शुक्रवार, 20 मार्च 2015

अछूतों की कांफ्रेंस

������ चवदार तालाब की ऐतिहासिक घटना ������
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साथियों सप्रेम जयभीम ,������

1923 मैं बंबई सरकार ने एक कानून पास किया जिसके अधिन सार्वजनिक तालाबो आैर कुऔ को अछूत पानी ले सकते थे। महाड म्यूनिसिपल कमेटी ने इस कानून के आधार पर अपने यहां चवदार तालाब पर से पाबंदी हटा दी थी । एेसा होने पर भी सवर्ण हिन्दूऔ के कठोर विरोध के कारण इस कानून पर अंमल नहीं हो रहा था। समय  व्यतीत होता जा रहा था,किंतु कानून का पास होना या पास ना होना बराबर था।
आखिरकार कुलाबा के अछूत जागे और उन्होंने दूर -दूर तक प्रचार किया। चारों ओर जागृति की लहर सी उठ खडी हुई। सबने निश्चय किया कि 19-20 मार्च 1927 को एक प्रभावशाली कान्फ्रेंस की जाए।
महाराष्ट्र और गुजरात के सब जिलों के नगरों और कस्बों के अछूतों के प्रतिनिधि कान्फ्रेंस में शामिल होने के लिए महाड में दाखिल होने लगे। हर अछूत की अजिब शान थी। उनके शरीर  पर फटा पुराना कुर्ता और वैसी ही फटी पुरानी धोती थी। हर एक अछूत के पास एक लाठी थी। जिसके सिर पर सत्तू या अाटे की पोटली लटकी हुई थी। ऐसे पेट से भूखे और अर्ध नंगे अछूतों के यह छोटे-छोटे टोले एक स्थान पर इकठ्ठे हो गये। चाहे इनकी मुख पर मिट्टी की परते जमी हुई थी,किंतु इनके दिलों में मानव के बुनियादी अधिकार प्राप्त करने के लिए पवित्र उत्साह भरा हुआ था। लगभग दस हजार व्यक्तिओं के समूह में सबसे बड़े प्रमुख नेता डॉ आम्बेडकर साहब ने प्रधान पद संभाला। ओर खड़े होकर अपने भाषण में कहा, कोई जमाना था जब हमारी जाति इस भूमि पर छाति तानकर चलती थी। उसे युग में हम ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से कहीं अधिक उन्नत ओर सभ्य थे किन्तु आज हमारी यह अधोगति की हालत देखकर हमें लज्जित होना पड़ता है।
हमारे इस पतन का मुख्य कारण यह है कि हमने सैनिकों का जीवन जीना छोड़ दिया। शताब्दियों से हमने अपना भूला भुलाया पाठ फिरसे पढना है। हमें सेना में ओर सिविल महकमों में नौकरियां प्राप्त करनी है। आज से हमें प्रतिज्ञा करनी होगी और वचनबद्ध होना होगा कि हम कभी मरे पशुओं का मास नहीं खाएंगे, भिक्षा में मिले बासी टुकड़े नहीं खाएंगे। अपने बाहुबल से धरती की छाती से अपनी रोटी स्वयं अपने परिश्रम से पैदा करेंगे और सहायता के लिए दूसरों का मुख नहीं ताकेंगे। अपने पैरों पर स्वयं खड़े होगे। आपसी जातपात का झगड़ा ओर असमानता का भेदभाव मिटा देगें। हम दूसरों के बराबर खड़े होगे। बल्कि उनसे आगे बढने का भरकस प्रयास करेंगे ओर जिन अधिकारों से हम वंचित है उन्हें हासिल करके ही रहेगे। दूसरी ओर बुद्धिमान और सूझबूझ रखने वाले स्वर्ण हिन्दूऔ से निवेदन किया गया कि वह अछूतों के साथ अमानवीय व्यवहार की समाप्ति करने में उनका साथ दे। दूसरे दिन दस हज़ार व्यक्तियों का समूह डॉ साहब के नेतृत्व में चवदार तालाब की और बढ़ा। इस दृश्य को देखकर स्वर्ण हिन्दूऔ का खून खौल उठा। डॉ साहब सबसे पहले तालाब पर पहुंच कर सिंह की भांति तालाब से पानी पिया। उसके बाद सभी अनुयायियों ने पानी पिया। यह सब देखकर स्वर्णोने गुप्त तरीके से प्रतिशोध लेने के लिए कान्फ्रेंस के पंडाल पर धावा बोल दिया। निहत्थे अछूतों को एेसा होने की कोई आशंका नहीं थी। अत्यंत क्रोध की हालत में कुछ जोशीले अछूतों ने बदला लेने की तैयारियां भी कर लीं किंतु इस प्रतिशोध की भडकती ज्वाला को डाँ साहब ने बड़े संयम ओर बुद्धिमता से शांत कर दिया। महाड निवासी स्वर्णोने ब्राह्मणों को एकत्रित किया। धर्मग्रंथो के अनुसार जल शुद्धि के लिए 108 घडो को दही, गोबर और गोमूत्र तालाब में डुबो दिया। उनके विचार से जल शुद्ध हो गया।
इस घटना से यह भलीभांति सिद्ध हो गया कि अछूतों के भाग्य का फैसला केवल उनके संघर्ष में ही है। अतः उन्हें अपना भाग्य निर्माण करने के लिए स्वयं अपनी कुर्बानी और संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा। इस बाबासाहब के संघर्ष को कोटि-कोटि प्रणाम और अभिवादन करते हुए यह उम्मीद करता हूँ कि हम सब उसी जोश के साथ खड़े हो जाएं तो परिवर्तन होना सुनिश्चित है। ������नमो बुद्धाय, जयभीम, जयभारत ������

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