंधा', 'नाम की भूख', 'बात का पक्का', 'धन की इच्छा', 'जन्म का पागल' आदि में भी हम 'का', 'की' या 'के' का प्रयोग करते हैं।
निश्चय के भाव में, जैसे 'मेरा विचार जाने का नहीं था', 'यह करने का मन नहीं है' आदि और 'तपन के यह कहते ही सब शान्त हो गए', 'मेरे रहते किसी का सामर्थ्य नहीं है' आदि के साथ भी ये सम्बन्ध वाचक विभक्ति चिन्ह ('का', 'की' और 'के') होते हैं।
कई बार इन चिन्हों का प्रयोग करना आवश्यक होता है, फिर भी इन्हें छोड़ दिया जाता है, जो ठीक नहीं माना जा सकता। 'यहाँ हिन्दी प्रयोग आवश्यक है', 'भक्त राम नाम लेकर चल पड़े', 'विशिष्ट व्यक्तियों में निम्नलिखित नाम उल्लेखनीय हैं', 'हिन्दूवादी आंदोलनों से देश सर्वनाश हो रहा है' आदि में आवश्यक होने पर भी इन विभक्ति चिन्हों को छोड़ दिया गया है। इनकी जगह 'यहाँ हिन्दी का प्रयोग आवश्यक है', 'भक्त राम का नाम लेकर चल पड़े', 'विशिष्ट व्यक्तियों में निम्नलिखित के नाम उल्लेखनीय हैं' और 'हिन्दूवादी

SC ST अत्याचार निवारण

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989

परिचय;-
यह कानून एस.सी., एस.टी. वर्ग के सम्मान, स्वाभिमान, उत्थान एवं उनके हितों की रक्षा के लिए भारतीय संविधान में किये गये विभिन्न प्रावधानों के अलावा इन जातीयों के लोगों पर होने वालें अत्याचार को रोकनें के लिए 16 अगस्त 1989 को उपर्युक्त अधिनियम लागू किये गये। वास्तव में अछूत के रूप में दलित वर्ग का अस्तित्व समाज रचना की चरम विकृति का द्योतक हैं।

भारत सरकार ने दलितों पर होने वालें विभिन्न प्रकार के अत्याचारों को रोकनें के लिए भारतीय संविधान की अनुच्छेद 17 के आलोक में यह विधान पारित किया। इस अधिनियम में छुआछूत संबंधी अपराधों के विरूद्ध दण्ड में वृद्धि की गई हैं तथा दलितों पर अत्याचार के विरूद्ध कठोर दंड का प्रावधान किया गया हैं। इस अधिनिमय के अन्तर्गत आने वालें अपराध संज्ञेय गैरजमानती और असुलहनीय होते हैं। यह अधिनियम 30 जनवरी 1990 से भारत में लागू हो गया।

यह अधिनियम उस व्यक्ति पर लागू होता हैं जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं और इस वर्ग केड सदस्यों पर अत्याचार का अपराध करता है़। अधिनियम की धारा 3 (1) के अनुसार जो कोई भी यदि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नही हैं और इस वर्ग के सदस्यों पर निम्नलिखित अत्याचार का अपराध करता है तो कानून वह दण्डनीय अपराध माना जायेगा-

1. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को जबरन अखाद्य या घृणाजनक (मल मूत्र इत्यादि) पदार्थ खिलाना या पिलाना।
2. टनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को शारीरिक चोट पहुंचाना या उनके घर के आस-पास या परिवार में उन्हें अपमानित करने या क्षुब्ध करने की नीयत से कूड़ा-करकट, मल या मृत पशु का शव फेंक देना।
3. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य के शरीर से बलपूर्वक कपड़ा उतारना या उसे नंगा करके या उसके चेहरें पर पेंट पोत कर सार्वजनिक रूप में घुमाना या इसी प्रकार का कोई ऐसा कार्य करना जो मानव के सम्मान के विरूद्ध हो।
4. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य के आबंटित भूमि पर से गैर कानूनी-ढंग से खेती काट लेना, खेती जोत लेना या उस भूमि पर कब्जा कर लेना।
5. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को गैर कानूनी-ढंग से उनकें भूमि से बेदखल कर देना (कब्जा कर लेना) या उनके अधिकार क्षेत्र की सम्पत्ति के उपभोग में हस्तक्षेप करना।
6. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्य को भीख मांगनें के लिए मजबूर करना या उन्हें बुंधुआ मजदूर के रूप में रहने को विवश करना या फुसलाना।
7. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्य को वोट (मतदान) नहीं देने देना या किसी खास उम्मीदवार को मतदान के लियें मजबूर करना।
8. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य के विरूद्ध झूठा, परेशान करने की नीयत से इसे पूर्ण अपराधिक या अन्य कानूनी आरोप लगा कर फंसाना या कारवाई करना।
9. किसी लोक सेवक (सरकारी कर्मचारी/ अधिकारी) को कोई झूठा या तुच्छ सूचना अथवा जानकारी देना और उसके विरूद्ध अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को क्षति पहुंचाने या क्षुब्ध करने के लियें ऐसें लोक सेवक उसकी विधि पूर्ण शक्ति का प्रयोग करना।
10. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को जानबूझकर जनता की नजर में जलील कर अपमानित करना, डराना।
11. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी महिला सदस्य को अनादार करना या उन्हें अपमानित करने की नीयत से शील भंग करने के लिए बल का प्रयोग करना।
12. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी महिला का उसके इच्छा के विरूद्ध या बलपूर्वक यौन शोषण करना।
13. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों द्वारा उपयोग में लायें जाने वालें जलाशय या जल स्त्रोतों का गंदा कर देना अथवा अनुपयोगी बना देना।
14. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को किसी सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोकना, रूढ़ीजन्य अधिकारों से वंचित करना या ऐसे स्थान पर जानें से रोकना जहां वह जा सकता हैं।
15. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को अपना मकान अथवा निवास स्थान छोड़नें पर मजबूर करना या करवाना।

