सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

कठिन नही है शुद्ध हिंदी-भाग-50

(इस साल के अन्तिम दिन इस शृंखला का पचासवाँ भाग प्रस्तुत है। मई से यानी सात महीनों से यह चली आ रही है। शुरू में यह अंदाजा नहीं था कि इतना समय लगेगा इसमें। हमने 60 भागों में पूरा करने का सोच रखा है। कई चीज़ें सीखने को मिलती रहीं और मिलती रहेंगी। भाग 32 के बाद राजेश उत्साही जी के सुझाव पर हैशटैग बनाया‪#‎कठिन_नहीं_है_शुद्ध_हिन्दी‬... कल पहले के 32 भागों में भी इस हैशटैग को जोड़ने का प्रयास किया है।कुछ ऐसे भी लोग रहे हैं, जिन्होंने लगभग सभी भागों पर उपस्थिति दर्ज की। दीपक कुमार, रवि कुमार, दिनेशराय द्विवेदी, अरविन्द वरुण, अशोक मिश्र, अरुण कुमार साहिल, अशोक कुमार व्यास जैसे कई सज्जन इनमें शामिल हैं। श्याम रुद्र पाठक जी और अस्मुरारी नंदन मिश्र जी ने कई सवाल उठाए और हमें सीखने, समझने और लिखने का मौका मिला। कई लोगों ने जब तब साझा भी किया। नरेंद्र कुमार पासी जी ने अपने ब्लॉग पर भी एक भाग लगाया है, यह कल पता चला। सन्त समीर जी ने कुछ बातों को स्पष्ट किया। कुछ लोगों के प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए हैं। हमने कोशिश की, लेकिन समाधान नहीं हो पाया। हम इन सभी लोगों का आभार प्रकट करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्होंने सम्भवतः यह शृंखला नहीं देखी होगी, लेकिन उनकी भी सहायता ली है, जैसे सुयश सुप्रभ जी। शिक्षाविद् के बहुवचन में द् वाली बात पर इनके कारण ही हमारा ध्यान गया था। उनका भी शुक्रिया!शुरू में पोस्टें छोटी रहीं, लेकिन विषय के कारण और स्पष्ट करने के उद्देश्य से बाद में उनका आकार बढ़ने लगा। जिन्हें इस कारण परेशानी हुई, उनसे माफी चाहेंगे। हाथी बेचारा कितना भी दुबला हो, चूहा तो बन नहीं सकता।कई लोगों ने हमें व्याकरण का कोई विद्वान् या लेखक ही मान लिया, जो सच नहीं है। हम इस मामले में मामूली और थोड़ी सी रुचि रखने वाले आदमी हैं।)पक्षीगण, प्राणीमात्र, प्राणीवृन्द, मन्त्रीमंडल, योगीराज, विद्यार्थीगण, राजापथ, कालीदास आदि दो पदों (शब्दों) से मिलकर बने हैं। संस्कृत के नियम से ये अशुद्ध हैं। पहले पद का अन्त दीर्घ मात्राओं से हुआ है, तो उन्हें ह्रस्व में बदलना होगा, तब शब्द शुद्ध बनेगा। पक्षिगण, योगिराज, विद्यार्थिगण, महात्मगण, मनीषिगण, मन्त्रिवर, मन्त्रिमंडल, मन्त्रिपरिषद्, प्राणिशास्त्र, प्राणिमात्र, स्वामिभक्त, प्राणिवृन्द, राजपथ, पक्षिराज, कालिदास आदि सही हैं। वीणापाणि, श्रीराम, रसोईघर, सभाभवन, कन्यादान महाकाव्य, गौरीशंकर, चिड़ीमार, तुलसीकृत आदि में ऐसा नहीं होता।इसी तरह शब्द के दूसरे पद के अन्त में भी आ, ई और ऊ को अ,इ और उ कर दिया जाता है, जैसे अहोरात्रि से अहोरात्र, महाराजा से महाराज, दिवारात्रि से दिवारात्र आदि बनते हैं। सहजीवी, गगनचुम्बी, नरभक्षी, सप्तशती, दुअन्नी, सतसई, बैलगाड़ी, देशवासी आदि में ऐसा नहीं होता।माताहीन, भ्रातागण, नेतागण, पिताभक्ति, माताभूमि, माताभाषा, मातासत्ता आदि के सही रूप मातृहीन, भ्रातृगण, नेतृगण, पितृभक्ति, मातृभूमि, मातृभाषा, मातृसत्ता आदि हैं।