संस्कृत के बिना हिन्दी या अन्य आर्यभाषाओं (पंजाबी, गुजराती, मराठी, बांग्ला आदि) का उद्भव नहीं हो सकता था। इस भाग में हम संस्कृत की कुछ बातों पर चर्चा करेंगे। वर्णों के मेल यानी संधि पर भी विचार करेंगे।संस्कृत में 14 माहेश्वर सूत्र हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये हिन्दुओं के देवता शंकर (महेश) द्वारा बताए गए हैं। यह विशुद्ध रूप से काल्पनिक बात है। इन 14 सूत्रों को इसी क्रम में लिखा और याद किया जाता है, क्योंकि क्रम बदलने से ये अपना गुण और लक्ष्य दोनों खो देंगे। इनमें से शुरू के छह सूत्रों को याद करना हज़ारों शब्दों को समझने में, हिन्दी, संस्कृत आदि को सीखने में काम आ सकता है। ये छह सूत्र इस प्रकार हैं - 1) अइउण् 2) ऋलृक् 3) एओङ् 4) ऐऔच् 5) हयवरट् और 6) लण्इनसे हम प्रत्याहार बनाते हैं। प्रत्याहार कुछ निश्चित वर्णों को पहले और अन्तिम वर्ण के सहारे बताने को ही कहते हैं। अंग्रेज़ी में 'ए टू जेड', जिसे 'A-Z' लिख सकते हैं या हिन्दी में '6 से 10 तक', जिसे '6-10' लिख सकते हैं कुछ-कुछ प्रत्याहार की तरह ही है। अंग्रेज़ी के शॉर्ट फॉर्म की तुलना हम प्रत्याहार से कर सकते हैं। अब हम कुछ प्रत्याहारों को देखते और समझते हैं। 'अक्' प्रत्याहार अ, इ, उ, ऋ और लृ के समूह से बनेगा। 'अक्' का मतलब है अ से क् तक के सारे वर्ण। प्रत्याहार में किसी भी सूत्र के अन्तिम अक्षर को नहीं लेते। 'इक्' प्रत्याहार में इ से शुरू करेंगे, लेकिन ण् और क् को छोड़ देंगे। इस प्रकार हमें इ, उ, ऋ और लृ; ये चार वर्ण मिलेंगे। हिन्दी में लृका प्रयोग नहीं होता, इसलिए इसे हम अलग कर देते हैं। 'यण्' प्रत्याहार में य, र, ल और व होंगे, तो 'एच्' में ए, ओ, ऐ और औ।सजातीय वर्ण एक ही उच्चारण स्थान से उच्चारित होते हैं। अ और आ सजातीय वर्ण हैं। इ-ई तथा उ-ऊ तथा ऋ-ऋृ सजातीय वर्णयुग्म हैं। ऋ के दीर्घ रूप को ऋृ लिखते हैं। यह संस्कृत में कुछ शब्दों में है, लेकिन हिन्दीमें इसका प्रयोग नहीं होता। प्रत्याहार में अ, इ, उ, ऋ आदि का मतलब इनके दोनों ही रूपों (ह्रस्व और दीर्घ) से होता है।दो स्वर वर्णों के मिलने पर क्या होगा? पुस्तक और आलयके मिलने से पुस्तकालय कैसे बन जाता है? इन प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें स्वर सन्धि और उसके पाँच सूत्रों को समझना होगा। स्वर सन्धि दो स्वरों के मिलने से हुए बदलाव या विकार को कहते हैं। इसके पाँच सूत्र इस प्रकार हैं-1) अकः सवर्णे दीर्घः- अक् प्रत्याहार (अ, इ, उ, ऋ और लृ) के किसी भी वर्ण से सजातीय वर्ण मिले, तो उसका दीर्घ होता है। अ या आ के अ या आ (किसी एक से) के मिलने पर आ होता है। इसी तरह किसी इ (ह्रस्व या दीर्घ) के किसी इ से मिलने पर ई तथा किसी उ (ह्रस्व या दीर्घ) के किसी उ से मिलने पर ऊ होता है। रवीश, कवीन्द्र, रवीन्द्र, योगीन्द्र आदि शब्द इसके उदाहरण हैं। इनमें रवीश और रवीन्द्र प्रायः अशुद्ध लिख दिए जाते हैं। इनमें वी की जगह वि लिखना ग़लत है। परि और ईक्षा मिलकर परीक्षा बनाते हैं। विश्वामित्र को इस सन्धि से नहीं बना सकते।2) इको यणचि- इक् (इ, उ, ऋ) के बाद यदि भिन्न अक्षर आए, तो यण् (य्, व्, र्) होता है। उदाहरण- अति और अन्त मिलकर अत्यन्त बनाते हैं। यहाँ ति का इ अ से मिलकर य् (य नहीं) में बदलता है और ति को त्य बनाता है। अन्त का न्त ज्यों का त्यों रहता है। इस तरह अत्यन्त बनता है।यहाँ इ के बाद अ आया है, जो इ से भिन्न है। इति + आदि = इत्यादि, अति + अधिक = अत्यधिक, उपरि + उक्त = उपर्युक्त आदि इसके उदाहरण हैं। अत्याधिक लिखना या बोलना ग़लत है। उपयुक्त और उपर्युक्त दो भिन्न शब्द हैं। उपयुक्त का अर्थ 'उपयोगी' है, लेकिन उपर्युक्त काअर्थ 'ऊपर या पहले कहा गया' है।