दण्ड:-
ऊपर वर्णित अत्याचार के अपराधों के लियें दोषी व्यक्ति को छः माह से पाँच साल तक की सजा, अर्थदण्ड (फाइन) के साथ प्रावधान हैं। क्रूरतापूर्ण हत्या के अपराध के लिए मृत्युदण्ड की सजा हैं। अधिनियम की धारा 3 (2) के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं और-
यदि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य के खिलाफ झूठा गवाही देता है या गढ़ता हैं जिसका आशय किसी ऐसे अपराध में फँसाना हैं जिसकी सजा मृत्युदंड या आजीवन कारावास जुर्मानें सहित है। और इस झूठें गढ़ें हुयें गवाही के कारण अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्य को फाँसी की सजा दी जाती हैं तो ऐसी झूठी गवाही देने वालें मृत्युदंड के भागी होंगें।
यदि वह मिथ्या साक्ष्य के आधार पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को किसी ऐसे अपराध के लियें दोष सिद्ध कराता हैं जिसमें सजा सात वर्ष या उससें अधिक है तो वह जुर्माना सहित सात वर्ष की सजा से दण्डनीय होगा।

आग अथवा किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा किसी ऐसे मकान को नष्ट करता हैं जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य द्वारा साधारणतः पूजा के स्थान के रूप में या मानव आवास के स्थान के रूप में या सम्पत्ति की अभिरक्षा के लिए किसी स्थान के रूप में उपयोग किया जाता हैं, वह आजीवन कारावास के साथ जुर्मानें से दण्डनीय होगा।

लोक सेवक होत हुयें इस धारा के अधीन कोई अपराध करेगा, वह एक वर्ष से लेकर इस अपराध के लिए उपबन्धित दण्ड से दण्डनीय होगा।ज अधिनियम की धारा 4 (कर्तव्यों की उपेक्षा के दंड) के अनुसार कोई भी सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नही हैं, अगर वह जानबूझ कर इस अधिनियम के पालन करनें में लापरवाही करता हैं तो वह दण्ड का भागी होता। उसे छः माह से एक साल तक की सजा दी जा सकती हैं।

अन्य प्रावधान;-
धारा-14 (विशेष न्यायालय की व्यवस्था) के अन्तर्गत इस अधिनियम के तहत चल रहे मामले को तेजी से ट्रायल (विचारण) के लियें विशेष न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इससे फैसलें में विलम्ब नहीं होता हैं और पीड़ित को जल्द ही न्याय मिल जाता हैं। धारा-15 के अनुसार इस अधिनियम के अधीन विशेष न्यायालय में चल रहें मामलें को तेजी से संचालन के लिये एक अनुभवी लोकज अभियोजक (सरकारी वकील) नियुक्त करने का प्रावधान हैं। धारा-17 के तहत इस अधिनियम के अधीन मामलें से संबंधित जाँच पड़ताल डी.एस.पी. स्तर का ही कोई अधिकारी करेगा। कार्यवाही करने के लियें पर्याप्त आधार होने पर वह उस क्षेत्र को अत्याचार ग्रस्त घोषित कर सकेगा तथा शांति और सदाचार बनायें रखने के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगा तथा निवारक कार्यवाही कर सकेगा। धारा-18 के तहत इस अधिनियम के तहत अपराध करने वालें अभियुक्तों को जमानत नहीं होगी।

धारा-21 (1) में कहा गया हैं कि इस अधिनियम के प्रभावी ढंग ये कार्यान्वयन के लिये राज्य सरकार आवश्यक उपाय करेगी। (2) (क) के अनुसार पीड़ित व्यक्ति के लियें पर्याप्त के लियें सुविधा एवं कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई हैं। (ख) इस अधिनियम के अधीन अपराध के जाँच पड़ताल और ट्रायल (विचारण) के दौरान गवाहों एवं पीड़ित व्यक्ति के यात्रा भत्ता और भरण-पोषण के व्यय की व्यवस्था की गई हैं। (ग) के अन्तर्गत सरकार पीड़ित व्यक्ति के लियें आर्थिक सहायता एवं सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था करेगी। (घ) के अनुसार ऐसे क्षेत्र का पहचान करना तथा उसके लियें समुचित उपाय करना जहाँ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर अत्यधिक अत्याचार होते हैं। अधिनियम की धारा 21 (3) के अनुसार केन्द्र सरकार राज्य सरकार द्वारा अधिनियम से संबंधित उठायें गयें कदमों एवं कियें गयें उपायों में समन्यव के लियें आवश्यकतानुसार सहायता करेगी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1995 यह नियम अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 का ही विस्तार हैं। अधिनियम के अधीन दर्ज मामलें को और अधिक प्रभावी बनानें तथा पीड़ित व्यक्ति को त्वरित न्याय एवं मुआवजा दिलाने के लियें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण नियम 1995 पारित किया गया हैं।

धारा 5 (1) (थाना में थाना प्रभारी को सूचना संबंधी)- इसके अनुसार अधिनियम के तहत किये गयें अपराध के लियें प्रत्येंक सूचना थाना प्रभारी को दियें जानें का प्रावधान हैं। यदि सूचना मौखिक रूप से दी जाती हैं तो थाना प्रभारी उसे लिखित में दर्ज करेंगें। लिखित बयान को पढ़कर सुनायेंगें तथा उस पर पीड़ित व्यक्ति का हस्ताक्षर भी लेंगें। थाना प्रभारी मामलें को थाना के रिकार्ड में पंजीकृत कर लेगें। (2) उपनियम (1) के तहत दर्ज एफ.आई। आर. की एक काॅपी पीड़ित को निःशुल्क दिया जायेगा। (3) अगर थाना प्रभारी एफ.आई। आर. लेने से इन्कार करतें हैं तो पीड़ित व्यक्ति इसे रजिस्ट्री द्वारा एस. पी. को भेज सकेगा। एस.पी. स्वंय अथवा डी. एस.पी. द्वारा मामलें की जाँच पड़ताल करा कर थाना प्रभारी को एफ.आई। आर.दर्ज करने का आदेश देंगें।

