मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

संत रविदास के विचार

गुरु रविदास का आन्दोलन भक्ति आन्दोलन नहीं , बल्कि मूलनिवासियो के लिए ब्राहमण-वाद से मुक्ति आन्दोलन था:-

जिसे भक्ति आन्दोलन कहा जाता है, वह एक तरह से समय के साथ ब्राहमण-वाद के विरुद्ध विद्रोह था जिसको गुरु रविदास, संत कवीर दास जी, गुरुनानक जी जैसे क्रांतिकारी संतो और गुरुओ ने अपने अपने-अपने से तरीके से चलाया था. असल में बह बुदधा के ही आन्दोलन का प्रतिरूप था, जिसे भक्ति आन्दोलन की ज्ञानाश्रयी शाखा बोल कर हिन्दुइस्म के साथ जोड़ दिया गया है। जबकि इनके विचार हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था, कर्म कांड, बहुदेव वाद, छूआछूत, मूर्ति पुजा, तीर्थ वर्त, साकार ईश्वर इत्यादि के बिरुद्ध है और इन संतो और गुरुओ का उद्देश्य ब्राहमण-वाद के विरुद्ध विद्रोह कर ब्राहमण-वाद की मानासिक, रूप से गुलाम बनाई गयी मूलनिवासी जनता को मुक्ति दिलाने का था। कई विद्वानो का मानना है आचार्य रामचंद्रा शुक्ल ने कबीर और रविदास का मूल्यांकन ठीक से नही किया और इनके स्थान पर तुलसी दास को महिमामंडित किया।

आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही हैं जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी रैदास उच्च-कोटि के ज्ञानाश्रयी संत थे। उन्होंने समता और सदाचार, मन शुद्धि पर बहुत बल दिया। सत्य को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना ही उनका ध्येय था। उनका सत्यपूर्ण ज्ञान में विश्वास था। परम तत्त्व सत्य है, जो अनिवर्चनीय है । संत कबीर ने संतनि में रविदास संत' कहकर उनका महत्त्व स्वीकार किया है।

संत रविदास ने संत कबीर के साथ मिलकर ब्राहमण-वाद को खुली चुनौती दी और मूलनिवासी समाज को उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान और पंजाब तक अपने वाणी जागृत कर से ब्राह्मण वाद से मुक्ति दिलाई।

संत रविदास का ब्राहमण-वाद के साथ विरोधाभास:-

1. बहुदेव वनाम एक देव:-

संत रविदास का विश्वास एक निराकार शक्ति मे था। ब्राह्मण धर्म या वैदिक धर्म बहू देव वाद मे विश्वास करता है, इस लिए वहाँ पर 36 करोड़ देवी और देवताओ का जिक्र है। इसके ठीक विपरीत संत रविदास ने कहा कि एक ही मालिक है और वह भी निराकार है।