अनु + एषण = अन्वेषण, प्रति + एक = प्रत्येक, सु + आगत= स्वागत, पितृ + आदेश = पित्रादेश, मातृ + उपदेश = मात्रुपदेश आदि इसके कुछ और उदाहरण हैं।रि और उ मिलकर र्यु, तृ और उ मिलकर त्रु, सु और आ मिलकर स्वा, नु और ए मिलकर न्वे, ति और अ मिलकर त्य आदि बनते हैं। दूसरे शब्द के पहले स्वर की मात्रा ही नये शब्द में रहती है। अति में आवश्यक जुड़े, तो ति और आ मिलकर त्या बनाएँगे। इससे अत्यावश्यक बनेगा। अति और उत्तम के ति और उ मिलकर त्यु बनाते हैं और नया शब्द अत्युत्तम बनता है। अत्याचार, ध्वन्यात्मक, प्रत्युत्तर, प्रत्यक्ष, यद्यपि, व्युत्पत्ति, व्याकुल, व्याख्या, व्यर्थ आदि में यही सूत्र काम करता है।3) एङ् गुणः- अ या आ के बाद कोई दूसरा स्वर (ए, ऐ, ओ और औ को छोड़कर) आए तो इ-ई का ए, उ-ऊ का ओ तथा ऋ का अर् होता है। एङ् प्रत्याहार ए और ओ को बताता है। इस तरह की सन्धि को गुण सन्धि कहते हैं। रमा और ईश के मिलने से रमेश बनेगा। मा के आ और ईश के ई मिलकर ए बनाते हैं और इस तरह मा तथा ई 'मे' में बदल जाते हैं। देव + उत्थान = देवोत्थान, देव + इन्द्र = देवेन्द्र, सूर्य + उदय = सूर्योदय, पर + उपकार = परोपकार, महा + ऋषि = महर्षि, देव + ऋषि = देवर्षि, धर्म + उपदेश = धर्मोपदेश, सप्त+ ऋषि = सप्तर्षि, पर + इच्छा = परेच्छा, स्व + इच्छा = स्वेच्छा, एक + ईश्वर = एकेश्वर, झण्डा + उत्तोलन = झण्डोत्तोलन, पुरुष + उत्तम = पुरुषोत्तम, दीप + उत्सव = दीपोत्सव, महा + उत्सव = महोत्सव, सन्तान + उत्पत्ति = सन्तानोत्पत्ति,पूर्व + उत्तर = पूर्वोत्तर, विवाह + इतर = विवाहेतर, बाल + इन्दु = बालेन्दु, जल + ऊर्मि = जलोर्मि, लोक + उक्ति = लोकोक्ति, सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम आदि इसके उदाहरण हैं।इसके अपवाद स्व + ईर = स्वैर, अक्ष + ऊहिनी = अक्षौहिणी, प्र + ऊढ = प्रौढ, सुख + ऋत = सुखार्त, दश + ऋण = दशार्ण आदि हैं।4) वृद्धिः एचि- अ या आ के बाद एच् (ए, ओ, ऐ और औ) रहने पर वृद्धि (ऐ और औ में बदल जाना) होती है। ए का दूसरा बड़ा रूप ऐ और ओ का दूसरा बड़ा रूप औ है। इस सन्धि को वृद्धि सन्धि कहते हैं। तथा और एव मिलकर तथैव बनाते हैं। एक और एक मिलकर एकैक बनाते हैं। इसमें क का अ एक के ए से मिलकर कै बनाता है। सदा + एव = सदैव, मत + ऐक्य= मतैक्य, परम + औषधि = परमौषधि, जल + ओघ = जलौघ आदि इसके उदाहरण हैं।अधर + ओष्ठ = अधरोष्ठ इसका अपवाद है। वैसे यह अधरौष्ठभी हो सकता है।5) एचो अय् अव् आय् आवः (अयवायावः)- इसे याद करना थोड़ा कठिन है। हमने पहले बताया है कि इ का सम्बन्ध ए और य से तथा उ का सम्बन्ध ओ और व से है। अगर यह बात ध्यान रहे, तो गुण सन्धि को भी बिना श्रम के याद रखा जा सकता है। यहाँ भी हम इसी सूत्र की सहायता लेंगे। एच् (ए, ओ, ऐ और औ) के बाद भिन्न स्वर* रहने पर क्रमशः अय्, अव्, आय् या आव् हो जाता है। हम इसे अपने पुराने सूत्र से समझते हैं। ए का सम्बन्ध य से है और ए ऐ का छोटा रूप है, इसलिए अय् हो जाएगा। छोटे रूपों (ए और ओ) के लिए शुरू में अ जोड़ लेंगे और बड़े रूपों (ऐ और औ) के लिए आ। यहाँ इतना ही ध्यान रहे कि य और व की जगह य् और व् लिखें। ने + अन = नयन, चे + अन = चयन, गै + अक = गायक, पो + इत्र = पवित्र, पो + अन = पवन, पौ + अक = पावक, नौ + इक = नाविक, भौ + उक = भावुक, विनै + अक = विनायक, नै + अक = नायक, रौ + अण = रावण आदि इसके उदाहरण हैं। पौ के औ के बाद अक का अ (भिन्न स्वर) है, तोपौ पाव् में बदला और पावक बना।गायन, नयन, शयन, पावन आदि भी इसके उदाहरण हैं।*संस्कृत में 'भिन्न स्वर' की जगह 'किसी भी स्वर के रहने पर' होता है। हरि + ए = हरये, मुने + ए = मुनये इसके उदाहरण हैं, जिनमें ए के बाद ए ही आता है।
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