धारा-6 के अनुसार डी.एस.पी. स्तर का पुलिस अधिकारी अत्याचार के अपराध की घटना की सूचना मिलतें ही घटना स्थल का निरीक्षण करेगा तथा अत्याचार की गंभीरता और सम्पत्ति की क्षति से संबंधित रिर्पोट राज्य सरकार को सौंपेगा। धारा-7 (1)-के तहत इस अधिनियम के तहत कियें गयें अपराध की जाँच डी.एस.पी. स्तर का पुलिस अधिकारी करेगा। जाँच हेतु डी.एस.पी. की नियुक्ति राज्य सरकार/डी.जी.पी. अथवा एस.पी. करेगा। नियुक्ति के समय पुलिस अधिकारी का अनुभव, योग्यता तथा न्याय के प्रति संवेदनशीलता का ध्यान रखा जायेगा। जाँच अधिकारी (डी.एस.पी.) शीर्ष प्राथमिकता के आधार पर घटना की जाँच कर तीस दिन के भीतर जाँच रिर्पोट एस.पी.को सौपेगा। इस रिर्पोट को एस.पी.तत्काल राज्य के डी.जी.पी. को अग्रसारित करेगें। धारा-11 (1) में यह प्रावधान किया गया हैं कि मामलें की जाँच पड़ताल, ट्रायल (विचारण) एवं सुनवाई के समय पीड़ित व्यक्ति उसके गवाहों तथा परिवार के सदस्यों को जाँच स्थल अथवा न्यायालय जाने आने का खर्च दिया जायेगा। (2) जिला मजिस्ट्रेट/ एस.डी.एम. या कार्यपालक दंडाधिकारी अत्याचार से पीड़ित व्यक्ति और उसके गवाहों के लियें न्यायालय जानें अथवा जाँच अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होने के लियें यातायात की व्यवस्था करेगा अथवा इसका लागत खर्च भुगतान करने की व्यवस्था करेगा। धारा 12 (1) में कहा गया हैं कि जिला मजिस्ट्रेंट और एस.पी. अत्याचार के घटना स्थल की दौरा करेंगें तथा अत्याचार की घटना का पूर्ण ब्यौरा भी तैयार करेंगें। (3) एस.पी. घटना के मुआवजा करनें के बाद पीड़ित व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेंगें तथा आवश्यकतानुसार उस क्षेत्र में पुलिस बल की नियुक्ति करेंगें। (4) के अनुसार डी.एम./एस.डी.एम. पीड़ित व्यक्ति तथा उसके परिवार के लियें तत्काल राहत राशि उपलब्ध करायेंगें साथ ही उचित मानवोचित सुविधा प्रदान करायेगें।

बुधवार, 25 नवंबर 2015

कठिन नही है शुद्ध हिन्दी - भाग - 40

कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 40
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आज एक बार फिर से उच्चारण और भाषा की शुद्धता पर बात करते हैं। ताज़ा विवाद लालू प्रसाद यादव के बेटे के शपथ के दौरान 'अपेक्षित' को 'उपेक्षित' पढ़े जाने को लेकर है। हमारे यहाँ एक फ़ैशन चल पड़ा है हिन्दी को अपनी भाषा मानकर उसपर ध्यान न देने का! जब हजामत बनाने से लेकर चप्पल सीने तक सब कुछ सीखना पड़ता है, तो एक भाषा को लेकर यह रुख़ निस्संदेह चिन्ताजनक है। जो लोग अंग्रेज़ी में एक अक्षर की ग़लती को भारी अपराध मान बैठते हैं, वे हिन्दी में जबरदस्ती अंग्रेज़ी घुसा कर और जो मर्जी हो, वह बोल-लिख कर निश्चिंत रहते हैं।
अब सूचना तकनीक का मज़ा देखिए कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ के वक़्त के विडियो से पता लगा लिया गया है कि उन्होंने 'को अक्षुण्ण' को 'का अक्षण्ण' पढ़ा था! हमने भी सुना और इस आरोप को सच पाया। प्रधानमंत्री ने जो पढ़ा था, वह निरर्थक वाक्य था! क्या हम किसी रूसी, चीनी, फ़्रांसीसी, पुर्तगाली, जापानी, इतालवी, स्पेनी, अरबी या जर्मन भाषी प्रधानमंत्री या अन्य जनप्रतिनिधि को इस तरह शपथ लेते या बोलते सुन सकते हैं?
प्रधानमंत्री सहित अन्य नेताओं की भाषागत सुस्ती और लापरवाही पर अब हम विस्तार से नज़र डालते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा 'मंदिर' को 'मंदीर' भी कहा गया था। हाल में बिहार में शपथ ग्रहण के वक़्त दो मंत्रियों द्वारा 'सम्यक्' को 'सम्पर्क' और 'संसूचित' को 'संचित' पढ़ा गया! यह बीमारी हम रोज़ कक्षाओं में देखते हैं। छात्र शब्दों को बिना पूरा पढ़े मिलते जुलते शब्द से बदल डालते हैं। यह बीमारी आगे भी रह जाती है और लोग इससे मुक्त नहीं हो पाते, यह एक आम व्यवहार है। हम इसे किसी भी क़ीमत पर सही और चलने लायक़ नहीं मान पाते। कुछ और उदाहरण लेते हैं- 'कृप्या करके', 'कृप्या', 'समाजिक', 'रसायनिक', 'अनाधिकार', 'अपराधिक', '' 'टिपण्णी', 'परिणिति', 'पूज्यनीय', 'श्रृंखला' आदि। ये सारे हमारे पत्रकारों तक द्वारा की जाने वाली रोज़ की ग़लतियाँ हैं।
'कृपा करके', 'कृपया', 'सामाजिक', 'रासायनिक', 'अनधिकार', 'आपराधिक', 'टिप्पणी', 'परिणति', 'पूजनीय', 'शृंखला' आदि सही प्रयोग हैं। यही हाल 'सोच', 'हाथ', 'शत्रुघ्न', 'मेधा', 'विद्युत', 'स्थान', 'श्लोक', 'वैचारिक', विज्ञान', 'कार्यक्रम', 'धराशायी', 'पद्म', ' इच्छा', 'टिप्पणी', 'स्रोत', 'स्वच्छ' आदि के उच्चारण का है। हम इन शब्दों की जगह 'सोंच', 'हाँथ', 'शत्रुध्न', 'मेघा', 'विधुत', 'अस्थान', 'अस्लोक', 'बैचारिक', 'बिज्ञान', 'कार्जक्रम', 'धराशाही', 'पदम', 'इक्छा', 'टिप्पड़ी', 'स्त्रोत', 'स्वक्छ' आदि बोलते हुए बहुत सारे लोगों को देख सकते हैं। ये ग़लतियाँ बहुत प्रतिष्ठित पत्रकारों और विद्वान् माने जाने वाले लोगों के द्वारा होती हुई देखी हैं हमने! जाहिर है, अगर ये लोग भी शपथ लेते, तो निश्चित रूप से ये ग़लतियाँ कर सकते थे! फिर आप उन्हें भी नौवीं या बारहवीं फेल कह सकेंगे? प्रधानमंत्री को भी?
जब अंग्रेज़ी के 'peace' और 'piece' में अन्तर है और वह ध्यान देने लायक है, तो 'सामान', 'समान' और 'सम्मान' पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? एक बार खुद की भी जाँच कर लेनी चाहिए कि कहीं 'अपेक्षा' को 'उपेक्षा' या 'अर्हता' को 'अहर्ता' (भूलवश ही सही) तो नहीं पढ़ रहे!
इनमें से कई ग़लतियों पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं और कुछ पर आगे करेंगे। यहाँ हमने वाक्यों पर नहीं, शब्दों पर ही ध्यान दिया है। हमने यहाँ शाब्दिक अशुद्धियों तक ही खुद को सीमित रखा है।
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जारी...

