आरक्षण को लोग बेरोजगारी के उन्मूलन का हथियार समझते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। सभी सरकारें पूरे साल सैकड़ों योजनाएं चलाकर गरीबी उन्मूलन और रोजगार के लिए सतत प्रयत्न करती रहती हैं। सरकार में नौकरियां जितनी हैं उससे पांच प्रतिशत भी बेरोजगारी खत्म नहीं होने वाली। आरक्षण मूल रूप से प्रतिनिधित्व के उद्देश्य की पूर्ति करता है। समय-समय पर विवाद पैदा होता रहता है कि आरक्षण सामाजिक आधार पर हो या आर्थिक आधार पर? आर्थिक आधार के पक्ष में तर्क देने वाले सोचते हैं कि आरक्षण गरीबी और बेरोजगारी दूर करने का हथियार है, जो एक भ्रम है। जो बेरोजगार हैं उन्हें लगता है कि आरक्षण की वजह से ऐसी स्थिति में हैं। जातीय पूर्वाग्रह तो एक कारण है ही। अगर आरक्षण समाज और देशहित में नहीं है तो इसे खत्म हो जाना चाहिए, यदि है तो विवाद किस बात का?
आजाद भारत के पहले परिस्थितियां भिन्न रहीं। बहुत लोगों की चिंता राजनीतिक आजादी की रही तो कुछ की चिंता समाज में मान-सम्मान की रही है। देश में ऐसी सोच रखने वालों में से एक अंबेडकर भी रहे। उन्हें तथा उनके समर्थकों को लगा कि आजाद भारत में हमारी दशा क्या होगी। उस समय शासक अंग्रेज थे, जातीय भेदभाव और सोच से वे परिचित नहीं थे। तब दलितों और आदिवासियों की भागीदारी हर क्षेत्र में नगण्य थी। जब साइमन कमीशन भारत की समस्याओं पर अध्ययन करने आया तो यहां के दलितों को मौका मिला कि वे अपनी बात को रखें। परिणाम यह हुआ कि लंदन की गोलमेज सभा में बात उठी और 1932 में गांधीजी और अंबेडकर के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। कुछ लोगों का सोचना है कि इससे हंिदूू समाज की एकता बरकरार रह सकी वरना यह टूट भी सकती थी, क्योंकि दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार ब्रिटिश हुकूमत ने मंजूर कर लिया था। 1शासन-प्रशासन में दलितों व आदिवासियों को आरक्षण पूर्व में कभी नहीं था। आरक्षण विरोधी बताएं कि तब देश गुलाम क्यों हुआ? इतनी बड़ी आबादी को अलग-थलग रखकर दुश्मन का मुकाबला कठिन तो था ही कृषि, उद्योग एवं कारोबार पर भी असर पड़ा। जब इनके पास क्रयशक्ति नहीं थी तो अर्थव्यवस्था को तो कमजोर होना ही था। समाज में खटास की वजह से सुख-शांति पर असर भी पड़ना था। यदि दलित-वंचित आबादी की सही भागीदारी हुई होती तो ये अप्रत्याशित नुकसान समाज का न हुआ होता। आरक्षण के बाद और पहले के भारत की तुलना की जाए तो पता लगेगा कि बाद वाला कहीं अच्छा है और उसमें आरक्षण का योगदान बहुत है।
जो लोग योग्यता और दक्षता की बात करते हैं उन्हें हाल में हुए एक व्यापक अध्ययनके निष्कर्ष को जान लेना चाहिए। दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के प्रो. अश्विनी देशपांडे एवं मिशिगन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक प्रो. थामस विसकॉफ ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को आरक्षण देने के कारण भारतीय रेलवे में 1980 एवं 2002 की अवधि का अध्ययन किया। यह रिपोर्ट वल्र्ड डेवलपमेंट जर्नल में भी छपी। भारतीय रेलवे पूरे विश्व में सबसे अधिक नौकरी देने वाला निकाय है, जहां पर आरक्षण लागू है। रेलवे में ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक में लगभग 13 से 14 लाख लोग काम करते हैं। 