मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

संत रविदास के विचार

गुरु रविदास का आन्दोलन भक्ति आन्दोलन नहीं , बल्कि मूलनिवासियो के लिए ब्राहमण-वाद से मुक्ति आन्दोलन था:-

जिसे भक्ति आन्दोलन कहा जाता है, वह एक तरह से समय के साथ ब्राहमण-वाद के विरुद्ध विद्रोह था जिसको गुरु रविदास, संत कवीर दास जी, गुरुनानक जी जैसे क्रांतिकारी संतो और गुरुओ ने अपने अपने-अपने से तरीके से चलाया था. असल में बह बुदधा के ही आन्दोलन का प्रतिरूप था, जिसे भक्ति आन्दोलन की ज्ञानाश्रयी शाखा बोल कर हिन्दुइस्म के साथ जोड़ दिया गया है। जबकि इनके विचार हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था, कर्म कांड, बहुदेव वाद, छूआछूत, मूर्ति पुजा, तीर्थ वर्त, साकार ईश्वर इत्यादि के बिरुद्ध है और इन संतो और गुरुओ का उद्देश्य ब्राहमण-वाद के विरुद्ध विद्रोह कर ब्राहमण-वाद की मानासिक, रूप से गुलाम बनाई गयी मूलनिवासी जनता को मुक्ति दिलाने का था। कई विद्वानो का मानना है आचार्य रामचंद्रा शुक्ल ने कबीर और रविदास का मूल्यांकन ठीक से नही किया और इनके स्थान पर तुलसी दास को महिमामंडित किया।

आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही हैं जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी रैदास उच्च-कोटि के ज्ञानाश्रयी संत थे। उन्होंने समता और सदाचार, मन शुद्धि पर बहुत बल दिया। सत्य को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना ही उनका ध्येय था। उनका सत्यपूर्ण ज्ञान में विश्वास था। परम तत्त्व सत्य है, जो अनिवर्चनीय है । संत कबीर ने संतनि में रविदास संत' कहकर उनका महत्त्व स्वीकार किया है।

संत रविदास ने संत कबीर के साथ मिलकर ब्राहमण-वाद को खुली चुनौती दी और मूलनिवासी समाज को उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान और पंजाब तक अपने वाणी जागृत कर से ब्राह्मण वाद से मुक्ति दिलाई।

संत रविदास का ब्राहमण-वाद के साथ विरोधाभास:-

1. बहुदेव वनाम एक देव:-

संत रविदास का विश्वास एक निराकार शक्ति मे था। ब्राह्मण धर्म या वैदिक धर्म बहू देव वाद मे विश्वास करता है, इस लिए वहाँ पर 36 करोड़ देवी और देवताओ का जिक्र है। इसके ठीक विपरीत संत रविदास ने कहा कि एक ही मालिक है और वह भी निराकार है।

जो खुदा पश्चिम बसै, तो पूरब बसत है राम।

रविदास सेवों जिह ठाकुर कू, तिह का ठाव न नाम॥

रविदास न पूजई देहरा, न मस्जिद जाय।

जह तह ईश का बास है, तह नह सीस नवाय॥

मुसलमान सो दोस्ती, हिन्दुअन सो कर प्रीत।

रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।

रविदास हमारे राम जी, दशरथ करि सुत नांहि।

राम हमऊ मांहि रमि रह्यो, बिसव कुटंबह माहि॥

2. साकार वनाम निराकार:-

अपने 36 करोड़ देवी और देवताओ के माध्यम वैदिक धर्म बहू देव वाद मे विश्वास करता है। और इन सभी देवताओ की मूलनिवासियों मूलनिवासियों से पुजा कराता है और इसके नाम पर मूलनिवासियों से दान दक्षिणा लेता है और उनको आर्थिक रूप से कमजोर करता है। इन सारे देवी देवता की मूर्तियाँ बनी है और सबके पास मार काट करने वाला कोई न कोई हथियार है जिसके कारण मूलनिवासियों मे इन देवताओ का भय पैदा कर उनको मानसिक रूप से गुलाम बनाता है । संत रविदास ने 36 करोड़ देवी और देवताओ को नकार कर एक शक्ति वह भी निराकार रूप का समर्थन किया और मूर्ति पुजा, पत्थर पुजा, कर्म कांड का घोर विरोध किया। तीर्थ, गंगा स्नान करने के स्थान पर अपना मन शुद्ध करने और अपना कर्म करने और ज्ञान बढ़ाने पर ज़ोर दिया। उन्होने अपने अनुयायियों को बताया कि...