जो खुदा पश्चिम बसै, तो पूरब बसत है राम।

रविदास सेवों जिह ठाकुर कू, तिह का ठाव न नाम॥

रविदास न पूजई देहरा, न मस्जिद जाय।

जह तह ईश का बास है, तह नह सीस नवाय॥

मुसलमान सो दोस्ती, हिन्दुअन सो कर प्रीत।

रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।

रविदास हमारे राम जी, दशरथ करि सुत नांहि।

राम हमऊ मांहि रमि रह्यो, बिसव कुटंबह माहि॥

2. साकार वनाम निराकार:-

अपने 36 करोड़ देवी और देवताओ के माध्यम वैदिक धर्म बहू देव वाद मे विश्वास करता है। और इन सभी देवताओ की मूलनिवासियों मूलनिवासियों से पुजा कराता है और इसके नाम पर मूलनिवासियों से दान दक्षिणा लेता है और उनको आर्थिक रूप से कमजोर करता है। इन सारे देवी देवता की मूर्तियाँ बनी है और सबके पास मार काट करने वाला कोई न कोई हथियार है जिसके कारण मूलनिवासियों मे इन देवताओ का भय पैदा कर उनको मानसिक रूप से गुलाम बनाता है । संत रविदास ने 36 करोड़ देवी और देवताओ को नकार कर एक शक्ति वह भी निराकार रूप का समर्थन किया और मूर्ति पुजा, पत्थर पुजा, कर्म कांड का घोर विरोध किया। तीर्थ, गंगा स्नान करने के स्थान पर अपना मन शुद्ध करने और अपना कर्म करने और ज्ञान बढ़ाने पर ज़ोर दिया। उन्होने अपने अनुयायियों को बताया कि...

मन चंगा, तो कठौती मे गंगा।

मन ही पूजा, मन ही धूप।

मन ही सेउ, सहज सरुप॥

देता रहे हजार बरस मुल्ला चाहे अजान।

रविदास खुदा नहीं मिल सके, जो लो मन शैतान॥

3. पाखंड वाद, कर्मकांड बनाम मन की शुद्धता :

संत रविदास ने ब्राह्मण वाद के ठीक विपरीत तीर्थ, ब्रत, दर्शन, गंगा स्नान, कर्मकांड, पाखंड करने के स्थान पर मन शुद्ध करने और अपना कर्म करने पर ज़ोर दिया। उन्होने अपने अनुयायियों को बताया कि तीर्थ, ब्रत , कर्मकांड, पाखंड से दूर रह कर सत्य की खोज और सत्य को ही मानने की सलाह दिया।

का मथुरा का द्वारका, का काशी हरिद्वार।

रविदास खोजा दिल आपना, तऊ मिला दिलदार॥

माथै तिलक, हाथ जप माला, जग ठगने को स्वांग रचाया।

मारग छोड़ कुमारग डहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥

संत रविदास तथागत बुद्ध की तरह ही इंद्रियो को वश मे रखने की बात करते है।

जो बस राखे इंद्रियाँ, सुख दुख समझि समान।

सोऊ असरति पद पाइगो, कहि रैदास वारवान। ।

4. जाति वाद वनाम जाति विहीन समाज:-

जहा पर की वैदिक धर्म जिसको की वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है ने समाज को चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मे श्रेणीवद्ध असमानता के सिद्धान्त पर विभक्त किया है और तथागत बुद्ध तथा सम्राट अशोक के बाद मे उसमे 6000 जातियां बना दी। जिससे की समाज मे उंच-नीच, छुआछूत और जात-पात की गंभीर समस्या खड़ी हो गयी। संत रविदास ने वर्ण व्यवस्था जातिवाद एवं छुआछूत का घोर विरोध किया। वर्ण व्यवस्था का घोर विरोध करते हुये संत रविदास कहते है कि,

रविदास एक ही बूंद सो सब भयो वित्थार।

मूरिख है जो करत है, वरन, अवरण विचार॥

ठीक उसी प्रकार जाति व्यवस्था का भी घोर विरोध करते हुये संत रविदास कहते है कि,

जाति- जाति में जाति है, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।

जहां तुलसी दास ने जातिवाद का समर्थन करते हुआ कहा है कि..

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||

पूजिय विप्र सील गुन हीना, सूद्र न पूजे गुन ज्ञान प्रवीना ॥

ठीक इसके विपरीत मे संत रविदास ने पहले ही जातिवाद का खंडन करते हुये कह दिया है कि

रविदास बाहमन मत पूजिए, जऊ होवे गुणहीन ।

पुजाहि चरण चंडाल के, जऊ होवे गुण प्रवीण॥

रविदास जन्म के कारनै, होत न काऊ नीच।

नर कू नीच कर डारि है, ओछे कर्म की कीच॥

जात पात के फेर मे, उरझि रहे सब लोग।

मनुष्यता को खात है, रविदास जात का रोग॥

संत रविदास ने अपने अनुयायियों को भी मुक्ति का संदेश देते हुये कहा था कि किसी की भी पराधीनता/मानसिक गुलामी ठीक नहीं है। उन्हे हर प्रकार की मानसिक, धार्मिक और शारीरिक गुलामी से स्वयं को मुक्त करना चाहिए

