मंगलवार, 2 जून 2015

संस्कार-नारी नरक का द्वार

मनुस्मृति के अनुसार, स्त्री व पशु के कोई संस्कार नहीं होते. जाहिर है स्त्री को पशु की श्रेणी में रखा गया है जबकि स्त्री के गर्भ से ही पुरुष का प्रादुर्भाव होता है. स्त्री के अंश से पैदा पुरुष संस्कार लायक है, वहीं स्त्री दुत्कारने लायक? इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहां एक ओर स्त्री को सृजनकर्ता का दरजा प्राप्त है वहीं मनु ने उसे निकृष्ट प्राणी माना है.मानवीय आपदा हो या मानवाधिकार, सब से पहले पश्चिम ही सामने आता है. कोढि़यों की सेवा हो या दुखियों की मदद,ईसाई मिशनरियां ही उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं. दूसरी तरफ हम छूना तो दूर, घृणा से मुख मोड़ लेते हैं. यही हमारे संस्कार हैं जिन का होहल्ला मचा कर हम ‘आर्यपुरुष’ बनते हैं. पाखंड हमारे खून में है. जन्म से ले कर मृत्यु तक के 16 संस्कारों का सिर्फ नगाड़ा बजाते हैं, जो ढोंग के अलावा कुछ नहीं. देखा जाए तो सब से ज्यादा अशुद्ध हम भारतीय हैं. जिस नारी के गर्भ से निकलते हैं, जगतगुरु शंकराचार्य उसे नरक का द्वार कहते हैं.बालक को पालपोस कर बड़ा करने वाली जननी के साथ ऐसा बरताव? गंगाजल को माथे से लगा कर मां के रूप में पूजते हैं, वहीं दूसरी तरफ गंगा में मलमूत्र विसर्जित करते हैं. वृद्ध मांबाप को बिना अन्नजल मारते हैं, पितृपक्ष में चील- कौओं को अन्नजल देते हैं. यही संस्कार हैं हमारे. इन्हीं की दुहाई देते हैं हम.पशु हम से श्रेष्ठ हैं, उन में बलात्कार जैसी घटना नहीं होती. एक हमारा समाज है, जहां तमाम संस्कारों के बाद भी पुरुष जातियों में शुद्ध रक्त संचारित नहीं हो पाता. फिर ऐसे संस्कारों से क्या फायदा? क्यों हम संस्कारों के नाम पर नौटंकी करते हैं तथा पंडेपुजारियों की जेबें भरते हैं. जो संस्कार हमारे भीतर इंसानियत की एक चिंगारी. न पैदा कर सकें उन्हें दफन कर देना ही ठीक रहेगा

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