नाश्तालय, कांग्रेसाध्यक्ष, रेलाश्रय, ननतकनीकी जैसे शब्द नहीं बनाए जाते, क्योंकि इनके दोनों पद दो अलग भाषाओं के हैं। जिलाधीश, जिलाधिकारी, लाठीचार्ज जैसे कुछ शब्द अपवाद हैं।पुस्तकालय को पुस्तक आलय, महाशय को महा आशय या पीताम्बर को पीत अम्बर नहीं कहा जाना चाहिए।दो पदों से बने कुछ शब्दों के अशुद्ध और शुद्ध रूप (कोष्ठक में) निम्न हैं-उन्नतशील (उन्नतिशील), दृढ़व्रती (दृढ़व्रत), निःस्वार्थी (निःस्वार्थ), राज्यनैतिक (राजनैतिक), राजपाल (राज्यपाल), राज्यधानी (राजधानी), शान्तमय (शान्तिमय), तीनगुना (तिगुना), दोगुनी (दुगनी), चारराहा (चौराहा), आमचूर (अमचूर), मूसलाधार (मूसलधार),हिन्दी अभाषी (अहिन्दीभाषी), सौभाग्यशील (सौभाग्यशाली), स्वतन्त्रप्रिय (स्वतन्त्रताप्रिय),सगुणी (सगुण), मनकामना (मनोकामना), सतोगुण (सत्त्वगुण), युधष्ठर (युधिष्ठिर), तीनभुज (त्रिभुज), चारपाया (चौपाया), सत्यनाश (सत्यानाश), विश्वमित्र (विश्वामित्र), जलसिंचित (जलसिक्त) ...चारपाई का अर्थ खाट है, लेकिन चौपाई एक छन्द!सिंचित शब्द अशुद्ध है। सही शब्द सिक्त है, जिसका अर्थ है सींचा हुआ। अकाट्य शब्द भी अशुद्ध है। अकाट्य की जगह अखण्डनीय का प्रयोग होना चाहिए। इन दोनों के शुद्ध रूपों के कारण के लिए संस्कृत का सहारा लेना पड़ेगा।मरना, छोड़ना, सुनना, कहना, देखना, पढ़ना आदि हिन्दी कीक्रियाएँ हैं। इनसे मरित, छोड़ित, सुनित, कहित, देखित, पढ़ित जैसे शब्द नहीं बना सकते। इनके लिए मृत, त्यक्त,श्रुत, कथित, दृष्ट, पठित जैसे शब्द आते हैं। इसी तरह सींचना से सींचित या सिंचित नहीं बना सकते। संस्कृत के शब्दों में ही इत या य प्रत्यय लगाते हैं, हिन्दी में नहीं।कई बार दो शब्द साथ चलते हैं, जैसे- एड़ी-चोटी, आगे-पीछे, घर-द्वार, कपड़ा-लत्ता, मेल-मिलाप, मार-पीट, जीव-जन्तु, भला-बुरा, भात-दाल, धन-दौलत, आस-पास, भाई-बहन, लेन-देन, हाथी-घोड़ा, भीड़-भाड़, लूला-लंगड़ा, काम-धाम, काम-काज, बाल-बच्चे, ठीक-ठाक, आमने-सामने, दौड़-धूप, टेढ़ा-मेढ़ा, यश-अपयश, मान-सम्मान, जीवन-मरण, थोड़ा-बहुत, लोटा-डोरी, माँ-बाप, गाय-बैल, बात-चीत, मोटा-ताजा, कंकड़-पत्थर, चढ़ाव-उतार, नाम-धाम, हाथ-पैर, कागज-कलम, रुपया-पैसा, घास-फूस, कूड़ा-कचरा, भूत-प्रेत, भला-चंगा, भूल-चूक, भूल-भुलैया, ऊँच-नीच, पालन-पोषण, चमक-दमक, खट्टा-मीठा, दिन-रात, माता-पिता, अन्न-जल, भूख-प्यास, ऋषि-मुनि, वाद-विवाद, इधर-उधर, जहाँ-तहाँ, जब-तब, कभी-कभार, देशी-विदेशी, जैसे-तैसे, यहाँ-वहाँ, दाल-रोटी, थका-माँदा, आठ-दस, स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन, देर-सबेर, सड़ा-गला, समझ-बूझ, नौकर-चाकर, दीन-दुखी, हाट-बाजार, नपा-तुला, मान-मर्यादा, हिसाब-किताब, मिलना-जुलना, जी-जान, जीत-हार आदि।कई बार शब्दों का दुहराव होता है, जैसे घर-घर, बूँद-बूँद, बड़े-बड़े, जाते-जाते, धीरे-धीरे, वाह-वाह, टन-टन, गड़-गड़ आदि।अंट-शंट, टीम-टाम, अंड-बंड, अनाप-शनाप, आँय-बाँय जैसे निरर्थक प्रयोग भी मिलते हैं।

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