कठिन नही है शुद्ध हिन्दी - भाग - 39

कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 39
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इस भाग में हम 'से' के प्रयोग पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
किसी काम में सहायक साधन के साथ 'से' का प्रयोग होता है, जैसे 'उसने पेंसिल से चित्र बनाया', 'राहुल ने खुरपी से गड्ढा खोदा' आदि।
प्रेरणा देकर काम करवाने पर कर्ता के साथ भी 'से' का प्रयोग होता है। 'वह मुझसे यह काम करवाता है', 'मैं ड्राइवर से गाड़ी चलवाता हूँ', 'शिक्षक छात्रों से पुस्तक पढ़वाते हैं' जैसे वाक्य उदाहरण के लिए देखे जा सकते हैं।
अलगाव, पृथक् होने, वियोग, टूटन, डर और दूरी का बोध होने पर भी 'से' का प्रयोग होता है, जैसे 'पेड़ से पत्ता गिरा', 'मोहन घर से आता है', 'रामू साँप से डरता है', 'छत से उतरी हुई लता', 'मोहन ने घड़े से पानी निकाला', 'वह घर से बाहर आया', 'गंगा हिमालय से निकलती है', 'चूहा बिल से बाहर निकला'आदि।
'वह आपसे कुछ पूछना चाहता है', 'तुम उससे क्या कहोगे', 'वह तुमसे कुछ पूछता है' जैसे वाक्यों में भी 'से' का प्रयोग होता है।
'वह धीरे से बोलता है', 'धीरज से काम लो', 'तुम ध्यान से सुनते हो', 'मन से ईश्वर की प्रार्थना करो' जैसे वाक्यों में क्रिया करने के तरीके या खासियत में 'से' का प्रयोग होता है।
'छूने से बर्फ ठंडी मालूम पड़ती है', 'पढ़ने से किताब नीरस मालूम पड़ी' जैसे वस्तु स्थिति का ज्ञान कराने वाले वाक्यों में; 'वह कपडों से पादरी लग रहा था', 'पारस जाति से वैश्य है', 'कबीरदास स्वभाव से अक्खड़ थे' आदि जाति, लक्षण, प्रकृति आदि के निर्धारण वाले वाक्यों में; उत्पत्ति, निषेध, विकार, कारण आदि वाले वाक्य जैसे 'सूत से कपड़ा बनता है', 'वह एक पाँव से लाचार था', 'तरुण सुस्ती से वहाँ नहीं गया' में; 'लेन देन, भाव, व्यापार आदि की सूचना में, जैसे 'अरहर की दाल 200 रुपए प्रति किलो की दर से बिक रही है', 'उसने अपनी घड़ी से उसका रेडियो बदल लिया'; प्रेम, प्रयोजन (उद्देश्य ) आदि का भाव बताने में, जैसे 'उसे अपने देश से प्रेम है', 'मुझे भला हवाई जहाज से क्या काम होगा' आदि में और आधिक्यावस्था (कम्परेटिव डिग्री) में तथा अतिशयावस्था (सुपरलेटिव डिग्री) में, जैसे 'नेहरू दूसरे नेताओं से ज़्यादा वैज्ञानिक सोच के व्यक्ति थे', 'रोहिणी तुमसे कमजोर है', '99 दो अंकों की सबसे बड़ी संख्या है', 'वह सबसे सुंदर है' आदि में भी 'से' लगता है।
दिशा बताने में, जैसे 'वह पूरब से आया है'; समय और स्थान की दूरी बताने में, जैसे 'आज से पाँच दिन पहले की घटना है', 'दिल्ली से पटना लगभग 900 किलोमीटर है' आदि में भी 'से' का प्रयोग किया जाता है।
हीन, शून्य, रहित, भरा, पूरा, उदार, दुष्ट, कृपालु, दयालु, बिगड़ैल, क्रोधी आदि के साथ भी 'से' का प्रयोग किया जाता है, जैसे 'बल से हीन', 'ज्ञान से शून्य', 'जल से भरा', हृदय से दयालु', 'स्वभाव से उदार', 'धन से रहित', 'प्रकृति से दुष्ट' आदि।
