गुरुवार, 6 अगस्त 2015

गीता प्रेम

भारत की राष्ट्रीय पुस्तक क्या हो?
समय-समय पर भारतीय गौरव की चर्चा में इन देश के
साहित्य की भी होती है । अंग्रेजो ने देश को दास
बनाने के लिए यहाँ के गौरव को नष्ट किया है, ऐसे
समय में किसी गौरव पूर्ण बात की चर्चा अच्छी
लगती है । प्रधानमंत्री मोदी ने जापान जाकर वहाँ
के प्रधानमंत्री को गीता की पुस्तक भेंट की तो
गीता पर फिर से चर्चा चलने लगी । लोगों ने गीता
के महत्व को रेखांकित करने के लिए गीता को
राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की माँग कर दी, विदेश
मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने कार्यक्रम में कह दिया,
सरकार तो गीता को राष्ट्र ग्रन्थ मानती है, बस
केवल घोषणा करनी शेष है ?विदेश मंत्री के कथन से
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के पेट में दर्द होना
स्वाभाविक था । गीता का विरोध प्रारम्भ हो
गया । कहा जाने लगा यह देश विभिन्न धर्मों का
देश है, किसी एक पुस्तक को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित
नहीं किया जा सकता, इस वाद-विवाद में राष्ट्र
ग्रन्थ घोषित करने की बात दब गई ।
हमारे देश में किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी को महत्व
देने के लिये व्यक्ति, वस्तु आदि को राष्ट्रीय गौरव
प्रदान करके राष्ट्र पंडित, राष्ट्र कवि, राष्ट्रीय
पक्षी, राष्ट्रीय चिन्ह, आदि घोषित करते हैं । इस
प्रकार देशवासियों के मन में इन का सम्मान बढ़ाते
हैं,उनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार भी कर देते हैं।
इसी क्रम में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की माँग
उठती है । प्रथम तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि
गीता को धर्म पुस्तक का स्थान दिया गया है ।
न्यायालय में गीता पर हाथ रखकर शपथ दिलाई
जाती है । इसी प्रकार कुरान और बाईबिल की
पुस्तक पर हाथ रखकर भी शपथ दिलाई जाती है,
शपथ लेने के लिये व्यक्तिगत विश्वास को काम में
लिया जाता है । जो लोग नानाधर्मी का देश
बताकर गीता का विरोध करते हैं, वे या तो
पक्षपाती हैं, उनमें स्वाधीनता और दासता का बोध
नहीं है । देश में क्या कुरान को धर्म ग्रन्थ बनाया
जा सकता है ? हाँ, बनाया जा सकता है जिस दिन
इस देश की सत्ता इस्लाम स्वीकार कर ले । यही
परिस्थिति बाईबिल की भी हो सकती है । यदि
कभी ऐसा हो भी जाये तो क्या इससे इस देश का
गौरव बढेगा ? गौरव तो नहीं बढेगा किन्तु दासता
का इतिहास बढ़ेगा । यदि यह देश ईसाई बहुल बन
जाय तो निश्चित रूप से यहाँ का धर्म ग्रन्थ
बाईबिल हो जायेगा । अमेरिका में सभी को अपना
धर्म ग्रन्थ मानने की स्वतन्त्रता है परन्तु बाईबिल
सर्वोपरि है ।
धर्मग्रन्थ को राष्ट्रीय महत्व देने के पिछे देश के
गौरव को प्रदर्शित करने का विचार रहता है ।
गीता इस देश के इतिहास और परम्परा के प्रतिक के
रूप में स्वीकार की जाती है । इसका कर्म करने, फल
में आशक्त न होने का विचार किसी भी बुद्धिमान
व्यक्ति को आकर्षित कर सकता है । वर्तमान में
देशी-विदेशी विद्वानों में इसके प्रति रूची रही है ।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नायक लोकमान्य
तिलक ने गीता रहस्य लिखकर गीता को समाज का
