गायत्री मंत्र का प्रत्येक शब्दानुसार सरलार्थ :-
ॐ+ भूर्भुवः (भुः+ भुवः), स्वः+तत्सवितुर्वरेण्यं(तत्+सवित+उर+वरणयं), भर्गो=भार्गव/भृगु , देवस्य(देव+स्य), धीमहि+धियो+योनः+प्र+चोद्यात |
ॐ =प्रणव ।
भुः = भुमि पर ।
भुवः = आसीन/ निरापद हो जाना /लेट जाना [(भूर्भुवः=भुमि पर)]।
स्व= अपने आपको ।
तत्= उस ।
सवित= अग्नि के समान तेज, कान्तियुक्त की ।
उर=भुजाओं में ।
वरण्यं = वरण करना, एक दूसरे के / एकाकार हो जाना ।
भर्गोः देवस्य=भार्गवर्षि/ विप्र(ब्राहमण) के लिये ।
धीमहि= ध्यानस्थ होना /उसके साथ एक रूप होना /धारण करना |
[(धी =ध्यान करना), (महि=धरा,धरती,धरणी,धारिणी के/से सम्बद्ध होना)
धियो =उनके प्रति/मन ही मन मे ध्यान कर / मुग्ध हो जाना / भावावेश क्षमता को तीव्रता से प्रेरित करना ।
योनः= योनि/ स्त्री जननांग ।
प्र= [उपसर्ग] दूसरों के / सन्मुख होना/ आगे करना / होना /समर्पित/समर्पण करना ।
चोदयात्= मँथन / मेथुन / सहवास / समागम / सन्सर्ग के हेतु ।
(नोट-मनुस्मृति में भी यह शब्द "चोदयात्" का इन्हीं अर्थों में कईं बार प्रयुक्त हुआ हैं|)
सरलार्थ:- हे देवी (गायत्री), भू पर आसीन (लेटते हुए) होते हुए, उस अग्निमय और कान्तियुक्त सवितदेव के समान तेज भार्गव विप्र की भुजाओं में एकाकार हो जाओ (उनका वरण कर लो); और मन ही मन में उन्ही के प्रति भावमय होकर उनको धारण कर लो और पूर्ण क्षमता से अपनी योनि(जननांग) को मैथुन ( सहवास) हेतु उन्हें समर्पित कर दो |
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.....तो इस प्रकार हम देखते हैं की जिस 'गायत्री मंत्र' का अधिकांश हिन्दू लोग पूर्ण श्रद्धा के साथ सुबह-शाम और भोर को जगते ही ५-७-११-२१-१००८,१०,००८ इत्यादि बार जाप करते हैं, वो शायद इन्हीं भावों को जाने-अनजानें में व्यक्त करतें रहतें है !!!
NOTE :- है अगर दम किसी हिन्दू में तो इसे गलत साबित करके बताईये ।केवल भौंकने से कुछ नही हो सकता ।
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Amar nath jha.ksi.
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