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत ।

रैदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत॥

पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन।

रैदास पराधीन को सब ही समझे हीं॥

5. विषमता वनाम समतामूलक समाज:-

संत रविदास ने एक आदर्श कल्याण कारी शहर, बेगमपूरा (बिना गम का शहर) बसाने की कल्पना की थी जहा की व्यवस्था समाजवादी, स्वतन्त्रता, समता तथा बंधुत्व के सिधान्त पर की हो।

ऐसा चाहूँ राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।

छोटा बड़ा सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न॥

रविदास एक ही नूर ते जिमि उपज्यों संसार।

उंच नीच किह विध भये ब्राहमण और चमार॥

संत रविदास हिन्दू और मुस्लिम को भी एक निगाह से देखते है दोनों को बराबर मानते है।

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

मुसलमान सो दास्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत। रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।

6. कर्म को प्रधानता

संत रविदास तथागत बुद्ध की तरह ही कर्म को प्रधानता देते है और बताते है कि अच्छे कर्म से निम्न आदमी भी आगे बढ़ जाता है और बुरे कर्म से बड़ा आदमी भी नीचे गिर जाता है

रविदास सुकरमन कर नसो नींच, ऊंच हो जाय।

काई कुकरम ऊंच भी, तो महा नींच कहलाय॥

इस तरह हम स्वयम यह देख सकते है कि संत रविदास ब्राहमण-वाद कि सभी दमन कारी वृतिओ के विरुद्ध आंदोलन चला कर अपने मूलनिवासियो को जागृत कर उनको ब्राहमण-वाद से मुक्ति दिलाई। संत रविदास की वाणी तथागत बुद्ध की विचारधारा के अत्यंत समीप है जबकि ब्राहमण-वाद से अत्यंत दूर है।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