15 प्रतिशत अनुसूचित जातियों एवं 7.5 प्रतिशत जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसके अलावा पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता है। इस अध्ययन ने पाया कि ग्रुप ए एवं ग्रुप बी के अधिकारी आरक्षण के कारण ही इन पदों पर पहुंच सके हैं। प्रो. देशपांडे एवं प्रो. विसकॉफ ने उन जोनों की तुलना की जिनमें सबसे अधिक और सबसे कम दलित कर्मचारी कार्यरत थे। उन्होंने पाया कि दोनों जोनों में कार्यक्षमता और उत्पादकता में कोई अंतर नहीं है, उल्टे उन्होंने पाया कि कुछ जोन जिनमें दलित कर्मचारी ज्यादा थे, वहां उत्पादकता अधिक बढ़ी। आरक्षण के बावजूद प्रमुख स्थानों पर अनारक्षित वर्ग के ही लोग बैठे हैं। लगभग सभी विश्वविद्यालय, आइआइटी एवं उच्च संस्थानों में प्रोफेसर या अहम पदों पर अनारक्षित लोग ही बैठे हैं तो हमारे देश में शोध और तकनीकी विकास क्यों नहीं हो पाया? 1000 शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को लगातार तीसरे साल पहले पायदान पर रखा गया है। भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी शीर्ष 300 में भी शामिल नहीं है। उच्च न्यायपालिका में दलित व पिछड़े नहीं के बराबर हैं, फिर क्यों मुकदमों में विलंब और भ्रष्टाचार की बात उठती है। हाल में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने यह टिप्पणी की कि उच्च न्यायपालिका में पचास प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। यही बात वरिष्ठ अधिवक्ता शांतिभूषण भी कह चुके हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह का यह कथन महत्वपूर्ण है कि 94 प्रतिशत मृत्युदंड दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को ही दिया जाता है। भारत सरकार में लगभग 150 सचिव हैं। इनमें एक या दो को छोड़कर सारे अनारक्षित वर्ग से हैं तो क्यों विभागों में शिथिलता, भ्रष्टाचार और पक्षपात है? क्या इन सब चीजों के लिए आरक्षण जिम्मेदार है?
गुजरात में पटेल समाज के जो नौजवान आंदोलन कर रहे हैं उनका आक्रोश है कि तमाम उन्नति के बावजूद अन्य लोगों से वे पीछे रह गए हैं। दुनिया की कोई भी जाति हो उसमें शत-प्रतिशत संपन्न नहीं होते। इसका एक कारण सरकारी नौकरी का आकर्षण है। यदि आरक्षण समाप्त भी कर दिया जाए तो अनारक्षित वर्ग के लोगों की पांच प्रतिशत भी बेरोजगारी दूर नहीं हो सकेगी। अगर सारी सरकारी एजेंसियों के आंकड़े इकट्ठे कर लिए जाएं तो ज्यादा से ज्यादा दो-तीन या अधिकतम चार लाख हो सकते हैं। यदि इसमें से आधी भी नौकरियां आरक्षित वर्ग को दे दी जाएं तो कितना बचता है, जिससे सवर्णो की बेरोजगारी दूर होगी। शायद पांच प्रतिशत को भी न तो रोजगार और न ही शिक्षण संस्थानों में लाभ मिल पाएगा। इस तरह से आरक्षण विरोधी आंदोलन समाज और देश विरोधी है। किसी भी दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो पाएंगे कि आरक्षण से देश और समाज को लाभ ही है, नुकसान किसी तरह से नहीं है।
सौजन्य:- दैनिक जागरण ,31.10.2015, उदित राज (भाजपा के लोकसभा सदस्य और एससी-एसटी संगठनों के महासंघ के अध्यक्ष हैं)
सौजन्य:- दैनिक जागरण ,31.10.2015, उदित राज (भाजपा के लोकसभा सदस्य और एससी-एसटी संगठनों के महासंघ के अध्यक्ष हैं)
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