मार्गदर्शक बनाया । महात्मा गाँधी ने भी उसे
प्रेरणा का स्रोत बताया । विदेशी विद्वानों में
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन को गीता का
प्रेमी बताया जाता है, ऐसे में गीता की बात को
साम्प्रदायिकता से या धर्म निरपेक्षता से जोड़कर
देखना दास मानसिकता के अतिरिक्त और क्या हो
सकता है । यह विरोध प्रथम तो हिन्दू विरोध को
प्रगतिशीलता मानने वालों की मानसिकता है,
दूसरा विरोध का कारण अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की
प्रवृति है। यह दोनों ही बातें बुद्धि और औचित्य से
रहित हैं,अत: निन्दनीय हैं।
यहीं एक और बात पर भी विचार करना उचित
होगा क्या गीता भारतीय ज्ञान परम्परा का
सर्वोत्कृष्ट और सर्वोच्च ग्रन्थ है ? क्या और भी
ग्रन्थ है । इसपे विचार करते हुए विचारणीय प्रश्नों में
पहला प्रश्न है-क्या गीता कोई ग्रन्थ है ? क्या
गीता श्री कृष्ण की रचना है ? पहली बात गीता
कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । गीता महाभारत के एक
छोटे से भाग का नाम है । महाभारत में अनेक गीता
विद्यमान हैं,हिन्दू समाज में कृष्णार्जुन संवाद को
प्रमुख स्थान मिला है, अत: समाज में इसका प्रचार-
प्रसार बहुत हुआ । वर्तमान में गीता प्रेस जैसे संस्थान
में गीता के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया है
।पठन-पाठन की परम्परा में भी इसे पाठ्यक्रम में
स्थान मिला । हिन्दी में रामचरित मानव जैसे ग्रन्थ
धर्मग्रन्थ के रूप में प्रचलित हैं, उसी प्रकार उससे पूर्व
से गीता का हिन्दू समाज में धर्म ग्रन्थ के रूप में
प्रचार-प्रसार चला आ रहा है । गीता के सम्बंध में
जानने योग्य तथ्य है, गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं
है, न ही इसके रचियता श्री कृष्ण, महाभारत काल में
युद्ध समय दिये गये उपदेश को महाभारत की रचना
करने वाले ने संकलित कर दिया है । जिस प्रकार
महाभारत में प्रक्षेप या मिलावट है उसी प्रकार
उसी अनुपात में गीता में भी प्रक्षेप मिलावट है ।
गीता के श्लोकों की संख्या भी कम अधिक देखने में
आती है । बाली द्वीप में प्राप्त गीता में केवल
अस्सी श्लोक प्राप्त होते हैं जबकि वर्तमान
गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित गीता में सात सौ
श्लोक मिलते हैं । इनके भाष्यकार बहुत हुए और
इन्होंने बहुत तरह से अर्थ किये हैं परन्तु गीता का
महत्व पुरूषार्थ करने की प्रेरणा है । गीता को आज
वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता है । वेदान्त
पर व्याख्यान करने वाले, वेदान्त पढ़ने-पढ़ाने वाले,
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता को मिलाकर
प्रस्थानत्रयी कहते हैं और तीनों में वेदान्त की
पूर्णता मानते हैं । वेदान्त के इन तीन ग्रन्थों में सबसे
प्राचीन उपनिषद् है फिर इनके व्याख्यान रूप में
ब्रह्मसूत्र है और उसके भी बाद गीता का स्थान है ।
जो लोग गीता का महत्व पढ़ते हैं, उनमें एक श्लोक
पढ़ा जाता है- सर्वोपनिषद: गावो- जिसका अर्थ
है- सब अर्थात् उपनिषद् गौवें हैं, श्री कृष्ण गोपाल है,
अर्जून वत्स अर्थात् बछड़ा है और उनका दूध गीतामृत
है । इस क्रम में गीता का स्थान तीसरा, वेदान्त का
