पूज्यनीय हिन्दी या संस्कृत में कोई शब्द नहीं है, लेकिन इसका प्रयोग अक्सर लोग कर देते हैं। या तो पूज्य कहा जा सकता है या फिर पूजनीय! पूज्यनीय में एक साथ समान अर्थ देने वाले दो प्रत्यय लगा दिया गए हैं, जो अनुचित है। ऐसा ही मान्यनीय के साथ है। मान्य या माननीय हो सकता है, मान्यनीय नहीं। पूजा से पूज्य, पाठसे पाठ्य, काट से काट्य, खाना से खाद्य, बजाना से वाद्यआदि बनते हैं।अनीय (संस्कृत में अनीयर्) एक प्रत्यय है और पठनीय, दर्शनीय, स्मरणीय, अनुकरणीय, स्थानीय जैसे शब्द बनाताहै। यह ज़रूर ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्यय शब्द के अन्त में तो लगते ही हैं, वे शब्द में कुछ दूसरे बदलाव(जैसे पहले वर्ण में) भी कर सकते हैं। हिन्दी में 200 से अधिक प्रत्यय हैं। इनमें कुछ संस्कृत के, कुछ फ़ारसी के, कुछ अरबी के और कुछ अंग्रेज़ी के हैं। इनके अतिरिक्त सैकड़ों शब्द ऐसे हैं, जो किसी दूसरे शब्द के अन्त में लगकर नया शब्द बनाते हैं और अर्थ परिवर्तन करते हैं। अंग्रेज़ी में भी बहुत से प्रत्यय (सफ़िक्स - suffix) हैं, जैसे नेस (ness), लेस (less), इङ्ग (ing), एड (ed), फुल (ful), हूड (hood), इकल (ical) आदि।हम यहाँ सबपर विस्तृत चर्चा नहीं करेंगे।ता प्रत्यय लगाने से सुन्दर सुन्दरता में, सम समता में, निर्धन निर्धनता में बदल जाता है। सुन्दरता, समता और निर्धनता आदि के लिए सौन्दर्य, साम्य, नैर्धन्य जैसे शब्द भी हैं। ऐसे शब्दों की संख्या हिन्दी में काफी है। हमने पहले ही विस्तार से इक प्रत्यय पर चर्चा की है। अ या आ सम्बन्ध आ से; इ या ई का सम्बन्ध ए, ऐ और य् से; उ या ऊ का सम्बन्ध ओ, औ और व् से तथा ऋ का सम्बन्ध अर् और र् से ह। यह इतनी महत्त्वपूर्ण बात है कि संस्कृत सीखनी हो, तो यह आपकीमेहनत को बहुत कम कर सकती है और हिन्दी में हज़ारों शब्दों की संरचना, अर्थ और रूप को स्पष्ट कर सकती है। इस सूत्र को हम शब्दों के निर्माण में कैसे लागू करेंगे, इसके कुछ उदाहरण देखते हैं -सुन्दर के पहले वर्ण में उकार है, इसे सौ (उ का सम्बन्ध औ से है) बनाकर सौन्दर शब्द बनाते हैं। अगले चरण में अन्तिम वर्ण को आधा कर उसमें य जोड़ते हैं। इस तरह सौन्दर्य शब्द बन जाता है। यह सुन्दरता का समानार्थी (समान अर्थ वाला) है।विषम में इकार है, तो वि को वै (इ का सम्बन्ध ऐ से है) बनाते हैं, फिर अन्तिम वर्ण म को म् बनाकर य जोड़ते हैं और इस तरह वैषम्य शब्द बनता है।धीर, सुजन, एक, अधिक, दरिद्र, उदार, विविध, भाषा आदि से क्रमशः धैर्य, सौजन्य, ऐक्य, आधिक्य, दारिद्र्य, औदार्य, वैविध्य, भाष्य आदि इसी तरह बनते हैं। पाश्चात्य, शौर्य, आर्य, मान्य, त्याज्य, पाठ्य, धार्य, आचार्य जैसे शब्दों में भी हम उपरोक्त सूत्र को लागू होते हुए देख सकते हैं।संस्कृत की शरण में चलकर कुछ उदाहरण देखते हैं। लिख् से लेखक या लेखन, दृश् से दर्शक, कृ से कारक, स्मृ से स्मारक, वच् से वाचक या वाचिका, पठ् से पाठक या पाठिका आदि बनते हैं। दृश् से द्रष्टा, नी (ले जाने) से नेता, श्रु से श्रोता, हृ से हरण, चि से चयन, श्रु से श्रवण,बुध् से बोध आदि में भी हम इस सूत्र को पा सकते हैं।