आरक्षण

[10:40am, 15/02/2016] ‪+91 97555 27929‬: दोस्तो मैं कुछ दिनों से देख रहा हूँ की फेसबुक पर कोई भी मुह उठाकर आरक्षण के विरोध में अपने तर्क एक ज्ञानी की तरह देता है । ज्ञानियों के तर्क कुछ
इस प्रकार होते है
१-आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिएहै
२- आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति आगे आते है।
३- आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है।
४- आरक्षण ने ही जातिवाद को जिन्दा रखा है।
५- आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए था।
६- आरक्षण के माध्यम से सवर्ण समाज की वर्तमान पीढ़ी को दंड दिया जा रहा है।
इन ज्ञानियों के तर्कों का जवाब जो इस प्रकार हैं
१- पहले तर्क का जवाब:-
आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने हेतु सरकार अनेक कार्य क्रम चला रही है और अगर चाहे तो
सरकार इन निर्धनों के लिए और
भी कई कार्यक्रम चला सकती है। परन्तु आरक्षण हजारों साल से सत्ता एवं संसाधनों से वंचित किये गए समाज के
स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है।
प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु
संविधान की धरा 16 (4) तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332 एवं 335 के तहत कुछ जाति विशेष को दिया गया है।
२- दूसरे तर्क का जवाब
योग्यता कुछ और नहीं परीक्षा के प्राप्त अंक के प्रतिशत को कहते हैं। जहाँ प्राप्तांक के साथ साक्षात्कार होता है, वहां प्राप्तांकों के साथ आपकी भाषा एवं व्यवहार को भी योग्यता का माप दंड मान लिया जाता है।
अर्थात obc/sc/st के
छात्र ने किसी परीक्षा में 60 % अंक प्राप्त किये और सामान्य जाति के किसी छात्र ने 62 % अंक प्राप्त किये तो आरक्षित जाति का छात्र अयोग्य है और सामान्य जाति का छात्र योग्य है।
आप सभी जानते है की परीक्षा में प्राप्त अंकों का प्रतिशत एवं भाषा, ज्ञान एवं व्यवहार के आधार पर योग्यता की अवधारणा नियमित की गयी है जो की अत्यंत त्रुटिपूर्ण और अतार्किक है। यह स्थापित सत्य है कि किसी भी परीक्षा में अनेक आधारों पर अंक प्राप्त किये जा सकते हैं। परीक्षा के अंक विभिन्न कारणों से भिन्न हो सकते है। जैसे कि किसी छात्र के पास सरकारी स्कूल था और उसके शिक्षक वहां नहीं आते थे और आते भी थे तो सिर्फ एक।
सिर्फ एक शिक्षक पूरे विद्यालय के लिए जैसा की प्राथमिक विद्यालयों का हाल है, उसके घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था, उसके पास किताब नहीं थी, उस छात्र के पास न ही इतने पैसे थे कि वह ट्यूशन लगा सके।
स्कूल से आने के बाद घर का काम भी करना पड़ता।
उसके दोस्तों में भी कोई पढ़ा लिखा नहीं था। अगर वह मास्टर से प्रश्न पूछता तो उत्तर की बजाय उसे डांट मिलती आदि।
ऐसी शैक्षणिक परिवेश में अगर उसके परीक्षा के नंबरों की तुलना कान्वेंट में पढने वाले
छात्रों से की जायेगी तो क्या यह तार्किक होगा।
इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है। पूरी की पूरी
सांस्कृतिक पूँजी, अच्छा स्कूल, अच्छे मास्टर, अच्छी किताबें, पढ़े-लिखे माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार, पड़ोसी, दोस्त एवं मुहल्ला। स्कूल जाने के लिए कार या बस, स्कूल के बाद ट्यूशन या माँ-बाप का पढाने में
सहयोग। क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों के मध्य परीक्षा में प्राप्तांक योग्यता का निर्धारण कर सकते हैं?
क्या ऐसे दो विपरीत
परिवेश वाले छात्रों में भाषा एवं व्यवहार की तुलना की जा सकती है?
यह तो लाज़मी है की सवर्ण समाज के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की परीक्षा में प्राप्तांक एवं भाषा के आधार पर योग्यता का निर्धारण अतार्किक एवं अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है?
३- तीसरे
[10:40am, 15/02/2016] ‪+91 97555 27929‬: ३- तीसरे और चौथे तर्क का जवाब
भारतीय समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है, जो छः हज़ार जातियों में बंटा है और यह छः हज़ार जातियां लगभग ढाई हज़ार वर्षों से मौजूद है। इस श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था के कारण अनेक समूहों जैसे दलित,
आदिवासी एवं पिछड़े समाज को सत्ता एवं संसाधनों से दूर रखा गया और इसको धार्मिक व्यवस्था घोषित कर स्थायित्व प्रदान किया गया।