'उसे बोला नहीं गया', 'लोग मुझे कहा करते थे', 'अपने हाथों काम करना अच्छा होता है', 'उसको रस्सी बाँध कर लाया गया' जैसे वाक्यों में 'से' का प्रयोग करना अधिक स्पष्टता लाता है। इन वाक्यों को इस प्रकार लिखा या बोला जाना चाहिए - 'उससे नहीं बोला गया', 'लोग मुझसे कहा करते थे', 'अपने हाथों से काम करना अच्छा होता है', 'उसको रस्सी से बाँध कर लाया गया'।
'तुम जल्दी से आ जाना', 'रहीम के हाथों से पत्र भिजवा देना' आदि में 'से' को हटा देना ही ठीक रहता है। 'तुम जल्दी आ जाना', 'रहीम के हाथों पत्र भिजवा देना' ठीक रहेंगे।
कई बार 'से' का प्रयोग करना ठीक नहीं रहता, फिर भी 'से' जोड़ दिया जाता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-'यह किसी और काम से लगेगा' (यहाँ 'से' की जगह 'में' ठीक रहेगा), 'यह इस मूल्य से उपलब्ध नहीं हो सकता' (यहाँ 'से' के स्थान पर 'पर' या 'में' ठीक रहेगा), 'चिट्टी मेरे पते से भेजना' (यहाँ 'पर' का प्रयोग ठीक रहेगा), 'इससे मैं आपके पास नहीं आ पाया ' (यहाँ 'इससे' के स्थान पर 'इस कारण' का प्रयोग ठीक रहेगा), 'सबसे हमारा प्रणाम कहना' (यहाँ 'सबसे' की जगह 'सबको' ठीक रहेगा)
'प्रत्येक कार्य में उसकी योग्यता झलकती है' में 'में' की जगह 'से' का प्रयोग ठीक रहेगा।
'श्याम ने यह बात अपने एक मित्र के द्वारा सुनी है' में 'के द्वारा' के स्थान पर 'से' होना चाहिए। सही वाक्य 'श्याम ने यह बात अपने एक मित्र से सुनी है' होगा। इसी प्रकार 'मुझपर यह विपत्ति आँखों से आई है' का सही रूप 'मुझपर यह विपत्ति आँखों के कारण आई है' होगा। यहाँ 'आँखों के द्वारा' भी लिखना ठीक नहीं रहेगा।
भूख, प्यास, आँख, कान, पाँव, हाथ, जाड़ा आदि शब्दों के साथ 'से' लगता है, जबकि इनके बहुवचन रूप के साथ 'से' का प्रयोग नहीं किया जाता। इस बात को समझने के लिए हम कुछ उदाहरण लेते हैं। 'वह भूख से बेचैन है', लड़का प्यास से मर रहा है', 'मैंने अपनी आँख से यह घटना देखी', 'कान से सुनी बात का क्या भरोसा!', 'लड़की अब अपने पाँव से चलने लगी है' आदि में भूख, प्यास, पाँव आदि एकवचन हैं; इसलिए इन वाक्यों में 'से' का प्रयोग हुआ है। अब इन शब्दों के बहुवचन प्रयोग वाले कुछ उदाहरण लेते हैं। 'लोग भूखों बेचैन हैं', 'यात्री प्यासों मर रहे हैं', 'मैंने अपनी आँखों यह घटना देखी', 'कानों सुनी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए', लड़की अब अपने पाँवों चलती है', 'तुम मेरे हाथों ही मरोगे' आदि में 'से' का प्रयोग नहीं हुआ है।
'से' के अर्थ वाले हिन्दी में 'के ज़रिये', 'द्वारा', 'के कारण', 'के द्वारा', 'वाया', 'मार्फत', 'के माध्यम से', 'बरास्ता' आदि कई और विकल्प मिलते हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनका प्रयोग भी वाक्य और भाव के आधार पर होता है।
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आरक्षण का मूल्यांकन (दैनिक जागरण : Editorial)