मूल उपनिषद् है, वेदान्त का मूल उपनिषद् है, ब्रह्मसूत्र
गीता उसका व्याख्यान है । मूल से कभी व्याख्यान
महत्वपूर्ण हो सकता है परन्तु यहाँ उपनिषदों का
महत्व कम नहीं है, संस्कृत के पठन-पाठन की न्यूनता
से उनका प्रचार-प्रसार गीता की अपेक्षा कम है।
गीता में और उपनिषदों में एक समानता है,वह यह की
गीता भी स्वतन्त्र रचना नहीं है और सभी उपनिषद्
भी स्वतन्त्र पुस्तकों के रूप में किसी के द्वारा नहीं
लिखी गई हैं। वैसे आज उपनिषद् ग्रन्थों की संख्या
सैकड़ों में है, परन्तु विद्वत समाज में दस ग्यारह
उपनिषद् ही स्वीकार्य हैं और सभी ग्रन्थ ब्रह्मण,
शाखा ग्रन्थ या वेद के भाग हैं इनमें ईशोपनिषद् का
सबसे अधिक महत्व है और वह इस कारण है कि
उपनिषद् के दो मंत्रों को छोड़ कर सभी मंत्र यजुर्वेद
के चालीसवें अध्याय के मंत्र हैं । इस प्रकार सारी
उपनिषदें वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में से
आत्मा और परमात्मा को लेकर लिखी गई चर्चा को
लेकर पृथक्-पृथक् पुस्तक के रूप में दिया गया है । इस
प्रकार उपनिषद्, वेदान्त शास्त्र की प्रमाणिक
पुस्तकें हैं । स्वाध्यायशील लोग भली प्रकार जानते
हैं कि उपनिषदों को वेदान्त नाम क्यों दिया गया
है- वेदान्त शब्द का अर्थ होता है वेद का रहस्य,वेद
का प्रयोजन, वेद क प्रयोजन जहाँ संसार में मनुष्य
को किस प्रकार जीवनयापन करना चाहिये यह
सिखाता है उसीप्रकार हमारे संसार में आने का और
मनुष्य जीवन पाने का परम प्रयोजन आत्मा और
परमात्मा का साक्षात्कार करना है । इस प्रयोजन
का नाम ही वेदान्त है । इस प्रयोजन की सिद्धि के
बिना-गीता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ या
वेद का कोई महत्व नहीं रहता ।
गीता की चर्चा करने वालों को ध्यान में रखना
चाहिये
गीता वेदान्त का ग्रन्थ है,वेदान्त ब्रह्मसूत्र का भी
नाम है, ब्रह्मसूत्र वेदों के संदेह स्थलों की और कठीन
शब्दों की व्याख्या करने वाली पुस्तक उपनिषदों के
मूल ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ है, जिन ग्रन्थों को तीन
भागों में बांटा गया है, सम्पूर्ण ग्रन्थ का नाम
ब्राह्मण ग्रन्थ है, उसी के एक भाग को आरण्यक कहते
हैं, इसी के एक भाग जिसमें आत्मा-परमात्मा की
चर्चा है, उसे उपनिषद् नाम से सम्बोधित किया
जाता है । जिन ब्राह्मण ग्रन्थों के भागों को
उपनिषद् कहते हैं, उन ग्रन्थों को ब्राह्मण इसलिए
कहते हैं क्योंकि ब्रह्म वेद को कहते हैं और वेद के
व्याख्यान को ब्राह्मण कहते हैं । वेद के व्याख्यान
होने के कारण इन्हीं को कहीं वेद भी कह दिया
गया है ।इस प्रकार गीता का मूल है वेदान्त, वेदान्त
का मूल है उपनिषद् ग्रन्थ, उपनिषदों का मूल है
ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मण ग्रन्थों के मूल है चार वेद
संहिता । इतने लम्बे-चौड़े वैदिक साहित्य में गीता
का स्थान कहाँ आता है और इसका कितना महत्व है
यह विचारशील लोगों के लिये समझना कठिन नहीं
है ।
हमारे गीता प्रेमी पौराणिक मित्रों का गीता
प्रेम आत्मा-परमात्मा का दर्शन को लेकर नहीं है ।
पौराणिक मित्रों के गीता प्रेम का मुख्य कारण
कृष्ण को अवतार और भगवान मानने के कारण है ।
यदि गीता के एक ही श्लोक को राष्ट्रीय वाक्य
बताने के लिए कहा जाये तो वे "यदा यदा हि..."