इस हजारों वर्ष पुरानी श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने
के लिए एवं सभी समाजों को बराबर –बराबर का प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान में कुछ जाति विशेष को आरक्षण दिया गया है। इस प्रतिनिधित्व से यह सुनिश्चित करने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने हक की लड़ाई एवं अपने समाज की भलाई एवं बनने वाली नीतियों को सुनिश्चित कर सके।
अतः यह बात साफ़ हो जाति है कि जातियां एवं जातिवाद भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान था। प्रतिनिधित्व
( आरक्षण) इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए लाया गया न की इसने जाति और जातिवाद को जन्म दिया है। तो जाति पहले से ही विद्यमान थी और आरक्षण बाद में आया है।
अगर आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है तो, सवर्णों द्वारा स्थापित समान-जातीय विवाह, समान-जातीय दोस्ती एवं रिश्तेदारी क्या करता है?
वैसे भी बीस करोड़ की आबादी
में एक समय में केवल तीस लाख लोगों को नौकरियों में आरक्षण मिलने की व्यवस्था है, बाकी 19 करोड़ 70 लाख लोगों से सवर्ण समाज आतंरिक सम्बन्ध क्यों नहीं स्थापित कर पाता है?
अतः यह बात फिर से
प्रमाणित होती है की आरक्षण जाति और जातिवाद को जन्म नहीं देता बल्कि जाति और जातिवाद लोगों की मानसिकता में पहले से ही विद्यमान है।
४- पांचवे तर्क का जवाब
प्रायः सवर्ण बुद्धिजीवी एवं मीडिया कर्मी फैलाते रहते हैं कि
आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए है, जब उनसे पूंछा जाता है कि आखिर कौन सा आरक्षण दस वर्ष के लिए है तो मुह से आवाज़ नहीं आती है।
इस सन्दर्भ में केवल इतना जानना चाहिए कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राजनैतिक आरक्षण जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और
332 में निहित है,
उसकी आयु और उसकी समय-सीमा दस वर्ष निर्धारित की गयी थी।
नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए
आरक्षण की कोई समय सीमा सुनिश्चित नहीं की गयी थी।
५- छठे तर्क का जवाब
आज की सवर्ण पीढ़ी अक्सर यह प्रश्न पूछती है कि हमारे पुरखों के अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, छल कपटता, धूर्तता आदि की सजा आप वर्तमान पीढ़ी को क्यों दे रहे है?
इस सन्दर्भ में दलित युवाओं का मानना है कि आज की सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूँजी का किसी न किसी के रूप में लाभ उठा रही है। वे अपने पूर्वजों के स्थापित किये गए
वर्चस्व एवं ऐश्वर्य का अपनी जाति के उपनाम, अपने कुलीन उच्च वर्णीय सामाजिक तंत्र, अपने सामाजिक मूल्यों, एवं मापदंडो, अपने तीज त्योहारों, नायकों, एवं नायिकाओं, अपनी परम्पराओ एवं भाषा और पूरी की पूरी ऐतिहासिकता का उपभोग कर रहे हैं।
क्या सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपने सामंती सरोकारों और सवर्ण वर्चस्व को त्यागने हेतु कोई पहल कर रही है?
कोई आन्दोलन या अनशन कर रही है?
कितने धनवान युवाओ ने अपनी पैत्रिक संपत्ति को दलितों के उत्थान के लिए लगा दिया या फिर दलितों के साथ ही सरकारी स्कूल में ही रह कर पढाई करने की पहल की है?
जब तक ये युवा स्थापित मूल्यों की संरचना को तोड़कर नवीन संरचना कायम करने की पहल नहीं करते तब तक दलित समाज उनको भी उतना ही दोषी मानता रहेगा जितना की उनके
पूर्वजों को।
मंदिरों में घुसाया जाता है .....
जाति देखकर
किराये पर कमरा दिया जातै है...
जाति देखकर
होटल में खाना खिलाया जाता है..
जाति देखकर
कमरा किराये पर दिया जाता है..
जाति देखकर
मकान बेचा जाता है...
जाति देखकर
शादी विवाह कराये जाते है
जातिया देखकर,,,
वोट दिया जाता है..
जाति देखकर
मृत पशु उठवाये जाते है..
जाति देखकर
गाली दी जाती है..
जाति देखकर
साथ खाना खाते है..
जाति देखकर
बेगार कराई जाती है..
जाति देखकर
धिक्कारा जाता है..
जाति देखकर
बाल काटे जाते है..
जाति देखकर
ईर्ष्या पैदा होती है..
जाति देखकर
पर आपको आरक्षण चाहिये आर्थिक आधार पर......
जाति आधारित समाज में समता के लिए आरक्षण
लोकतांत्रिक राष्ट्र में अत्यावश्यक है...
क्योंकि जाति है तो आरक्षण है.....
वरना संसार के
दूसरे किसी देश में जाति नहीं है इसलिये आरक्षण नहीं
है...
जातियां समाप्त करो
आरक्षण अपने आप संमाप्त
हो जायेगा!