आरक्षण को लोग बेरोजगारी के उन्मूलन का हथियार समझते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। सभी सरकारें पूरे साल सैकड़ों योजनाएं चलाकर गरीबी उन्मूलन और रोजगार के लिए सतत प्रयत्न करती रहती हैं। सरकार में नौकरियां जितनी हैं उससे पांच प्रतिशत भी बेरोजगारी खत्म नहीं होने वाली। आरक्षण मूल रूप से प्रतिनिधित्व के उद्देश्य की पूर्ति करता है। समय-समय पर विवाद पैदा होता रहता है कि आरक्षण सामाजिक आधार पर हो या आर्थिक आधार पर? आर्थिक आधार के पक्ष में तर्क देने वाले सोचते हैं कि आरक्षण गरीबी और बेरोजगारी दूर करने का हथियार है, जो एक भ्रम है। जो बेरोजगार हैं उन्हें लगता है कि आरक्षण की वजह से ऐसी स्थिति में हैं। जातीय पूर्वाग्रह तो एक कारण है ही। अगर आरक्षण समाज और देशहित में नहीं है तो इसे खत्म हो जाना चाहिए, यदि है तो विवाद किस बात का?
आजाद भारत के पहले परिस्थितियां भिन्न रहीं। बहुत लोगों की चिंता राजनीतिक आजादी की रही तो कुछ की चिंता समाज में मान-सम्मान की रही है। देश में ऐसी सोच रखने वालों में से एक अंबेडकर भी रहे। उन्हें तथा उनके समर्थकों को लगा कि आजाद भारत में हमारी दशा क्या होगी। उस समय शासक अंग्रेज थे, जातीय भेदभाव और सोच से वे परिचित नहीं थे। तब दलितों और आदिवासियों की भागीदारी हर क्षेत्र में नगण्य थी। जब साइमन कमीशन भारत की समस्याओं पर अध्ययन करने आया तो यहां के दलितों को मौका मिला कि वे अपनी बात को रखें। परिणाम यह हुआ कि लंदन की गोलमेज सभा में बात उठी और 1932 में गांधीजी और अंबेडकर के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। कुछ लोगों का सोचना है कि इससे हंिदूू समाज की एकता बरकरार रह सकी वरना यह टूट भी सकती थी, क्योंकि दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार ब्रिटिश हुकूमत ने मंजूर कर लिया था। 1शासन-प्रशासन में दलितों व आदिवासियों को आरक्षण पूर्व में कभी नहीं था। आरक्षण विरोधी बताएं कि तब देश गुलाम क्यों हुआ? इतनी बड़ी आबादी को अलग-थलग रखकर दुश्मन का मुकाबला कठिन तो था ही कृषि, उद्योग एवं कारोबार पर भी असर पड़ा। जब इनके पास क्रयशक्ति नहीं थी तो अर्थव्यवस्था को तो कमजोर होना ही था। समाज में खटास की वजह से सुख-शांति पर असर भी पड़ना था। यदि दलित-वंचित आबादी की सही भागीदारी हुई होती तो ये अप्रत्याशित नुकसान समाज का न हुआ होता। आरक्षण के बाद और पहले के भारत की तुलना की जाए तो पता लगेगा कि बाद वाला कहीं अच्छा है और उसमें आरक्षण का योगदान बहुत है।
जो लोग योग्यता और दक्षता की बात करते हैं उन्हें हाल में हुए एक व्यापक अध्ययनके निष्कर्ष को जान लेना चाहिए। दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के प्रो. अश्विनी देशपांडे एवं मिशिगन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक प्रो. थामस विसकॉफ ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को आरक्षण देने के कारण भारतीय रेलवे में 1980 एवं 2002 की अवधि का अध्ययन किया। यह रिपोर्ट वल्र्ड डेवलपमेंट जर्नल में भी छपी। भारतीय रेलवे पूरे विश्व में सबसे अधिक नौकरी देने वाला निकाय है, जहां पर आरक्षण लागू है। रेलवे में ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक में लगभग 13 से 14 लाख लोग काम करते हैं। 15 प्रतिशत अनुसूचित जातियों एवं 7.5 प्रतिशत जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसके अलावा पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता है। इस अध्ययन ने पाया कि ग्रुप ए एवं ग्रुप बी के अधिकारी आरक्षण के कारण ही इन पदों पर पहुंच सके हैं। प्रो. देशपांडे एवं प्रो. विसकॉफ ने उन जोनों की तुलना की जिनमें सबसे अधिक और सबसे कम दलित कर्मचारी कार्यरत थे। उन्होंने पाया कि दोनों जोनों में कार्यक्षमता और उत्पादकता में कोई अंतर नहीं है, उल्टे उन्होंने पाया कि कुछ जोन जिनमें दलित कर्मचारी ज्यादा थे, वहां उत्पादकता अधिक बढ़ी। आरक्षण के बावजूद प्रमुख स्थानों पर अनारक्षित वर्ग के ही लोग बैठे हैं। लगभग सभी विश्वविद्यालय, आइआइटी एवं उच्च संस्थानों में प्रोफेसर या अहम पदों पर अनारक्षित लोग ही बैठे हैं तो हमारे देश में शोध और तकनीकी विकास क्यों नहीं हो पाया? 1000 शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को लगातार तीसरे साल पहले पायदान पर रखा गया है। भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी शीर्ष 300 में भी शामिल नहीं है। उच्च न्यायपालिका में दलित व पिछड़े नहीं के बराबर हैं, फिर क्यों मुकदमों में विलंब और भ्रष्टाचार की बात उठती है। हाल में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने यह टिप्पणी की कि उच्च न्यायपालिका में पचास प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। यही बात वरिष्ठ अधिवक्ता शांतिभूषण भी कह चुके हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह का यह कथन महत्वपूर्ण है कि 94 प्रतिशत मृत्युदंड दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को ही दिया जाता है। भारत सरकार में लगभग 150 सचिव हैं। इनमें एक या दो को छोड़कर सारे अनारक्षित वर्ग से हैं तो क्यों विभागों में शिथिलता, भ्रष्टाचार और पक्षपात है? क्या इन सब चीजों के लिए आरक्षण जिम्मेदार है?
गुजरात में पटेल समाज के जो नौजवान आंदोलन कर रहे हैं उनका आक्रोश है कि तमाम उन्नति के बावजूद अन्य लोगों से वे पीछे रह गए हैं। दुनिया की कोई भी जाति हो उसमें शत-प्रतिशत संपन्न नहीं होते। इसका एक कारण सरकारी नौकरी का आकर्षण है। यदि आरक्षण समाप्त भी कर दिया जाए तो अनारक्षित वर्ग के लोगों की पांच प्रतिशत भी बेरोजगारी दूर नहीं हो सकेगी। अगर सारी सरकारी एजेंसियों के आंकड़े इकट्ठे कर लिए जाएं तो ज्यादा से ज्यादा दो-तीन या अधिकतम चार लाख हो सकते हैं। यदि इसमें से आधी भी नौकरियां आरक्षित वर्ग को दे दी जाएं तो कितना बचता है, जिससे सवर्णो की बेरोजगारी दूर होगी। शायद पांच प्रतिशत को भी न तो रोजगार और न ही शिक्षण संस्थानों में लाभ मिल पाएगा। इस तरह से आरक्षण विरोधी आंदोलन समाज और देश विरोधी है। किसी भी दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो पाएंगे कि आरक्षण से देश और समाज को लाभ ही है, नुकसान किसी तरह से नहीं है।
सौजन्य:- दैनिक जागरण ,31.10.2015, उदित राज (भाजपा के लोकसभा सदस्य और एससी-एसटी संगठनों के महासंघ के अध्यक्ष हैं)