मन चंगा, तो कठौती मे गंगा।

मन ही पूजा, मन ही धूप।

मन ही सेउ, सहज सरुप॥

देता रहे हजार बरस मुल्ला चाहे अजान।

रविदास खुदा नहीं मिल सके, जो लो मन शैतान॥

3. पाखंड वाद, कर्मकांड बनाम मन की शुद्धता :

संत रविदास ने ब्राह्मण वाद के ठीक विपरीत तीर्थ, ब्रत, दर्शन, गंगा स्नान, कर्मकांड, पाखंड करने के स्थान पर मन शुद्ध करने और अपना कर्म करने पर ज़ोर दिया। उन्होने अपने अनुयायियों को बताया कि तीर्थ, ब्रत , कर्मकांड, पाखंड से दूर रह कर सत्य की खोज और सत्य को ही मानने की सलाह दिया।

का मथुरा का द्वारका, का काशी हरिद्वार।

रविदास खोजा दिल आपना, तऊ मिला दिलदार॥

माथै तिलक, हाथ जप माला, जग ठगने को स्वांग रचाया।

मारग छोड़ कुमारग डहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥

संत रविदास तथागत बुद्ध की तरह ही इंद्रियो को वश मे रखने की बात करते है।

जो बस राखे इंद्रियाँ, सुख दुख समझि समान।

सोऊ असरति पद पाइगो, कहि रैदास वारवान। ।

4. जाति वाद वनाम जाति विहीन समाज:-

जहा पर की वैदिक धर्म जिसको की वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है ने समाज को चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मे श्रेणीवद्ध असमानता के सिद्धान्त पर विभक्त किया है और तथागत बुद्ध तथा सम्राट अशोक के बाद मे उसमे 6000 जातियां बना दी। जिससे की समाज मे उंच-नीच, छुआछूत और जात-पात की गंभीर समस्या खड़ी हो गयी। संत रविदास ने वर्ण व्यवस्था जातिवाद एवं छुआछूत का घोर विरोध किया। वर्ण व्यवस्था का घोर विरोध करते हुये संत रविदास कहते है कि,

रविदास एक ही बूंद सो सब भयो वित्थार।

मूरिख है जो करत है, वरन, अवरण विचार॥

ठीक उसी प्रकार जाति व्यवस्था का भी घोर विरोध करते हुये संत रविदास कहते है कि,

जाति- जाति में जाति है, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।

जहां तुलसी दास ने जातिवाद का समर्थन करते हुआ कहा है कि..

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||

पूजिय विप्र सील गुन हीना, सूद्र न पूजे गुन ज्ञान प्रवीना ॥

ठीक इसके विपरीत मे संत रविदास ने पहले ही जातिवाद का खंडन करते हुये कह दिया है कि

रविदास बाहमन मत पूजिए, जऊ होवे गुणहीन ।

पुजाहि चरण चंडाल के, जऊ होवे गुण प्रवीण॥

रविदास जन्म के कारनै, होत न काऊ नीच।

नर कू नीच कर डारि है, ओछे कर्म की कीच॥

जात पात के फेर मे, उरझि रहे सब लोग।

मनुष्यता को खात है, रविदास जात का रोग॥

संत रविदास ने अपने अनुयायियों को भी मुक्ति का संदेश देते हुये कहा था कि किसी की भी पराधीनता/मानसिक गुलामी ठीक नहीं है। उन्हे हर प्रकार की मानसिक, धार्मिक और शारीरिक गुलामी से स्वयं को मुक्त करना चाहिए

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत ।

रैदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत॥

पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन।

रैदास पराधीन को सब ही समझे हीं॥

5. विषमता वनाम समतामूलक समाज:-

संत रविदास ने एक आदर्श कल्याण कारी शहर, बेगमपूरा (बिना गम का शहर) बसाने की कल्पना की थी जहा की व्यवस्था समाजवादी, स्वतन्त्रता, समता तथा बंधुत्व के सिधान्त पर की हो।

ऐसा चाहूँ राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।

छोटा बड़ा सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न॥

रविदास एक ही नूर ते जिमि उपज्यों संसार।

उंच नीच किह विध भये ब्राहमण और चमार॥

संत रविदास हिन्दू और मुस्लिम को भी एक निगाह से देखते है दोनों को बराबर मानते है।

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

मुसलमान सो दास्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत। रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।

6. कर्म को प्रधानता

संत रविदास तथागत बुद्ध की तरह ही कर्म को प्रधानता देते है और बताते है कि अच्छे कर्म से निम्न आदमी भी आगे बढ़ जाता है और बुरे कर्म से बड़ा आदमी भी नीचे गिर जाता है

रविदास सुकरमन कर नसो नींच, ऊंच हो जाय।

काई कुकरम ऊंच भी, तो महा नींच कहलाय॥

इस तरह हम स्वयम यह देख सकते है कि संत रविदास ब्राहमण-वाद कि सभी दमन कारी वृतिओ के विरुद्ध आंदोलन चला कर अपने मूलनिवासियो को जागृत कर उनको ब्राहमण-वाद से मुक्ति दिलाई। संत रविदास की वाणी तथागत बुद्ध की विचारधारा के अत्यंत समीप है जबकि ब्राहमण-वाद से अत्यंत दूर है।

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