श्लोक को राष्ट्र का आदर्श वाक्य घोषित कर दें ।
इन मित्रों को गीता के पुरूषार्थ प्रेरणा से उतना
प्रेम नहीं है जितना गीता विश्वदर्शन प्रकरण से है वे
तो कृष्ण के बाल मुख में विश्वदर्शन से गद् गद् रहते हैं ।
उन्हें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्रधारी रूप उतना
आकर्षित नहीं करता जिताना राधा के साथ
बांसुरी बजाने वाला रूप अपनी ओर खींचता है । इन
मित्रों का मंत्र है-राधे-राधे बोल, चले आयेंगे
बिहारी । ऐसे प्रेमियों को कर्मण्येव.. अधिकार की
पंक्तियाँ कैसे आकर्षित कर सकती है।गीता
सम्मेलनों में गीता पर माला चढ़ा कर,उसके सामने
दीप जला कर अपनी श्रद्धा प्रकाशित करने वालों
के मन में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की इच्छा है
तो उसके श्री कृष्ण को भगवान सिद्ध करने वाले
प्रकरण से है । गीता की इन प्रक्षिप्त पंक्तियों को
निकाल कर गीता धर्म ग्रन्थ बनाने की चर्चा की
जाये तो सम्भवत: उन्हें रूचिकर न लगे । गीता में
स्त्रियों को, वैश्यों को अन्त्य=निम्न योनियों में
गिनने वाली पंक्तियाँ भी गीता पंक्तियाँ ही
लगेंगी या तुलसी की ढ़ोल, गंवार, शूद्र, नारी की
ग्राह्य व्याख्या करने के प्रयत्न यहाँ भी व्याख्या
में लगा लेंगे ।
गीता की प्रशंसा और उपयोगिता में कोई बात है
तो वह है जिस अर्जून ने शस्त्र छोड़कर युद्ध करने से
इन्कार कर दिया था । ऐसे अर्जून को पुन:युद्ध के
लिये तैयार कर दिया था । गीता के प्रारम्भ के छ:
अध्याय और अंत के छ: अध्यायों में उपदेश और दर्शन
की बातें कही गई हैं, परन्तु मध्य में अवतारवाद और
व्यर्थ की बातों की भरमार है । गीता जिस प्रकार
वेदान्त की व्याख्या उसके अनुसार गीता का मूल
स्वर है बिना किसी भय और पक्षपात के अपने
कर्त्तव्य का पालन करना । मनुष्य जीवन समाप्ति
के भय से, संघर्ष करने से पिछे हट जाता है तथा
पक्षपात के भाव से कर्त्तव्य की उपेक्षा करता है ।
श्री कृष्ण ने गीता में-न योत्स्य मैं नहीं लडूँगा, कहने
वाले अर्जून को-करिष्ये वचनत्व- जो तु कहेगा वह सब
करने के लिए तैयार हूँ-यहाँ तक पहुँचा दिया यही
और इतना ही गीता है । गीता के सात सौ श्लोक
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मात्र दूसरे मंत्र की
व्याख्या है । इस मंत्र में कहा गया है, मनुष्य को इस
संसार में आकर सदा कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा
करनी चाहिये । इस कर्म करने की शर्त है कर्म करना
है परन्तु उसके बंधन में नहीं पड़ना है, बंधन का कारण
है- फल की इच्छा करना । इच्छा ही बंधन का मूल है
। यदि इच्छा रहित कर्म किया जाय तो बंधन से
मनुष्य बच सकता है इसे ही शास्त्र की भाषा में
कर्त्तव्य कहा गया है । कर्त्तव्य करने में भय और
पक्षपात नहीं होते, इसे ही गीता की भाषा में
अनासक्त कर्म कहा है, आसक्ति का अर्थ है फंसना,
न फंसना है अनास्क्ति, यही वेद कहता है जिसकी
व्याख्या गीता में भी है, अब आपको सोचना है
आपका राष्ट्र ग्रन्थ क्या हो ? वेद का मंत्र है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोअ्स्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

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