कठिन नही है शुद्ध हिन्दी-भाग-38

कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 38
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'को' एक विभक्ति चिन्ह है, जिसका प्रयोग मुख्य रूप से कर्म (ऑब्जेक्ट) के साथ किया जाता है। अन्य कई जगहों पर 'को' का प्रयोग होता है। कई बार कर्म के होने के बावजूद 'को' चिन्ह नहीं भी रहता है। कर्म की पहचान के लिए 'किसे', 'क्या' और 'किसको' जैसे प्रश्न किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'युद्ध ने हमें तबाह कर दिया' में 'किसे' का जवाब 'हमें' है, इसलिए यह कर्म है।
'राजू ने श्यामल को पीटा', 'माँ बच्चे को पढ़ाती है' जैसे वाक्यों में कर्म के बाद 'को' का प्रयोग होता है, लेकिन छोटी चीज़ों और निर्जीवों के बाद 'को' चिन्ह का लोप हो जाता है, जैसे 'वह नाटक देखता है', 'सीता भात खाती है' आदि।
समय की सूचना देने में 'को' का प्रयोग होता है, जैसे 'रविवार को आना', 'शाम को', '23 तारीख को', '15 अगस्त को' आदि। ध्यान रहे कि 'सुबह को', '4 बजे को आना' जैसे प्रयोग अच्छे नहीं हैं। इनकी जगह '4 बजे आना', 'कल सुबह आना', 'यह कार्यक्रम कल होगा' आदि लिखना और बोलना चाहिए।
आदेश, अधिकार, आदर, कामना आदि के वाक्यों में भी 'को' का प्रयोग होता है, जैसे 'नौकर को बुलाओ', 'बच्चे को खेलने दो', 'हरिप्रसाद सिंह को फाँसी दी जाय', 'खुदा आपको सलामत रखे', 'बड़ों को आदर दो', 'छोटों को प्यार करो'आदि।
'धोबी को कपड़े दो', 'छात्रों को किताबें दे दीजिए' जैसे देने के (दान) अर्थ वाले वाक्यों में भी 'को' का प्रयोग होता है।
किसको, जिसको, उसको, इसको, सबको, उनको, तुमको, आपको, मुझको, किनको उनको, जिनको, तुझको आदि में 'को' लगा रहता है। बिना 'को' वाले ऐसे ही शब्द मुझे, हमें, तुझे, तुम्हें, उसे, उन्हें, इसे, इन्हें, जिसे, जिन्हें, किसे, किन्हें आदि हैं।
चाहिए, छलना, पचना, पढ़ना, लगना, भाना, मिलना, रुकना, सूझना, शोभना, होना, बुलाना, सुलाना, कोसना, पुकारना, जगाना, भगाना आदि क्रियाओं के साथ 'को' का प्रयोग होता है; जैसे 'उसको पढ़ना चाहिए', 'तुमको जो रुचे, खा लेना', 'आपको कुछ सूझ ही नहीं रहा', 'पिता ने पुत्र को पुकारा', 'चोरों को भगाया गया', 'सुषमा ने ममता को जी भर कोसा', 'मैंने हरि को बुलाया', 'चाचा ने तपन को जगाया', 'यह व्यवहार आपको शोभा नहीं देता', 'रोहन को वह घड़ी भा गई है', 'उसको घी नहीं पचता है', 'आपको क्या लगता है' आदि।
'रमा को लड़का हुआ है', 'उसको चार लड़कियाँ हैं', 'तुमको मूँछें हैं' जैसे वाक्यों में 'को' का प्रयोग अनुचित है। इनमें 'रमा को लड़का हुआ है' जैसे वाक्य प्रायः बोले जाते हैं। सही रूप 'रमा के लड़का हुआ है', 'उसके चार लड़कियाँ हैं', 'उसके मूँछें हैं' आदि हैं। 'उसकी चार लड़कियाँ हैं' के स्थान पर 'उसके चार लड़कियाँ हैं' का प्रयोग होना चाहिए।
'मारना' क्रिया का अर्थ जब 'पीटना' हो, तब कर्म के साथ 'को' लगता है और जब इसका अर्थ 'शिकार करना' या 'हत्या करना' हो, तब 'को' नहीं लगता; जैसे 'उसने बैल को मारा' और 'लोगों ने चोरों को मारा' में बैल या चोर की पिटाई हुई है, हत्या नहीं। 'उसने बाघ मारा' और 'तुमने बीस मछलियाँ मार दीं' में बाघ और मछलियों को जान से मारा गया है।
कर्म के बाद 'को' लगा हो, तो क्रिया हमेशा पुलिंग होती है; जैसे 'राम ने रोटी को खाया'। हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि कुछ वाक्यों में कर्म के अनुसार ही क्रिया का लिंग तय होता है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कर्म के साथ 'को' चिन्ह लगा हो, तो क्रिया कर्म के लिंग पर निर्भर नहीं रहती।
'को' के अनावश्यक प्रयोग के कुछ उदाहरण 'सब्जी को खूब पकी हुई होनी चाहिए', 'उनकी बात को मान लो', 'वह अपनी हार को स्वीकार करता है', 'मैं पुस्तक को पढ़ता हूँ' आदि हैं। इनमें 'को' का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
'उसने राम को कहा', 'श्याम को परीक्षा देने की इच्छा थी', 'मैं वहाँ कुछ गणितज्ञों को मिला था', 'मनीष आपको कुछ कहना चाहता था' आदि वाक्यों में 'को' का प्रयोग अनुचित है। इनके सही रूप 'उसने राम से कहा', 'श्याम की परीक्षा देने की इच्छा थी', 'मैं वहाँ कुछ गणितज्ञों से मिला था', 'मनीष आपसे कुछ कहना चाहता था', 'मनीष आपको कुछ बताना चाहता था' आदि हैं।
'को' का प्रयोग नमस्कार, प्रणाम, सलाम, अभिवादन आदि के साथ भी होता है, जैसे 'आपको प्रणाम', 'शिव को नमस्कार है', 'सैनिकों को सलाम' आदि। जिन्हें आदर से प्रणाम या नमस्कार किया जाता है, उनके साथ 'को' लगाया गया है।
'वह तो मरने ही वाला है' के लिए 'वह तो मरने को है' का प्रयोग भी कई बार हम देखते हैं। हिन्दी में कई प्रकार के वाक्य अंग्रेज़ी के आधार पर बना लिए गए हैं। 'मैं जाने को हूँ' इसी का उदाहरण जान पड़ता है। 'वह रोने रोने को है', 'बच्चे को रोना आ गया', 'बुराई को अच्छाई से खत्म किया जा सकता है' जैसे वाक्य 'को' के प्रयोग के कुछ और उदाहरण हैं। कई बार 'के लिए' के लिए भी 'को' का प्रयोग होता है, जैसे 'बहुजन समाज पार्टी को अपना मत दें', 'विद्यालय को दान दें' आदि। भोजपुरी में 'के' से ही 'को' का काम चलाया जाता है।
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कठिन नही है शुद्ध हिन्दी -भाग-37

कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 37
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इस भाग में हम विभक्ति चिन्ह 'ने' पर बात करेंगे। हिन्दी में कर्ता के साथ ने चिन्ह का प्रयोग होता है और नहीं भी होता है। 'मैंने किताब पढ़ी', 'तुमने उसे देखा है!', 'राम ने रोटी खाई होगी', 'तुमने पुस्तक पढ़ी होती, तो ऐसी बातें न करते' और 'सोहन ने कलम खरीदी थी', इन पाँच प्रकार के वाक्यों में कर्ता के साथ ने चिन्ह का प्रयोग होता है; अन्य में नहीं, चाहे वाक्य किसी भी काल का हो! इन्हीं पाँच तरह के वाक्यों में क्रिया कर्म के अनुसार लिंग और वचन धारण करती है, जैसे 'राम ने किताब पढ़ी', 'राम ने किताब पढ़ी है', 'राम ने किताब पढ़ी थी', 'राम ने किताब पढ़ी होगी', 'राम ने उपन्यास पढ़ा होता, तो वह समझ जाता'। पीछे ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिए जा चुके हैं। व्याकरण में इन पाँच प्रकार के वाक्यों के लिए काल के अलग अलग नाम (प्रकार) मिलते हैं। यहाँ हम उनसे बचना चाहते हैं। 'राम ने जाता है', 'उसने जाएगा', 'गौतम ने पढ़ रहा है', 'रौशनी ने खा रही थी', 'किशोर ने जाएगा', 'उसने गया हो', 'राम ने खाता होगा', 'सतीश ने जा चुका है', 'कामिनी ने किताब लिख चुकी है', 'तुमने जा चुके थे', 'उसने आए, तो मैं जाऊँ!' आदि में 'ने' का प्रयोग नहीं होता। जब सकर्मक क्रिया हो, तभी ऊपर वाले वाक्यों में 'ने' लगेगा। 'मैंने रोया', 'हम किताब पढ़ी', 'मैंंने गया था', 'वह पुस्तक पढ़ा होगा', 'वह पुस्तक पढ़ा था', 'सीता रोटी बनाई', 'तुम किताब पढ़ी', 'मैं कलम खरीदा' जैसे वाक्य अशुद्ध हैं। ऐसे वाक्यों का 'ने' का उचित प्रयोग नहीं हुआ है।
नहाना, छींकना, थूकना, खाँसना जैसी अकर्मक क्रियाओं के साथ भी 'ने' का प्रयोग होता है; जैसे 'आपने नहाया', 'मैंने छींका', 'तुमने खाँसा', 'किशोर ने थूका' आदि में ने का प्रयोग हुआ है।
कई बार अकर्मक क्रिया सकर्मक बन जाती है, तब ऊपर बताई पाँच स्थितियों में ने का प्रयोग होता है, जैसे 'उसने लड़ाई लड़ी', 'तुमने टेढ़ी चाल चली' आदि।
खा जाना, दे देना, खा लेना आदि संयुक्त क्रिया के उदाहरण हैं। इनमें दो क्रियाएँ मिलकर क्रिया बनाती हैं। जब वाक्य ऊपर के पाँच प्रकार के वाक्यों में से हो और उसमें संयुक्त क्रिया हो, तो ने का प्रयोग होता है। 'मैंने खा लिया', 'उसने खा लिया है', 'सुधीर ने नहा लिया होगा', 'कुमार ने बाघ को मार दिया था' आदि इसके उदाहरण हैं। चुकना वाले वाक्यों पर यह बात लागू नहीं होती। 'मैंने खा चुका हूँ', 'उसने जा चुका था', 'तुमने खा चुके होगे' जैसे वाक्य अशुद्ध हैं।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ भी ऊपर वाले पाँच तरह के वाक्यों में ने का प्रयोग होता है, जैसे 'मैंने पढ़ाया', 'तुमने सड़क बनवाई है?', 'राम ने पतंग उड़ाई थी' आदि।
बोलना, भूँकना, बकना, भूलना, लाना आदि क्रियाओं के साथ ने चिन्ह का प्रयोग नहीं होता। 'उसने बोला', 'मैंने भूला', 'राम ने बहुत बका' आदि में ने का प्रयोग किया गया है, जो ठीक नहीं है। 'मैं भूला', 'राम बहुत बका', 'मैं बोला' जैसे प्रयोग सही हैं। 'बोलना' क्रिया के साथ यदि 'बोली' कर्म के रूप में आए, तो 'ने का प्रयोग होता है, जैसे 'उसने बोलियाँ बोलीं' में ने का प्रयोग हुआ है।
संयुक्त क्रिया का अन्तिम खण्ड अकर्मक होने पर ने का प्रयोग नहीं होता। 'मैं खा चुकूँगा', 'वह पुस्तक ले आया', 'उसे रेडियो ले जाना है' जैसे वाक्य इसके लिए देखे जा सकते हैं।
लगना, जाना, सकना, चुकना आदि सहायक क्रियाओं के साथ ने का प्रयोग नहीं होता है। 'वह खा चुका', 'मैं पानी पीने लगा', 'वह नहीं खा सका' आदि इसके उदाहरण हैं। 'तुमने उधार चुका दिया' में 'चुकना' मुख्य क्रिया है, सहायक नहीं, इसलिए ने का प्रयोग हुआ है। सहायक क्रिया मुख्य क्रिया की सहायता करती है, जैसे 'उसे बाघ ने मार डाला' में 'मारना' मुख्य क्रिया है और 'डालना' सहायक क्रिया, लेकिन 'जेब में पैसे डालो' में 'डालना' मुख्य क्रिया है।
गुजराती और पंजाबी के प्रभाव में 'मैंने खाना है', 'राम ने बम्बई जाना है', 'किसने पढ़ना है' जैसे वाक्य बोलना हिन्दी में सही नहीं माना जा सकता। 'मुझे खाना है', 'राम को बम्बई जाना है' जैसे वाक्य सही हैं।
भविष्यकाल के वाक्यों में कहीं भी ने का प्रयोग नहीं किया जाता।
'उसे गाने का रियाज किया', 'क्या आप भोजन कर लिया?', 'मैं समझा कि वह अच्छा आदमी है', 'हमने चले जाना चाहिए', 'मैं उसे पहचाना नहीं' आदि के स्थान पर 'उसने गाने का रियाज किया', 'क्या आपने भोजन कर लिया?', 'मैंने समझा कि वह अच्छा आदमी है', हमें चले जाना चाहिए', 'मैंने उसे पहचाना नहीं' जैसे वाक्य लिखने और बोलने चाहिए, क्योंकि पहले वाले रूप अशुद्ध हैं।
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