अशोक कालीन शिक्षा

महान सम्राट अशोक की शिक्षायें...

सम्राट अशोक को बौद्ध होने और  बौद्वधम्म के प्रचार-प्रचार का चर्चा प्रायः सभी लोग करते हैं लेकिन उन्होंने जनशिक्षा के लिए जितना महत्वपूर्ण काम किया, उतना विश्व के किसी राजा-महाराजा ने नहीं किया।उन्होंने कई शिक्षण संस्थान की स्थापना की । ब्राह्मण जनशिक्षा के घोर विरोधी थे जबकि सम्राट अशोक ने ब्राह्मणों के इस विरोध का जवाब प्रचार-प्रसार करके दिया। ब्राह्मणों और ब्राहाणवादी इतिहासकारों ने अशोक के द्वारा किये गये जनशिक्षा अभियान पर चुप्पी साधना उनके मनुवादीपन का स्पष्ट उदाहरण दिया है।

▪304ई पू:अशोक का जन्म
▪286ई पू: अशोक को अवंति का उपराजा बनाया गया ।विदिशा की सेठ कन्या देवी के साथ उनका विवाह हुआ। यही देवी  बाद में महादेवी नाम से ख्यात हुई जिससे महेंद्र नामक पुत्र का जन्म 284 ईश्वी पूर्व हुआ...
▪284ई पू: अशोक ने उज्जैन विद्यापीठ की स्थापना की.
▪282 ई पू:राजकुमार महेंद्र व राजकुमारी संघमित्रा के जन्म की खुशी में  उज्जैन विश्वविद्यालय और  सांची विद्यापीठ की स्थापना की.।
▪280ई पू:तक्षशिला में भारी जनाक्रोश वहां के उपराजा सुशीम के कारण उभरा। जनाक्रोश शान्त नहीं हुआ तब राजा बिन्दुसार ने अशोक को तुरंत तक्षशिला जाकर उभरे भारी जनाकोश को शांत करने का आदेश दिया। अशोक उज्जैन से पिता राजा बिन्दूसार से राजगृह में मिले और आज्ञा लेकर तक्षशीला गए। तक्षशिला के वासियों को राजकुमार के राज नेतृत्व की जैसे ही खबर मिली, जनता उल्लास से भर गयी। तक्षशिला जाते ही राजकुमार अशोक  क्षेत्र का अनवरत दौरा कर जनता से मिले और उनकी शिकायतें सुनकर सुशासन, सुव्यवस्था का भरोसा दिया।
▪279ई पू:अशोक गंधार में विद्यापीठ की स्थापना की.
▪270ई पू: अशोक राज्याभिषेक होने की अतिशय प्रसत्रता में सम्राट ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की।
दूसरी शताब्दी में पैदा हुए नागार्जुन इस विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे है। ब्राह्मण इतिहासकार इस विश्विद्यालय को गुप्तकाल से जोड़ते है जो कि गलत है।
▪268ई पू:अशोक उदन्तपुर विश्वविद्यालय की स्थापना
▪266ई पू:सारनाथ विद्या पीठ की स्थापना
▪265ई पू:मथुरा विद्यापीठ की स्थापना
▪264ई पू:दन्तपूर विद्यापीठ की स्थापना(राजकुमार महेंद्र और राजकुमारी संघमित्रा के बौद्ध धम्म के प्रसार के निर्मित भिक्षु बनने पर अतिशय उल्लास में दंतपुर (कलिंग देश की राजधानी) में विद्यापीठ की स्थापना की गई थी।
▪263ई पू:सारनाथ विद्यापीठ की स्थापना ।