रघु से बने राघव, गुरु से बने गौरव, लघु से बने लाघव, पाण्डु से बने पाण्डव, यदु से बने यादव, मधु से बने माधव, मनु से बने मानव, कुरु से बने कौरव आदि में हम देखते हैं कि शुरू के वर्ण के साथ ही अन्तिम वर्ण में भी उपरोक्त सूत्र के अनुसार बदलाव हो रहा है। कुन्ती से बना कौन्तेय हो या बुद्ध से बना बौद्ध, पृथा से बनापार्थ हो या पुत्र से बना पौत्र, शिव से बना शैव हो या व्याकरण से बना वैयाकरण, इन्द्र से बना ऐन्द्र हो या विष्णु से बना वैष्णव; हम हर जगह सूत्र को काम करते हुए देखते हैं। वसुदेव, कश्यप, भरत, मगध, मथुरा, मिथिला, शिशु, भरद्वाज आदि से बने वासुदेव, काश्यप, भारत, मागध, माथुर, मैथिल, शैशव, भारद्वाज आदि भी इस सूत्र के अनुसार बने हैं। इनमें संतान या 'से सम्बन्धित' का अर्थ मिलता है। भरत की संतान भारत या कुरु की संतान कौरव होगी। महाभारत में पाण्डव भी कौरव (कुरु वंश के कारण) ही हैं, लेकिन धृतराष्ट्र के पुत्रों के लिए कौरव शब्द स्थिर कर लिया गया है। सिंधु, पशु, वस्तु आदि से बने सैंधव, पाशविक, वास्तव, वास्तविक आदि भी उ से व बनने के नियम की पुष्टि करते हैं। पंडित, पुरुष आदि से बने पांडित्य, पौरुष आदि भी सूत्र के प्रयोग उदाहरण हैं।तर, तम, आलु, इष्ठ, इमा, त्व, दा, था, आनी आदि प्रत्यय उच्चतर, निकटतम, महत्तम, लघुतम, दयालु, कृपालु, गरिष्ठ, कनिष्ठ, महिमा, गरिमा, लघुत्व, महत्त्व, यदा, सर्वदा, सर्वथा, तथा, रुद्राणी, इन्द्राणी, भवानी आदि बनाते हैं। लघुतम को लघुत्तम और महत्तम को महतम नहीं कहा जासकता। महत् शब्द में त् होने से वह महत्तम, महत्ता और महत्त्व बनाता है; जबकि लघु बिना त के द्वित्व के लघुत्व, लघुतम, लघुता आदि बनाता है। महती में त का द्वित्व नहीं होता।वान् या मान् को जोड़ने का नियम स्पष्ट है। शब्द के अन्त में इ, ई, उ, ऊ और ऋ की मात्रा रहने पर मान् लगता हैऔर अ या आ रहने पर वान् लगता है। बुद्धि, श्री, अंशु, मातृ आदि से बुद्धिवान्, श्रीवान्, अंशुवान्, मातृवान् नहीं बना सकते। बुद्धिमान्, श्रीमान्, अंशुमान्, मातृमान्, शक्तिमान् आदि शब्दों का निर्माण उचित है। श्रद्धा, भग, बल, रूप, गुण, धन, दया, ज्ञान आदि के अन्त में अकार या आकार होने से इनमें वान् जोड़ेंगे, न कि मान्। रूपवती, पुत्रवती, गुणवत्ता, अर्थवत्ता आदि शब्दों में भी यह नियम लागू होता है। वान् का नियम वती, वत्ता आदि पर भी लागू होताहै। मान् का नियम मत्ता, मती आदि के लिए भी सही है। श्रीमती, बुद्धिमत्ता, शक्तिमत्ता आदि इसके उदाहरण हैं। मान् या वान् का अर्थ 'वाला' है, जैसे धनवान् का अर्थ धन वाला या शक्तिमान् का अर्थ शक्ति वाला है। विद्यमान् संस्कृत की क्रिया से बना है और इस कारण वहअपवाद जैसा है। आयुष्मान् और आयुष्मती भी इसी तरह अपवाद जैसे हैं। प्रमाण या परिमाण को मान् से नहीं जोड़ सकते। इनमें मान है, मान् नहीं। लोकभाषा भोजपुरी में फूलमती जैसे नाम भी मिलते हैं। मधुमती नाम से दिलीप कुमार की फ़िल्म भी है। रमावती, कलावती, सत्यवती जैसे शब्द भी मिलते हैं।आगार से मिलकर शस्त्र, कारा, कोश आदि शस्त्रागार, कारागार, कोशागार आदि बनाते हैं।इत प्रत्यय लगाने पर शब्द के पहले वर्ण में कोई परिवर्तन नहीं होता, जबकि इक लगाने पर पहले वर्ण की मात्रा बदलती है। परिभाषा से पारिभाषिक और परिभाषित बनेंगे, लेकिन परिभाषिक और पारिभाषित नहीं बन सकते। इत संस्कृत के शब्दों में ही लगता हैं।तव्य की मदद से कर्तव्य, गन्तव्य, वक्तव्य, द्रष्टव्य,ज्ञातव्य आदि बनेंगे। तव्य 'के योग्य' या 'चाहिए' का अर्थ देता है।
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