260ई पू:नागरा विद्यापीठ की स्थापना(नागरा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित हैं आज के गोदिंया जिला से 8किमी की दूरी पर स्थित हैं) और पवनी ( यह भंडारा जिला, महाराष्ट्र में स्थित हैं)
▪258ई पू:श्रीनगर विद्यापीठ की स्थापना(श्रीनगर का प्राचीन नाम प्रवरपूर था. प्रवरपूर का ही अशोक कालीन परिवर्तित नाम श्रीनगर रखा गया. यह स्थान अदितीय धन -धान्य से भरपूर था. इस कारण इस महारमणीक स्थान का नाम सम्राट अशोक ने श्रीनगर रखा. कश्मीर, जम्मू का पूरा पूरा इलाका बौद्धमय था. कश्मीर को सम्राट कनिष्क ने बसाया और बढाया था. कनिष्क बहुत प्रसिद्ध बौद्ध धर्मी सम्राट थे. सम्राट कनिष्क के नाम पर इस नगर का नाम कनिष्कपूर था. यही कनिष्कपूर आज का कश्मीर नगर हैं. कश्मीर राज्य हैं)
▪257ई पू:गिरनार विद्यापीठ की स्थापना(गुजरात प्रान्त के जूनागढ़ के पास हैं. गिरनार में जो प्रसिद्ध शिलालेख मिला हैं, वह गिरनार के बौद्ध विद्यापीठ में ही लगाया गया था. गिरनार का शिलालेख बहुत ही प्रसिद्ध शिलालेख हैं)
▪256ई पू:एरागुंडी विद्यापीठ की स्थापना(आंध्रप्रदेश की कुर्नल जिला में हैं.256ई पू मे सम्राट अशोक ने बहुत विशाल विद्यापीठ की स्थापना की .यहां भी जनशिक्षा के लिए उन्होंने विशाल शिलालेख यानी पत्थर की किताब को गडवाया)
▪255ई पू :गुन्टू विद्यापीठ की स्थापना(पालकी गुण्टू मैसूर के पास कोपबल  तहसील में हैं. मैसूर केपास  कई  सौ  गावों में एक साथ सम्राट अशोक ने विद्यापीठ की  स्थापना करायीं .सभी विद्यापीठों में पत्थर की किताबों का पुस्तकालय बना दिया. इन्हीं किताबों को राज कर्मचारी छागड पर लादकर बांव ले जाकर लोगों को पत्थर की किताबें पढाकर उस पर अमल करने का निवेदन किया करते थे)
▪250ई पू:बुद्धगया में बहाबोधी महाविहार की स्थापना. अशोक मे  तीसरी बौद्ध संगीती की याद में बुद्धगया में महाबोधि बुद्धविहार कीस्थापना की .यह आज प्राचीनतम बुद्ध मंदिर के नाम से भारत में मशहूर हैं ,विश्व की सबसे पुरानी इमारत हैं.।

245ई पू:जगदलपुर विश्वविद्यालय की स्थापना .आज यह स्थान बंगलादेश में हैं.
▪243ई पू: कौशाम्बी विद्यापीठ की स्थापना .अशोक के समय कोशाम्बी बहुत ही प्रसिद्ध नगर था. बौद्ध संस्कृति के लिए यह स्थान ख्याति प्राप्त था.इलाहाबाद से 30 किमी  पशिम  कोशाम्बी नगर स्थित हैं.
▪240ई पू: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना .विक्रमशिला बिहार राज्य की भागलपुर जिला में अवस्थित हैं.अशोक काल में विक्रमशिला बहुत ही प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था. इस प्रकार अशोक कालीन शिक्षा विस्तार के अध्ययन से यह पता चलता हैं कि भारत के कोने-कोने में सम्राट अशोक ने विद्यापीठ की स्थापना की. जहां -जहां  विद्यापीठ बनें वहां निश्चित रूप से बौद्ध विहार बनाया गया. विदानों की सर्वस्jमत राय है कि अशोक ने अपने समय करीब एक लाख विद्यापीठ बनाये....